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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 20 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 20/ मन्त्र 5
    ऋषिः - मातृनामा देवता - मातृनामौषधिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - पिशाचक्षयण सूक्त
    56

    आ॒विष्कृ॑णुष्व रू॒पाणि॒ मात्मान॒मप॑ गूहथाः। अथो॑ सहस्रचक्षो॒ त्वं प्रति॑ पश्याः किमी॒दिनः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒वि: । कृ॒णु॒ष्व॒ । रू॒पाणि॑ । मा । आ॒त्मान॑म् । अप॑ । गू॒ह॒था॒: ।अथो॒ इति॑ । स॒ह॒स्र॒च॒क्षो॒ इति॑ सहस्रऽचक्षो । त्वम् । प्रति॑ । प॒श्या॒: । कि॒मी॒दिन॑: ॥२०.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आविष्कृणुष्व रूपाणि मात्मानमप गूहथाः। अथो सहस्रचक्षो त्वं प्रति पश्याः किमीदिनः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आवि: । कृणुष्व । रूपाणि । मा । आत्मानम् । अप । गूहथा: ।अथो इति । सहस्रचक्षो इति सहस्रऽचक्षो । त्वम् । प्रति । पश्या: । किमीदिन: ॥२०.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 20; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्म की उपासना का उपदेश।

    पदार्थ

    (रूपाणि) [पदार्थों के] रूपों अर्थात् बाहिरी आकार को (आविष्कृणुष्व) प्रकट करदे, (आत्मानम्) [वस्तुओं के] आत्मा अर्थात् भीतरी स्वभाव को (मा अप गूहथाः) गुप्त मत रख (अथो) और भी (सहस्रचक्षो) हे असंख्य दर्शन शक्तिवाले परमात्मन् ! (त्वम्) तू (किमीदिनः) अब क्या, वह क्या हो रहा है, ऐसे गुप्त कर्म करनेवाले लुतरे लोगों को (प्रति) अत्यक्ष (पश्याः) देखले ॥५॥

    भावार्थ

    मनुष्य पदार्थों के आकार और गुण को स्थूल और सूक्ष्म रीति से पहिचानकर दोषों से बचें और दूसरों को बचावें ॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(आविष्कृणुष्व) प्रकटीकुरु। प्रकाशय (रूपाणि) खष्पशिल्पशष्प०। उ० ३।२८। इति रु शब्दे-प प्रत्ययः, दीर्घश्च। यद्वा, रूप रूपस्य दर्शने करणे वा-अच्। पदार्थानां बाह्याकारान् (मा अप गूहथाः) गुहू संवरणे। संवृतम् आच्छादितं मा कार्षीः (आत्मानम्) अ० १।१८।३। पदार्थानां सूक्ष्मस्वभावं सारं तत्त्वं वा (अथो) अपि च (सहस्रचक्षो) भृमृशीङ्०। उ० १।७। इति चक्षिङ् कथने दर्शने च-ड। हे बहुदर्शनशक्ते परमात्मन् (त्वम्)। (प्रति) प्रत्यक्षम् (पश्य) दृशेर्लेटि आडागमः। अवलोकय (किमीदिनः) अ० १।७।१। किमिदानीं वर्तते किमिदं वर्तते-इत्येवमन्वेषमाणान् पिशुनान् राक्षसान् ॥

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    विषय

    प्रतिपश्या: 'किमीदिन:'

    पदार्थ

    १. हे वेदमातः! तू (रूपाणि) = संसार के सब रूपवान् पदार्थों को (आविष्कृणुष्व) = हमारे लिए प्रकट कर-हमें इन पदार्थों का ठीक-ठीक ज्ञान दे। तू (आत्मानम्) = अपने-आपको (मा अप गृहथा:) = हमसे मत छिपा। हम तेरा दर्शन करें और तेरे द्वारा संसार के सब रूपों को-रूपवान् पदार्थों को समझें। २. हे (सहस्त्राक्षो) = अनन्त दर्शन-शक्तिवाले प्रभो! (अथ उ) = अब निश्चय से इस वेदमाता के द्वारा (त्वम्) = आप (किमीदिन:) = [किम् इदानी किम् इदानीम् इति गूढं सञ्चरतः राक्षसान्] 'अब क्या भोगें, अब क्या भोगूं' इसप्रकार स्वार्थ-भोग के लिए औरों को पीड़ित करनेवाले राक्षसों को (प्रतिपश्या:) = [प्रतिदर्शय] एक-एक करके हमें दिखलाइए। इन्हें सम्यक् देखकर हम अपने को इनसे बचा सकें। इनसे हम सदा सावधान रह सकें।

