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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 139

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 139/ मन्त्र 3
    सूक्त - अथर्वा देवता - वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सौभाग्यवर्धन सूक्त

    सं॒वन॑नी समुष्प॒ला बभ्रु॒ कल्या॑णि॒ सं नु॑द। अ॒मूं च॒ मां च॒ सं नु॑द समा॒नं हृद॑यं कृधि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒म्ऽवन॑नी । स॒म्ऽउ॒ष्प॒ला । बभ्रु॑ । कल्या॑णि । सम् । नु॒द॒ । अ॒मूम् । च॒ । माम् । च॒ । सम् । नु॒द॒ । स॒मा॒नम् । हृद॑यम् । कृ॒धि॒ ॥१३९.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    संवननी समुष्पला बभ्रु कल्याणि सं नुद। अमूं च मां च सं नुद समानं हृदयं कृधि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्ऽवननी । सम्ऽउष्पला । बभ्रु । कल्याणि । सम् । नुद । अमूम् । च । माम् । च । सम् । नुद । समानम् । हृदयम् । कृधि ॥१३९.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 139; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (बभ्रु) हे पालनशील ! (कल्याणि) हे मङ्गलकारिणी विद्या ! (संवननी) यथावत् सेवनीय और (समुष्पला) यथाविधि निवास की रक्षा करनेहारी तू [हम दोनों को] (सम्) मिला कर (नुद) आगे बढ़ा। (अमूम्) उस [विदुषी] को (च च) और (माम्) मुझ को (सम्) मिला कर (नुद) आगे बढ़ा, [हम दोनों के] (हृदयम्) हृदय को (समानम्) एक (कृधि) कर दे ॥३॥

    भावार्थ - जो स्त्री-पुरुष पूर्ण विद्वान् होकर गृहस्थ बनते हैं, वे ही परस्पर उपकार करके सदा सुखी रहते हैं ॥३॥

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