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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 29

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 29/ मन्त्र 2
    सूक्त - भृगु देवता - यमः, निर्ऋतिः छन्दः - विराड्गायत्री सूक्तम् - अरिष्टक्षयण सूक्त

    यौ ते॑ दू॒तौ नि॑रृत इ॒दमे॒तोऽप्र॑हितौ॒ प्रहि॑तौ वा गृ॒हं नः॑। क॑पोतोलू॒काभ्या॒मप॑दं॒ तद॑स्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यौ । ते॒ । दू॒तौ । नि॒:ऽऋ॒ते॒ । इ॒दम् । आ॒ऽइ॒त: । अप्र॑ऽहितौ । प्रऽहि॑तौ । वा॒ । गृ॒हम् । न॒: ।क॒पो॒त॒ऽउ॒लू॒काभ्या॑म् । अप॑दम् । तत् । अ॒स्तु॒ ॥ ॥२९.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यौ ते दूतौ निरृत इदमेतोऽप्रहितौ प्रहितौ वा गृहं नः। कपोतोलूकाभ्यामपदं तदस्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यौ । ते । दूतौ । नि:ऽऋते । इदम् । आऽइत: । अप्रऽहितौ । प्रऽहितौ । वा । गृहम् । न: ।कपोतऽउलूकाभ्याम् । अपदम् । तत् । अस्तु ॥ ॥२९.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 29; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (निर्ऋते) हे नित्य मङ्गल देनेवाले परमेश्वर ! (यौ) जो (अप्रहितौ) अहित करनेवाले (वा) और (प्रहितौ) हित करनेवाले (ते) तेरे (दूतौ) विज्ञान करानेवाले दोनों गुण (नः) हमारे (इदम्) इस (गृहम्) घर में (आ−इतः) आते हैं। (कपोतोलूकाभ्याम्) उन विज्ञान से स्तुति के योग्य और अज्ञान से ढकनेवाले गुणों द्वारा (तत्) विस्तृत ब्रह्म (अपदम्) न प्राप्ति योग्य दुःख को (अस्तु=अस्यतु) गिरा देवे ॥२॥

    भावार्थ - विद्वान् पुरुष परमेश्वर की व्यवस्था से सुख और दुःख दोनों का अनुभव करके सुख के मूल सुकर्म का ग्रहण, और दुःख के कारण कुकर्म का त्याग करें ॥२॥

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