अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 20/ मन्त्र 7
ऋषिः - मातृनामा
देवता - मातृनामौषधिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - पिशाचक्षयण सूक्त
41
क॒श्यप॑स्य॒ चक्षु॑रसि शु॒न्याश्च॑ चतुर॒क्ष्याः। वी॒ध्रे सूर्य॑मिव॒ सर्प॑न्तं॒ मा पि॑शा॒चं ति॒रस्क॑रः ॥
स्वर सहित पद पाठक॒श्यप॑स्य । चक्षु॑: । अ॒सि॒ । शु॒न्या: । च॒ । च॒तु॒:ऽअ॒क्ष्या: । वी॒ध्रे । सूर्य॑म्ऽइव । सर्प॑न्तम् । मा । पि॒शा॒चम् । ति॒र: । क॒र॒: ॥२०.७॥
स्वर रहित मन्त्र
कश्यपस्य चक्षुरसि शुन्याश्च चतुरक्ष्याः। वीध्रे सूर्यमिव सर्पन्तं मा पिशाचं तिरस्करः ॥
स्वर रहित पद पाठकश्यपस्य । चक्षु: । असि । शुन्या: । च । चतु:ऽअक्ष्या: । वीध्रे । सूर्यम्ऽइव । सर्पन्तम् । मा । पिशाचम् । तिर: । कर: ॥२०.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्म की उपासना का उपदेश।
पदार्थ
[हे परमात्मन् !] तू (कश्यपस्य) रस पीनेवाले सूर्य का (च) और (चतुरक्ष्याः) पूर्वादि चार प्रकार से व्याप्तिवाली (शुन्याः) बढ़ी हुई दिशा का (चक्षुः) देखनेवाला ब्रह्म (असि) है। (पिशाचम्) मांस खानेवाले [पीड़ादायक] विघ्न को (मा तिरस्करः) गुप्त मत रख [प्रकाश करदे], (वीध्रे) विशेष चमकने के समय अर्थात् मध्याह्न में (सर्पन्तम्) चलते हुए (सूर्यमिव) सूर्य को जैसे [नहीं छिपा सकते] ॥७॥
भावार्थ
परमात्मा इस सब विशाल संसार को सर्वथा देखता है और सबके दोषों को इस प्रकार जानता है, जैसे दोषहर के सूर्य को। इससे सब मनुष्य दोषों को त्याग कर सदा सुख से रहें ॥७॥
टिप्पणी
७−(कश्यपस्य) अ० २।३७।७। कश्यं जलरसं पिबतीति, तस्य, सूर्यस्य (चक्षुः) दर्शकं ब्रह्म (असि) (शुन्याः) श्वन्नुक्षन्पूषन्०। उ० १।१५९। इति टुओश्वि गतिवृद्ध्योः-कनिन्, नान्तत्वात् ङीप्। व्याप्तायाः प्रवृद्धाया दिशायाः (चतुरक्ष्याः) चतुर्+अक्षू व्याप्तौ-इन-ङीप्। पूर्वादिदिग्रूपेण चतुर्विधानि अक्षीणि व्यापनानि यस्याः सा चतुरक्षी तस्याः। चतुर्विधव्यापनशीलायाः (वीध्रे) वाविन्धेः। उ० २।२६। इति वि+इन्धी दीप्तौ-क्रन्। विशेषदीप्तिकाले। (मध्याह्ने) (सूर्यमिव) (सर्पन्तम्) गच्छन्तम् (पिशाचम्) पिशितभक्षकं विघ्नम् (मा तिरस्करः) करोतेर्माङि लुङि। कृमृदृरुहिभ्यश्छन्दसि। पा० ३।१।५९। इति च्लेः अङ् आदेशः। अन्तर्हितं मा कार्षीः। सर्वथा प्रकाशय-इत्यर्थः ॥
विषय
'कश्यप व शुनि' की आँख
पदार्थ
१. हे वेदवाणि! तू (कश्यपस्य) = ज्ञानी पुरुष की (चक्षुः असि) = आँख है। एक ज्ञानी पुरुष तेरे द्वारा ही अपने (कर्तव्य) = कर्मों को देख पाता है (च) = और (चतः अक्ष्या:) = चार आँखोंवाली, अर्थात् 'धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष'-रूप चारों पुरुषार्थों को देखनेवाली (शुन्या:) = [शुन गती] विषयों के प्रकाशन में गतिवाली बुद्धि [सरमा-देवशुनी] की तू आँख है। यह बुद्धि तेरे द्वारा ही सब धर्मादि को देख पाती है। २. हे वेदवाणि! तु (व्रीधे) = [विविधम् इन्धन्ते दीप्यन्ते अस्मिन ग्रहनक्षत्रादीनि इति] अन्तरिक्ष में (सर्पन्तं सूर्यम् इव) = गति करते हुए इस सूर्य की भाँति हमारे हृदयान्तरिक्षों में गति करते हुए (पिशाचम्) = मांस को खा जानेवाले राक्षसीभावों को (मा तिरस्कर:) = मत छिपानेवाली हो, अर्थात् तेरे द्वारा इन राक्षसी भावों को हम दूर करनेवाले हों।
