Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 51

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 51/ मन्त्र 2
    सूक्त - शन्ताति देवता - आपः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - एनोनाशन सूक्त

    आपो॑ अ॒स्मान्मा॒तरः॑ सूदयन्तु घृ॒तेन॑ नो घृत॒प्वः पुनन्तु। विश्वं॒ हि रि॒प्रं प्र॒वह॑न्ति दे॒वीरुदिदा॑भ्यः॒ शुचि॒रा पू॒त ए॑मि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आप॑: । अ॒स्मान् । मा॒तर॑: । सू॒द॒य॒न्तु॒ । घृ॒तेन॑ । न॒: । घृ॒त॒ऽप्व᳡: । पु॒न॒न्तु॒ । विश्व॑म् । हि । रि॒प्रम् । प्र॒ऽवह॑न्ति । दे॒वी: । उत्। इत् । आ॒भ्य॒: । शुचि॑: । आ । पू॒त: । ए॒मि॒ ॥५१.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आपो अस्मान्मातरः सूदयन्तु घृतेन नो घृतप्वः पुनन्तु। विश्वं हि रिप्रं प्रवहन्ति देवीरुदिदाभ्यः शुचिरा पूत एमि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आप: । अस्मान् । मातर: । सूदयन्तु । घृतेन । न: । घृतऽप्व: । पुनन्तु । विश्वम् । हि । रिप्रम् । प्रऽवहन्ति । देवी: । उत्। इत् । आभ्य: । शुचि: । आ । पूत: । एमि ॥५१.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 51; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (मातरः) माता के समान पालन करनेवाले (आपः) जल (अस्मान्) हम को (सूदयन्तु) सींचें, (घृतप्वः) घृतको पवित्र करनेवाले [जल] (घृतेन) घृत से (नः) हमको (पुनन्तु) पवित्र करें। (देवीः) दिव्यगुणयुक्त जल (विश्वम्) सब (हि) ही (रिप्रम्) मल को (प्रवहन्ति) बहा देते हैं, (आभ्यः) इन जलों से (इत्) ही (शुचिः) शुद्ध और (आ पूतः) सर्वथा पवित्र होकर (उत् एमि) मैं ऊँचा चलता हूँ ॥२॥

    भावार्थ - जैसे जल अन्न आदि पदार्थ उत्पन्न करके मलों को शुद्ध करके और अनेक शिल्पों में प्रयुक्त होकर उपकार होते हैं, वैसे ही मनुष्य विद्या आदि शुभ गुण प्राप्त करके परस्पर उपकार करके उदय को प्राप्त हों ॥२॥ यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में है−अ० ४।२ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top