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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 135

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 135/ मन्त्र 3
    सूक्त - शुक्र देवता - वज्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - बलप्राप्ति सूक्त

    यद्गिरा॑मि॒ सं गिरा॑मि समु॒द्र इ॑व संगि॒रः। प्रा॒णान॒मुष्य॑ सं॒गीर्य॒ सं गि॑रामो अ॒मुं व॒यम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । गिरा॑मि । सम् । गि॒रा॒मि॒ । स॒मु॒द्र:ऽइ॑व । स॒म्ऽगि॒र: । प्रा॒णान् । अ॒मुष्य॑ । स॒म्ऽगीर्य॑ । सम् । गि॒रा॒म॒: । अ॒मुम् । व॒यम् ॥१३५.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्गिरामि सं गिरामि समुद्र इव संगिरः। प्राणानमुष्य संगीर्य सं गिरामो अमुं वयम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । गिरामि । सम् । गिरामि । समुद्र:ऽइव । सम्ऽगिर: । प्राणान् । अमुष्य । सम्ऽगीर्य । सम् । गिराम: । अमुम् । वयम् ॥१३५.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 135; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (यत्) जो कुछ वस्तु (गिरामि) मैं खाता हूँ, (सम्) यथाविधि (गिरामि) खाता हूँ, (इव) जैसे (संगिरः) यथाविधि खानेवाला (समुद्रः) समुद्र [खाकर पचा लेता है]। (अमुष्य) उस [पदार्थ] के (प्राणान्) जीवन शक्तियों को (संगीर्य) चबाकर (अमुम्) उस [पदार्थ] को (सम्) यथाविधि (वयम्) हम (गिरामः) खावें ॥३॥

    भावार्थ - जो निरालसी मनुष्य विचारपूर्वक भोजन करके उसे पचाते हैं, वे बलवान् रहते हैं ॥३॥

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