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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 20 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 20/ मन्त्र 2
    ऋषिः - मातृनामा देवता - मातृनामौषधिः छन्दः - स्वराडनुष्टुप् सूक्तम् - पिशाचक्षयण सूक्त
    49

    ति॒स्रो दिव॑स्ति॒स्रः पृ॑थि॒वीः षट्चे॒माः प्र॒दिशः॒ पृथ॑क्। त्वया॒हं सर्वा॑ भू॒तानि॒ पश्या॑नि देव्योषधे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ति॒स्र: । दिव॑: । ति॒स्र: । पृ॒थि॒वी । षट् । च॒ । इ॒मा: । प्र॒ऽदिश॑: । पृथ॑क् । त्वया॑ । अ॒हम् । सर्वा॑ । भू॒तानि॑ । पश्या॑नि । दे॒वि॒ । ओ॒ष॒धे॒ ॥२०.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तिस्रो दिवस्तिस्रः पृथिवीः षट्चेमाः प्रदिशः पृथक्। त्वयाहं सर्वा भूतानि पश्यानि देव्योषधे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तिस्र: । दिव: । तिस्र: । पृथिवी । षट् । च । इमा: । प्रऽदिश: । पृथक् । त्वया । अहम् । सर्वा । भूतानि । पश्यानि । देवि । ओषधे ॥२०.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 20; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्म की उपासना का उपदेश।

    पदार्थ

    (देवि) हे दिव्य शक्ति, (ओषधे) तापनाशक परमात्मन् ! (त्वया) तेरे सहारे से (अहम्) मैं (तिस्रः) तीनों (दिवः) सूर्य लोकों, (तिस्रः) तीनों (पृथिवीः) भूमियों (च) और (इमाः) इन (षट्) छह (प्रदिशः) फैली हुई दिशाओं और (सर्वा) सब (भूतानि) सृष्ट पदार्थों को (पृथक्) नाना प्रकार से (पश्यानि) देखूँ ॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्य परमेश्वर की महिमा के साथ तीन उत्तम, मध्यम और अधम प्रकार से संसार के सब पदार्थों को साक्षात् करके विज्ञानपूर्वक उनसे उपकार लेवे ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(तिस्रः) उत्तममध्यमाधमरूपेण त्रिसंख्याकाः (दिवः) द्युलोकान् (पृथिवीः) भूलोकान् (षट्) प्राच्याद्या ऊर्ध्वाधोदिग्भ्यां सह षट्संख्याकाः (च) (इमाः) परिदृश्यमानाः (प्रदिशः) प्रकृष्टा दिशाः (पृथक्) नानारूपेण (त्वया) ब्रह्मणा सहायेन (अहम्) उपासकः (सर्वा) सर्वाणि (भूतानि) भूतजातानि (पश्यानि) साक्षात्करवाणि (देवि) हे दिव्यशक्ते (ओषधे) हे अन्नाद्योषधिवत् तापनाशक परमात्मन् ॥

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    विषय

    तिस्रो दिवः, तिस्त्रः पृथिवी:

    पदार्थ

    १. यह वेदमाता दोषों का दहन करने के कारण 'ओषधि' है [उषु दाहे]। हे (ओषधे) = दोषों का दहन करनेवाली (देवि) = हमारे जीवनों को प्रकाशमय बनानेवाली वेदमातः! (त्वया) = तेरे द्वारा (अहम्) = मैं (सर्वा) = सब (भूतानि) = भूतों को-ब्रह्माण्ड के निर्माण में कारणभूत 'पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश' को (पश्यानि) = देखता हूँ-इनका ठीक-ठीक ज्ञान प्राप्त करता हूँ। २. (तिस्त्र: दिव:) = धुलोक के 'उत्तम, मध्यम, अधम' तीनों क्षेत्रों को तथा तिनः (पृथिवी:) = पृथिवी के भी 'उत्तम, मध्यम, अधम' तीनों भागों को (च) = और (इमा:) = इन (षट्) = 'पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण ध्रुवा-ऊवा' नामक छह (प्रदिश:) = प्रकृष्ट दिशाओं को (पृथक्) = अलग-अलग करके विविक्तरूप में मैं इस वेदमाता के द्वारा देखनेवाला बनाता हूँ।

    भावार्थ

    वेदमाता के द्वारा धुलोक व पृथिवीलोक के तीनों विभागों का तथा व्यापक छह दिशाओं का ठीक-ठीक ज्ञान प्राप्त होता है।