भावार्थ
वेदमाता ज्ञानी पुरुष की बुद्धि की आँख के समान है। इसके द्वारा हम हृदयान्तरिक्ष में छिपकर गति करनेवाले राक्षसीभावों को दूर कर पाते हैं।
भाषार्थ
[हे औषधिरूप परमेश्वर !] (कश्यपस्य) कश्यप१ की (चक्षुः) आंख (असि) तू है (च) और (चतुरक्ष्याः२ शुन्याः) चार आंखोंवाली कुतिया की भी [तु आँख है] अतः (वीध्रे) अंतरिक्ष में (सर्पन्तम्) सर्पण करते हुए (सूर्यम् इव)सूर्य के सदृश (पिशाचम्) मांसभक्षक को (मा) मत (तिरस्करः) अन्तहित कर, छुपने न दे।
टिप्पणी
[कश्यप=पश्यतीति कश्यपः, उदित हुआ सूर्य, जोकि सबको देखता है, यह रश्मियों से आविष्ट सूर्य है। जैसे इस सूर्य का अन्तर्धान नहीं होता, यह सर्वदृष्टिगोचर है, इसी प्रकार है औषधि ! तू पिशाच को भी अन्तर्हित न होने दे, छिपने न दे। तिर:= तिरोऽन्तर्धौ (अष्टा० १।४।७९)। कर:= करोतेर्माङि लुङिः च्लेरङ् (सायण)। पिशाच है मांसभक्षण करनेवाला, उसे क्षीण कर देने वाला रोगकीटाणु [germ]। ये शरीर में प्रविष्ट होकर शारीरिक रुधिर-मांस को क्षीण कर देते हैं। पिशाच=पिशितं मांसम् अचति याचते इति (भ्वादिः)। ये पिशाच, वायुमण्डल तथा जल और खाद्य पदार्थों में विद्यमान रहते हैं, और वहाँ से हमारे शरीरों में प्रविष्ट हो जाते हैं।] [१. सूर्य आकाश में निधिरूप में चलता है, नियमपूर्वक। ऐसा चलना विना चक्षु के सम्भव नहीं, अतः हे परमेश्वर ! तू ही उसका चक्षु है, तू ही उसका चक्षु बनकर उसे चला रहा है। २. इसी प्रकार बार चारुआँखों वाली शुनी अर्थात् कुतिया की भी तू चक्षु है। यह शुनी द्युलोकस्थ है, रात्रि में दृष्टिगोचर होती है, दिन में सौर प्रकाश के कारण छिपी रहती है। मानो रात्रिकाल में तुम चक्षु के द्वारा रात्रि के दृश्यों को वह देखती है। परमेश्वर तो सब जड़ अर्थात् आधिदैविक पृथिव्यादि तत्वों का चक्षु बनकर उन्हें नियमपूर्वक चला रहा है, परन्तु सूर्य जो दिन में चलता है, और चतुरक्षी शुनी जो रात्रि में देखती है, ये दो केवल दृष्टान्तरूप में कथित किये हैं। अथर्व १८।२।११ में श्वानों का वर्णन हुआ है उन्हें कि "सारमेयौ "चतुरक्षी' शवलौ" कहा है। सम्भवतः इन दो 'श्वानों को 'शुनीमण्डल' कहा है, जिसेकि "शुन्याश्च चतुरश्याः कहा है। दो 'श्वानो' की चार आंखें होती हैं।]
विषय
दर्शनशक्ति का वर्णन।
भावार्थ
हे देवि ! दृक् शक्ते ! (कश्यपस्य) कश्य अर्थात् ज्ञान का पान करने हारे, तत्वद्रष्टा, ज्ञानी, योगी की तू (चक्षुः असिः) आंख है। (च) और (चतुर-अक्ष्याः) चार आंख वाली-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द इन चार प्रमाणों या चार वेदों से दर्शन करने वाली (शुन्याः) शुनी, प्रमा या वेद वाणी या चित्तिशक्ति की भी तू आख है। (वीध्रे) आकाश में (सर्पन्तं) गति करते हुए (सूर्यम्-इव) सूर्य की न्याई उसी प्रकार (वीधे* सर्पन्तं) स्वभावतः शुद्ध आत्माकाश में स्वच्छन्द गति करने हारे (मापिशाचं) मेंरे पिशाच भावों को तू (तिरः करः) तिरस्कृत करदे। अथवा ‘पिश’ अर्थात् रूपवान् देह में व्यापक (मा) अहमभिमानी आत्मा का (तिरः कुरः) सबसे पृथक् करके दिखा। वा उसको (मा तिरः करः) मत छिपने दे।
