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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 4

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 4/ मन्त्र 3
    सूक्त - अथर्वा देवता - अश्विनीकुमारौ, द्यौष्पिता छन्दः - त्रिपदा विराड्गायत्री सूक्तम् - आत्मगोपन सूक्त

    धि॒ये सम॑श्विना॒ प्राव॑तं न उरु॒ष्या ण॑ उरुज्म॒न्नप्र॑युच्छन्। द्यौ॒ष्पित॑र्या॒वय॑ दु॒च्छुना॒ या ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    धि॒ये । सम् । अ॒श्वि॒ना॒ । प्र । अ॒व॒त॒म् । न॒: । उ॒रु॒ष्य । न॒: । उ॒रु॒ऽज्म॒न् । अप्र॑ऽयुच्छन् । द्यौ᳡: । पित॑: । य॒वय॑ । दु॒च्छुना॑ । या ॥४.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    धिये समश्विना प्रावतं न उरुष्या ण उरुज्मन्नप्रयुच्छन्। द्यौष्पितर्यावय दुच्छुना या ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    धिये । सम् । अश्विना । प्र । अवतम् । न: । उरुष्य । न: । उरुऽज्मन् । अप्रऽयुच्छन् । द्यौ: । पित: । यवय । दुच्छुना । या ॥४.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 4; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (अश्विना) हे सब कामों में व्यापक रहनेवाले माता पिता ! (धिये) सत् कर्म वा सत् बुद्धि के लिये (नः) हमारी (सम्) मिलकर (प्र) अच्छे प्रकार (अवतम्) रक्षा करो। (उरुज्मन्) हे विस्तीर्ण गतिवाले परमात्मन् ! (अप्रयुच्छन्) चूक न करता हुआ तू (नः) हमारी (उरुष्य) रक्षा कर। (द्यौः) हे प्रकाशमान (पितः) पिता परमेश्वर ! (या) जो (दुच्छुना) दुर्गति है [उसको] (यवय) तू हटा दे ॥३॥

    भावार्थ - माता पिता इस प्रकार शिक्षा देवें जिस से उनके संतान ईश्वर आज्ञा पालन करके ऐश्वर्यवान् हों ॥३॥

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