    भावार्थ

    हम वेदवाणी द्वारा सब रूपवान् पदार्थों व प्राणियों को समझें। हम भोगप्रधान जीवनवाले राक्षसीवृत्ति के पुरुषों को समझकर उनसे अपना रक्षण कर सकें।

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    भाषार्थ

    [हे सहस्रचक्षुरूप परमेश्वर ! ] (रूपाणि) अपने स्वरूपों को (आविष्कृणुष्व) प्रकट कर, (आत्मानम्) निज स्वरूप को (मा)(अपगृहथा:) ढके रख, छिपाये रख। (अथो) अपि च (सहस्रचक्षो१) हजार आँखों वाले है परमेश्वर ! (त्वम्) तू (किमीदिनः) भेद लेनेवालों में से (प्रतिपश्याः) प्रत्येक को दृष्टि में रख।

    टिप्पणी

    [किमीदिन= "किम् इदानीम्, किम् इदानीम्”, इस प्रकार से प्रश्न करके भेद लेने वाले। पश्या:= दृशे: लेटि अडागमः।] [१. सहस्रचुक्षु: परमेश्वर का मंत्र ४ में सहस्राक्ष रहा है। परमेश्वर की कृपा से दिव्य दृष्टि से सम्पन्न हुआ योगी परमेश्वर के स्वरूप का दर्शन पाहता है, अतः यह कहता है कि "मा आत्मानम अपगृहथा:"।]

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    विषय

    दर्शनशक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    हे देवि ! दृक्- शक्ते ! चेतने ! तू (रूपाणि) नाना प्रकार के रूपों को (आ विष्कृणुष्व) प्रकट कर (आत्मानम्) अपने को (मा अपगूहथाः) हम से मत छिपा। (अयो) और हैं (सहस्रचक्षो) सहस्रों शक्ति-रूप नयनों से युक्त ! (त्वं) तू (किमीदिनः) अब क्या, अब क्या इस प्रकार भूखी प्यासी विषयलोलुप इन्द्रियों और मन, वासनाओं का (प्रति पश्याः) निरीक्षण कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मातृनामा ऋषिः। मातृनामा देवताः। १ स्वराट्। २-८ अनुष्टुभः। ९ भुरिक्। नवर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Divine Sight

    Meaning

    O lord of a thousand divine eyes, show the real forms of things. Do not hide yourself either, reveal yourself to my vision, and help me see into the evil realities of things in existence.

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    Translation

    Make the forms of things manifest. Do not hide their true selves. And then, O thousand-eyed one, may you see the robbers face to face. (kimidin=robbers and plunderers; see Av.I.VII.I; low class of the Aryan Society — dirty and malignant. According to the Nirukta, VI.2, the word originally means one who goes about crying, kimidanim, Quid nine, meaning what now or kim idam.

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    Translation

    Let this plant which has the thousand power of increasing the eyesight, make distinct the forms of the things, and let it not hide the essence from sight. Let it make one distinctly behold the germs which are rare.

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    Translation

    O thousand-eyed discernment, lay bare the external form of objects, hide not their intrinsic value, carefully watch the lustful organs and cravings of the mind!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(आविष्कृणुष्व) प्रकटीकुरु। प्रकाशय (रूपाणि) खष्पशिल्पशष्प०। उ० ३।२८। इति रु शब्दे-प प्रत्ययः, दीर्घश्च। यद्वा, रूप रूपस्य दर्शने करणे वा-अच्। पदार्थानां बाह्याकारान् (मा अप गूहथाः) गुहू संवरणे। संवृतम् आच्छादितं मा कार्षीः (आत्मानम्) अ० १।१८।३। पदार्थानां सूक्ष्मस्वभावं सारं तत्त्वं वा (अथो) अपि च (सहस्रचक्षो) भृमृशीङ्०। उ० १।७। इति चक्षिङ् कथने दर्शने च-ड। हे बहुदर्शनशक्ते परमात्मन् (त्वम्)। (प्रति) प्रत्यक्षम् (पश्य) दृशेर्लेटि आडागमः। अवलोकय (किमीदिनः) अ० १।७।१। किमिदानीं वर्तते किमिदं वर्तते-इत्येवमन्वेषमाणान् पिशुनान् राक्षसान् ॥

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