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    भाषार्थ

    (देवि ओषधे !) दिव्यगुणवती हे औषधि ! (तिस्रः दिवः) तीन द्यौः को, (तिस्र: पृथिवी:) तीन पृथिवियों को, (च) और (पृथक्) पृथक्-पृथक् रूप में (इमाः षट् प्रदिशः) इन ६ विस्तृत दिशाओं को; (सर्वा=सर्वाणि, भूतानि) तथा सब भूतों को, (त्वया) तुझ द्वारा (अहम्) मैं (पश्यानि) देखूं। ["मैं" अर्थात् दिव्यदृष्टि-सम्पन्न योगी।]

    टिप्पणी

    [तिस्रः पृथिवी: तिस्र: दिव: = "इस जगत् में उत्तम मध्यम और अधम तीन प्रकार की भूमि और अग्नि है" (ऋ० २।२७।८ दयानन्द)। तिस्र: दिवः= द्युलोक, तदुपरि माहेन्द्रलोक, तदुपरि प्राजापत्यलोक (देखो योगदर्शन' "भुवनज्ञानं सूर्ये संयमात्" (२६) पर व्यासभाष्य। अथवा द्युलोक की विषुवत् रेखा [Equinoctial line], जिसपर सूर्य के आते दिन रात बराबर काल के हो जाते हैं। तथा इस रेखा से उत्तर का भाग और दक्षिण का भाग। इस प्रकार भी द्युलोक तीन भागों में विभक्त हो जाता है। तिस्रः पृथिवी:=जल, स्थल तथा पर्वतीय तीन विभाग। अथवा उष्ण पट्टी, शीतोष्ण पट्टी तथा शीत पट्टी में तीन विभाग। षट् प्रदिश:=पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर, ध्रुव तथा ऊर्ध्वि दिशाएं। इन्हें पृथक्-पृथक् रूप में देखना। ये दिशाएँ परस्पर में मिली जुली हैं, इन्हें पृथक्-पृथक् सीमाओं में विभक्त कर पहचानना। भूतानि= पंचभूत तथा भौतिक जगत्।]

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    विषय

    दर्शनशक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    (तिस्रः दिवः) तीन द्यौः, प्रकाशमय ऊर्ध्वगति रूप दिव्य लोकों को, और (तिस्रः पृथिवीः) तीन पृथिवियों को—भूमियों को और (षट् च) छः (इमाः प्र-दिशः) इन प्रदिशाओं को और (सर्वा भूतानि) समस्त प्राणियों को हे देवि ! हे ओषधे ! तेज को धारण करने हारी तेजस्विनि ! (त्वया) तेरे सामर्थ्य से (अहं) मैं (पश्यानि) देखूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मातृनामा ऋषिः। मातृनामा देवताः। १ स्वराट्। २-८ अनुष्टुभः। ९ भुरिक्। नवर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Divine Sight

    Meaning

    O divine herb, divine light of the eye, by virtue of your gift, let me see all things in existence: three regions of light, three earths, three skies and into these six directions one by one.

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    Translation

    Three skies, three earths, and these six different regions of heaven; with your aid, O glorious herb, may I see all the beings.

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    Translation

    Through this wonderful plant let me behold three several heaven, three several earths, these six heavenly regions separately and thus all the creatures.

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    Translation

    O God, the Divine Alleviator of sufferings like medicine, through Thy aid may I behold three heavens, three earths, and these six regions one by one, and all creatures that exist.

    Footnote

    Three: Uppermost, Middle, and Lowest, Six regions: East, South, West, North, Zenith, and Nadir.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(तिस्रः) उत्तममध्यमाधमरूपेण त्रिसंख्याकाः (दिवः) द्युलोकान् (पृथिवीः) भूलोकान् (षट्) प्राच्याद्या ऊर्ध्वाधोदिग्भ्यां सह षट्संख्याकाः (च) (इमाः) परिदृश्यमानाः (प्रदिशः) प्रकृष्टा दिशाः (पृथक्) नानारूपेण (त्वया) ब्रह्मणा सहायेन (अहम्) उपासकः (सर्वा) सर्वाणि (भूतानि) भूतजातानि (पश्यानि) साक्षात्करवाणि (देवि) हे दिव्यशक्ते (ओषधे) हे अन्नाद्योषधिवत् तापनाशक परमात्मन् ॥

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