अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 20/ मन्त्र 3
ऋषिः - मातृनामा
देवता - मातृनामौषधिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - पिशाचक्षयण सूक्त
52
दि॒व्यस्य॑ सुप॒र्णस्य॒ तस्य॑ हासि क॒नीनि॑का। सा भूमि॒मा रु॑रोहिथ व॒ह्यं श्रा॒न्ता व॒धूरि॑व ॥
स्वर सहित पद पाठदि॒व्यस्य॑ । सु॒ऽप॒र्णस्य॑ । तस्य॑ । ह॒ । अ॒सि॒ । क॒नीनि॑का । सा । भूमि॑म् । आ । रु॒रो॒हि॒थ॒ । व॒ह्यम् । श्रा॒न्ता । व॒धू:ऽइ॑व ॥२०.३॥
स्वर रहित मन्त्र
दिव्यस्य सुपर्णस्य तस्य हासि कनीनिका। सा भूमिमा रुरोहिथ वह्यं श्रान्ता वधूरिव ॥
स्वर रहित पद पाठदिव्यस्य । सुऽपर्णस्य । तस्य । ह । असि । कनीनिका । सा । भूमिम् । आ । रुरोहिथ । वह्यम् । श्रान्ता । वधू:ऽइव ॥२०.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्म की उपासना का उपदेश।
पदार्थ
(तस्य) उस (दिव्यस्य) दिव्य गुणवाले (सुपर्णस्य) यथावत् पालनीय जीव की तू (ह) अवश्य (कनीनिका) कमनीया देवी, अथवा नेत्र तारा समान (असि) है। (सा=सा त्वम्) उस तूने (भूमिम्) हृदय भूमि को (आ रुरोहिथ) प्राप्त किया है, (इव) जैसे (श्रान्ता) थकी हुई, वा शान्त स्वभाव, वा जितेन्द्रिय (वधूः) स्त्री (वह्यम्) अपने पाने योग्य पदार्थ को [प्राप्त करती है] ॥३॥
भावार्थ
जैसे-जैसे योगी समाधि लगाकर परमात्मा की महिमा देखता है, वैसे-वैसे ही परमात्मा उसके हृदय में दृढ़ भूमि होता है, जैसे जितेन्द्रिय स्त्री वा पुरुष ठिकाने पर पहुँचकर ठहर जाता है ॥३॥
टिप्पणी
३−(दिव्यस्य) दिव्यस्वभावस्य (सुपर्णस्य) पॄ पालनपूरणयोः-न। सुष्ठु यथावत् पालनीयस्य जीवस्य (तस्य) प्रसिद्धस्य (ह) प्रसिद्धौ (असि) (कनीनिका) कनी दिप्तिकान्तिगतिषु-ईन, कन्, टाप्, अत इत्वम्। कमनीया। यद्वा, चक्षुस्तारावत् प्रदर्शिका (सा) सा त्वं देवी (भूमिम्) योगिनो हृदयभूमिम् (आ रुरोहिथ) आरूढवती, प्राप्तवती (वह्यम्) अघ्न्यादयश्च। उ० ४।११२। इति वह-थक्। यद्वा। वह्यं करणम्। पा० ३।१।१०२। इति वह-यत्। प्रापणीयं पदार्थं स्थानं वा (श्रान्ता) श्रमु तपःखेदयोः=क। अध्वश्रमयुक्ता। शान्ता। जितेन्द्रिया (वधूः) वहेर्धश्च। उ० १।८३। इति वह प्रापणे-ऊ प्रत्ययः, हस्य धः। वहति सुखानि। यद्वा। बन्ध-ऊः, नलोपः, बध्नाति प्रेम्णा या। नारी, स्त्री (इव) यथा ॥
विषय
दिव्य सुपर्ण की कनीनिका
पदार्थ
१. यह वेदमाता (तस्य) = उस (दिव्यस्प) = देववृत्ति को अपनानेवाले (सुपर्णस्य) = उत्तम पालन व पूर्णात्मक कर्मों में लगे हुए मनुष्य की (ह) = निश्चय से (कनीनिका) = आँख की पुतली (असि) = है, अर्थात् यह सुपर्ण इससे ही सब पदार्थों को देखता है। २. (सा) = वह वेदमाता (भूमिम् आरुरोहिथ) = हमारी इस शरीर-भूमि का इसप्रकार ओरोहण करती है, (इव) = जैसेकि (श्रान्ता वधूः) = थकी हुई वधू (वह्याम्) = एक सवारी पर आरूढ़ होती है। जब हमारे जीवन में वेदमाता का निवास होता है, उस समय हमारा यह शरीर-रथ ज्ञानदीति से उज्वल हो उठता है। यह बेदमाता इसकी कनौनिका [कन् दीप्तौ]-दीप्त करनेवाली बनती है।
भावार्थ
हम देववृत्ति का बनने का प्रयत्न करें, पालन व पूरणात्मक कर्मों में प्रवृत्त हों तब वेदमाता हमारे जीवन की कनीनिका होगी-इसे दीप्त करनेवाली बनेगी। हमारे शरीर-रथ में इसका आरोहण होगा और यह शरीर-रथ चमक उठेगा।
भाषार्थ
(दिव्यस्य) द्युलोकस्थ (तस्य सुपर्णस्य) उस सुपतनशील सूर्य का (ह) निश्चय से (कनीनिका) दीप्तिवाला चक्षु में स्थित 'कृष्णमण्डल तू है। (सा) वह तू कनीनिका (भूमिम्) भूमि पर (आ रुरोहिथ) आरूढ़ हुई है, (इव) जैसेकि (श्रान्ता वधूः) थकी बधू (वह्यम्) वहन साधनरूपी रथ में आरूढ़ होती है।
