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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 67

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 67/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - चन्द्रः, इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    मू॒ढा अ॒मित्रा॑श्चरताशी॒र्षाण॑ इ॒वाह॑यः। तेषां॑ वो अ॒ग्निमू॑ढाना॒मिन्द्रो॑ हन्तु॒ वरं॑वरम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मू॒ढा: । अ॒मित्रा॑: । च॒र॒त॒ । अ॒शी॒र्षाण॑:ऽइव । अह॑य: । तेषा॑म् । व॒: । अ॒ग्निऽमू॑ढानाम् ।इन्द्र॑: । ह॒न्तु॒ । वर॑म्ऽवरम् ॥६७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मूढा अमित्राश्चरताशीर्षाण इवाहयः। तेषां वो अग्निमूढानामिन्द्रो हन्तु वरंवरम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मूढा: । अमित्रा: । चरत । अशीर्षाण:ऽइव । अहय: । तेषाम् । व: । अग्निऽमूढानाम् ।इन्द्र: । हन्तु । वरम्ऽवरम् ॥६७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 67; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (मूढाः) हे घबड़ाये हुए (अमित्राः) पीड़ा देनेवाले शत्रुओं ! (अशीर्षाणः) बिना शिरवाले [शिर कटे] (अहयः इव) साँपों के समान (चरत) चेष्टा करो। (इन्द्रः) प्रतापी वीर राजा (अग्निमूढानाम्) अग्नि [आग्नेय शस्त्रों] से घबड़ाये हुए (तेषां वः) उन तुम सबों में से (वरंवरम्) अच्छे-अच्छों को चुन कर (हन्तु) मारे ॥२॥

    भावार्थ - कुशल सेनापति इस प्रकार व्यूहरचना करे कि शत्रु के सेनादल विध्वंस होकर घबड़ा जावें और उनके बड़े-बड़े नायक मारे जावें ॥२॥

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