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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 130

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 130/ मन्त्र 3
    सूक्त - अथर्वा देवता - स्मरः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - स्मर सूक्त

    यथा॒ मम॒ स्मरा॑द॒सौ नामुष्या॒हं क॒दा च॒न। देवाः॒ प्र हि॑णुत स्म॒रम॒सौ मामनु॑ शोचतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑ । मम॑ । स्मरा॑त् । अ॒सौ । न । अ॒मुष्य॑ । अ॒हम् । क॒दा । च॒न । देवा॑: । प्र । हि॒णु॒त॒ । स्म॒रम् । अ॒सौ । माम् । अनु॑ । शो॒च॒तु॒ ॥१३०.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथा मम स्मरादसौ नामुष्याहं कदा चन। देवाः प्र हिणुत स्मरमसौ मामनु शोचतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा । मम । स्मरात् । असौ । न । अमुष्य । अहम् । कदा । चन । देवा: । प्र । हिणुत । स्मरम् । असौ । माम् । अनु । शोचतु ॥१३०.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 130; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (यथा) जिससे (असौ) वह [स्मरण सामर्थ्य] (मे) मेरा (स्मरात्) स्मरण रक्खे, और (अहम्) मैं (कदा चन) कभी भी (अमुष्य) उसको (न) न [भूल करूँ]। (देवाः) हे विद्वानो ! (स्मरम्) उस स्मरण सामर्थ्य को (प्र) अच्छे प्रकार (हिणुत) बढ़ाओ, (असौ) वह [स्मरण सामर्थ्य] (माम् अनु) मुझ में व्यापकर (शोचतु) शुद्ध रहे ॥३॥

    भावार्थ - मनुष्य प्रयत्नपूर्वक समस्त विद्याओं को स्मरण रख कर उपयोगी बनावे ॥३॥

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