टिप्पणी
वां धिन्धेरित्यौणादिकोरकू (उणा० २। २६) विशेषेणेन्धते दीप्यते तद्वीघ्रम्। स्वभावशुद्धः। इति दयानन्दः औणादिव्याख्यायाम्। विविधम् इन्धते।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मातृनामा ऋषिः। मातृनामा देवताः। १ स्वराट्। २-८ अनुष्टुभः। ९ भुरिक्। नवर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Divine Sight
Meaning
O light of divine vision, you are the super-eye of the realised yogi. You are the fourfold vision of the sagely seer’s consciousness. Like the sun travelling in space, reveal, and allow not the cancerous evils to conceal themselves and escape the detective eye.
Translation
You are the sight of Kasyapa (one who sees clearly), and of the four-eyed she-hound (caturáksya sunya). May you not conceal the blood-sucker; make it manifest like the sun crawling in the sky.
Translation
This plant is the agent of the increasement of sight of Kashyapa, the eye. It is also the agent of increasing the vision of the consciousness which has four eyes—Cognition, Conjecture, similarity and authority. Let it not hide but make visible the rare disease germ like the Sun when it rides at noon.
Translation
O power of discernment, thou art the eye of a learned yogi, of mental rower acquired through the study of the four Vedas. Conceal not from me my ignoble designs like the sun that rides in the pure sky.
Footnote
Griffith translates Kashyapa as one of a class of semi-divine spirits or Jenu conneted with or regulating the course of the sun. This explanation is not plausible. The word means a yogi who diffuses knowledge, is the seer of truth, and highly learned. He translates sumya as a bitch that has four eyes. This explanation is irrational and unacceptable. ‘Four eyes' mean the four Vedas and Sumya is mental force.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७−(कश्यपस्य) अ० २।३७।७। कश्यं जलरसं पिबतीति, तस्य, सूर्यस्य (चक्षुः) दर्शकं ब्रह्म (असि) (शुन्याः) श्वन्नुक्षन्पूषन्०। उ० १।१५९। इति टुओश्वि गतिवृद्ध्योः-कनिन्, नान्तत्वात् ङीप्। व्याप्तायाः प्रवृद्धाया दिशायाः (चतुरक्ष्याः) चतुर्+अक्षू व्याप्तौ-इन-ङीप्। पूर्वादिदिग्रूपेण चतुर्विधानि अक्षीणि व्यापनानि यस्याः सा चतुरक्षी तस्याः। चतुर्विधव्यापनशीलायाः (वीध्रे) वाविन्धेः। उ० २।२६। इति वि+इन्धी दीप्तौ-क्रन्। विशेषदीप्तिकाले। (मध्याह्ने) (सूर्यमिव) (सर्पन्तम्) गच्छन्तम् (पिशाचम्) पिशितभक्षकं विघ्नम् (मा तिरस्करः) करोतेर्माङि लुङि। कृमृदृरुहिभ्यश्छन्दसि। पा० ३।१।५९। इति च्लेः अङ् आदेशः। अन्तर्हितं मा कार्षीः। सर्वथा प्रकाशय-इत्यर्थः ॥
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