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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 55

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 55/ मन्त्र 3
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - रुद्रः छन्दः - जगती सूक्तम् - सौम्नस्य सूक्त

    इ॑दावत्स॒राय॑ परिवत्स॒राय॑ संवत्स॒राय॑ कृणुता बृ॒हन्नमः॑। तेषां॑ व॒यं सु॑म॒तौ य॒ज्ञिया॑ना॒मपि॑ भ॒द्रे सौ॑मन॒से स्या॑म ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒दा॒व॒त्स॒राय॑ । प॒रि॒ऽव॒त्स॒राय॑ । स॒म्ऽव॒त्स॒राय॑ । कृ॒णु॒त॒ । बृ॒हत् । नम॑: । तेषा॑म् । व॒यम् । सु॒ऽम॒तौ । य॒ज्ञिया॑नाम् । अपि॑ । भ॒द्रे। सौ॒म॒न॒से । स्या॒म॒ ॥५५.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदावत्सराय परिवत्सराय संवत्सराय कृणुता बृहन्नमः। तेषां वयं सुमतौ यज्ञियानामपि भद्रे सौमनसे स्याम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इदावत्सराय । परिऽवत्सराय । सम्ऽवत्सराय । कृणुत । बृहत् । नम: । तेषाम् । वयम् । सुऽमतौ । यज्ञियानाम् । अपि । भद्रे। सौमनसे । स्याम ॥५५.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 55; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (परिवत्सराय) सब ओर से निवास करानेवाले पिता को, (इदावत्सराय) विद्या में निवास करानेवाले आचार्य को और (संवत्सराय) यथानियम निवास करानेवाले राजा को तुम (बृहत्) बहुत-बहुत (नमः) नमस्कार (कृणुत) करो। (तेषाम्) उन (यज्ञियानाम्) उत्तम व्यवहार करने हारों के (अपि) ही (सुमतौ) सुमतिवाले और (भद्रे) कल्याणकारक (सौमनसे) हार्दिक स्नेह में (वयम्) हम लोग (स्याम) रहें ॥३॥

    भावार्थ - मनुष्य माता-पिता, आचार्य और राजा की आज्ञा सत्कारपूर्वक मानकर उत्तम विद्या प्राप्त करके आनन्द से रहें ॥३॥ इस मन्त्र का उत्तरार्द्ध यजुर्वेद में है−अ० १९।५० ॥

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