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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 45

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 45/ मन्त्र 3
    सूक्त - यम देवता - दुःष्वप्ननाशनम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दुःष्वप्ननाशन

    यदि॑न्द्र ब्रह्मणस्प॒तेऽपि॒ मृषा॒ चरा॑मसि। प्रचे॑ता न आङ्गिर॒सो दु॑रि॒तात्पा॒त्वंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । इ॒न्द्र॒ । ब्र॒ह्म॒ण॒: । प॒ते॒ । अपि॑ । मृषा॑ । चरा॑मसि । प्रऽचे॑ता: । न॒: । अ॒ङ्गि॒र॒स॒: । दु॒:ऽइ॒तात् । पा॒तु॒ । अंह॑स: ॥४५.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदिन्द्र ब्रह्मणस्पतेऽपि मृषा चरामसि। प्रचेता न आङ्गिरसो दुरितात्पात्वंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । इन्द्र । ब्रह्मण: । पते । अपि । मृषा । चरामसि । प्रऽचेता: । न: । अङ्गिरस: । दु:ऽइतात् । पातु । अंहस: ॥४५.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 45; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (ब्रह्मणस्पते) हे बड़े-बड़े लोकों के स्वामी (इन्द्र) सम्पूर्ण ऐश्वर्यवाले जगदीश्वर ! (यत् अपि) जो कुछ भी पाप (मृषा) असत्य व्यवहार से (चरामसि) हम करें। (आङ्गिरसः) ज्ञानियों का हितकारी (प्रचेताः) बड़ी बुद्धिवाला परमात्मा (नः) हमें (दुरितात्) दुर्गति और (अंहसः) पाप से (पातु) बचावे ॥३॥

    भावार्थ - जो मनुष्य न्यायकारी परमात्मा का ध्यान रखते हैं, वे पापों से बचकर सुखी रहते हैं ॥३॥

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