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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 44

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 44/ मन्त्र 2
    सूक्त - विश्वामित्र देवता - वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - रोगनाशन सूक्त

    श॒तं या भे॑ष॒जानि॑ ते स॒हस्रं॒ संग॑तानि च। श्रेष्ठ॑मास्रावभेष॒जं वसि॑ष्ठं रोग॒नाश॑नम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श॒तम् । या । भे॒ष॒जानि॑ । ते॒ । स॒हस्र॑म् । समऽग॑तानि । च॒ । श्रेष्ठ॑म् । आ॒स्रा॒व॒ऽभे॒ष॒जम् । वसि॑ष्ठम् । रो॒ग॒ऽनाश॑नम् ॥४४.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शतं या भेषजानि ते सहस्रं संगतानि च। श्रेष्ठमास्रावभेषजं वसिष्ठं रोगनाशनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शतम् । या । भेषजानि । ते । सहस्रम् । समऽगतानि । च । श्रेष्ठम् । आस्रावऽभेषजम् । वसिष्ठम् । रोगऽनाशनम् ॥४४.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 44; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    [हे मनुष्य !] (ते) तेरे लिये (या) जो (शतम्) सौ (च) और (सहस्रम्) सहस्र (भेषजानि) ओषधियाँ (संगतानि) परस्पर मेलवाली हैं, [उनमें से] (वसिष्ठम्) अतिशय धनी वा निवास करनेवाला ब्रह्म (श्रेष्ठम्) अति श्रेष्ठ (आस्रावभेषजम्) रुधिर के बहाव वा घाव की औषध और (रोगनाशनम्) रोगों का नाश करनेवाला है ॥२॥

    भावार्थ - योगीजन सब पदार्थों से गुण ग्रहण करके उस परब्रह्म की आज्ञापालन से सदा स्वस्थ और सुखी रहते हैं ॥२॥

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