टिप्पणी
[सुपर्णस्य = "सुपर्णा आदित्यरश्मयः" (निरुक्त ३।२।१२); तद्वान् है सुपर्ण अर्थात् सूर्य। कनीनिका= कनी दीप्तिकान्तिगतिषु (भ्वादिः)। कनीनिका=eye-pupil। वेदों में सूर्य को चक्षुः कहा है, अतः सूर्य की कनीनिका१ का भी कथन किया है। यथा "तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्" (यजु० ३६।२४) में सूर्य को चक्षुः कहा है।] [१. वेदों में सूर्य को चक्षुः कहा है, अतः, सूर्य में चक्षुर्निष्ठ कनीनिका का वर्णन हुआ है। कनीनिका द्वारा वस्तुदर्शन होता है। इस द्वारा सूर्य मानो सबको देखता है। दिव्य दृष्टि वाला योगी कहता है कि वह कनीनिका मानो भूमि पर आरूढ़ हुई मेरी चक्षु में प्रविष्ट हुई है जिस द्वारा कि मैं भी सबको देख रहा हूँ (मन्त्र १)।]
विषय
दर्शनशक्ति का वर्णन।
भावार्थ
दृक् शक्ति की इस शरीर और अन्तःकरण में स्थिति का उपदेश करते हैं । हे देवि ! दृक्शक्ति ! (तस्य) उस (दिव्यस्य) प्रकाशस्वरूप, दिव्य गुणों से युक्त ज्ञानी (सुपर्णस्य) उत्तम पालन, एवं ज्ञानों से युक्त आत्मा की (कनीनिका) तू वस्तु प्रकाशकारिणी शक्ति (ह असि) निश्चय से है, (सा) वह तू दृक्शक्ति (भूमिम्) उस आत्म-भूमि अर्थात् आत्मा रूप भूमि पर (रुरो हिथ) इस प्रकार चढ़ी हुई या आरोहण किये हुए है जिस प्रकार कि (वधूः इव) नववधू (श्रान्ता) थक कर (वह्यं) यान करने के साधन, रथ पर चढ़ बैठती है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मातृनामा ऋषिः। मातृनामा देवताः। १ स्वराट्। २-८ अनुष्टुभः। ९ भुरिक्। नवर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Divine Sight
Meaning
O vision divine, you are indeed the pupil of the eye of that celestial Sojourner of light,, the Sun. You are all-watchful divinity, who have descended from heaven to ride this earthly chariot like a way-wearied bride on way to the lover’s home.
Translation
Surely you are the eye-pupil of the divine bird having beautiful wings. As such, you have alighted on earth, just as a weary bride sits on a litter.
Translation
This plant which restores eyesight is not only medicine but the pupil of the eye of the celestial soul. It has alighted to earth like a weary woman who seeks her couch.
Translation
The pupil, verily, art thou of that celestial soul. On it hast thou ridden as a weary woman rides a palanquin.
Footnote
Thou: spiritual vision.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(दिव्यस्य) दिव्यस्वभावस्य (सुपर्णस्य) पॄ पालनपूरणयोः-न। सुष्ठु यथावत् पालनीयस्य जीवस्य (तस्य) प्रसिद्धस्य (ह) प्रसिद्धौ (असि) (कनीनिका) कनी दिप्तिकान्तिगतिषु-ईन, कन्, टाप्, अत इत्वम्। कमनीया। यद्वा, चक्षुस्तारावत् प्रदर्शिका (सा) सा त्वं देवी (भूमिम्) योगिनो हृदयभूमिम् (आ रुरोहिथ) आरूढवती, प्राप्तवती (वह्यम्) अघ्न्यादयश्च। उ० ४।११२। इति वह-थक्। यद्वा। वह्यं करणम्। पा० ३।१।१०२। इति वह-यत्। प्रापणीयं पदार्थं स्थानं वा (श्रान्ता) श्रमु तपःखेदयोः=क। अध्वश्रमयुक्ता। शान्ता। जितेन्द्रिया (वधूः) वहेर्धश्च। उ० १।८३। इति वह प्रापणे-ऊ प्रत्ययः, हस्य धः। वहति सुखानि। यद्वा। बन्ध-ऊः, नलोपः, बध्नाति प्रेम्णा या। नारी, स्त्री (इव) यथा ॥
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