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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 31

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 31/ मन्त्र 8
    सूक्त - शुक्रः देवता - कृत्याप्रतिहरणम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कृत्यापरिहरण सूक्त

    यां ते॑ कृ॒त्यां कूपे॑ऽवद॒धुः श्म॑शा॒ने वा॑ निच॒ख्नुः। सद्म॑नि कृ॒त्यां यां च॒क्रुः पुनः॒ प्रति॑ हरामि॒ ताम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याम् । ते॒ । कृ॒त्याम् । कूपे॑ । अ॒व॒ऽद॒धु: । श्म॒शा॒ने । वा॒ । नि॒ऽच॒ख्नु: । सद्म॑नि । कृ॒त्याम् । याम् । च॒क्रु: । पुन॑: । प्रति॑ । ह॒रा॒मि॒ । ताम् ॥३१.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यां ते कृत्यां कूपेऽवदधुः श्मशाने वा निचख्नुः। सद्मनि कृत्यां यां चक्रुः पुनः प्रति हरामि ताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    याम् । ते । कृत्याम् । कूपे । अवऽदधु: । श्मशाने । वा । निऽचख्नु: । सद्मनि । कृत्याम् । याम् । चक्रु: । पुन: । प्रति । हरामि । ताम् ॥३१.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 31; मन्त्र » 8

    पदार्थ -
    (याम्) जिस (कृत्याम्) हिंसा को (ते) तेरे (कूपे) कूये में (अवदधुः) उन [शत्रुओं] ने कर दिया है, (वा) अथवा (श्मशाने) मरघट में (निचख्नुः) उन्होंने खोद कर रक्खा है। (याम्) जिस (कृत्याम्) हिंसा को (सद्मनि) तेरे घर में (चक्रुः) उन्होंने किया है, (ताम्) उसको (पुनः) अवश्य मैं (प्रति) उलटा करके (हरामि) मिटाता हूँ ॥८॥

    भावार्थ - जो मनुष्य कूए तालाब आदि को मलिन करें, अथवा रोगकारक वस्तुएँ गाड़कर मरघटों को दूषित करें, अथवा घरों के पास दुर्गन्ध आदि फैलावें, राजा उसका यथावत् प्रबन्ध करे ॥८॥

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