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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 3

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 3/ मन्त्र 5
    सूक्त - बृहद्दिवोऽथर्वा देवता - द्रविणोदाः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - विजयप्रार्थना सूक्त

    मयि॑ दे॒वा द्रवि॑ण॒मा य॑जन्तां॒ मय्या॒शीर॑स्तु॒ मयि॑ दे॒वहू॑तिः। दै॒वा होता॑रः सनिषन्न ए॒तदरि॑ष्टाः स्याम त॒न्वा॑ सु॒वीराः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मयि॑ । दे॒वा: । द्रवि॑णम् । आ । य॒ज॒न्ता॒म् । मयि॑ । आ॒ऽशी: । अ॒स्तु॒ । मयि॑ । दे॒वऽहू॑ति: । दै॒वा: । होता॑र: । स॒नि॒ष॒न् । न॒: । ए॒तत् । अरि॑ष्टा: । स्या॒म॒। त॒न्वा᳡। सु॒ऽवीरा॑: ॥३.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मयि देवा द्रविणमा यजन्तां मय्याशीरस्तु मयि देवहूतिः। दैवा होतारः सनिषन्न एतदरिष्टाः स्याम तन्वा सुवीराः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मयि । देवा: । द्रविणम् । आ । यजन्ताम् । मयि । आऽशी: । अस्तु । मयि । देवऽहूति: । दैवा: । होतार: । सनिषन् । न: । एतत् । अरिष्टा: । स्याम। तन्वा। सुऽवीरा: ॥३.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    (देवाः) सब उत्तम गुण (मयि) मुझ में (द्रविणम्) धन (आ यजन्ताम्) लाकर दें। (मयि) मुझ में (आशीः) आशीर्वाद, और (मयि) मुझ में (देवहूतिः) विद्वानों का आवाहन (अस्तु) होवे। (दैवाः) दिव्य गुणवाले (होतारः) दाता पुरुष (नः) हमें (एतत्) यह [दान] (सनिषन्) देवें (तन्वा) अपने शरीर से (अरिष्टाः) निर्दुःखी और (सुवीराः) बड़े-बड़े वीरोंवाले (स्याम) हम होवें ॥५॥

    भावार्थ - मनुष्य प्रयत्नपूर्वक शिल्प आदि उत्तम गुणों से धन एकत्र करके विद्वानों में बुलाये जाकर सत्कार पावें और अपने शरीर से हृष्ट-पुष्ट रह कर अपने सन्तान आदि को उत्तम वीर बनावें ॥५॥

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