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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 110

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 110/ मन्त्र 1
    सूक्त - भृगुः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - गायत्री सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    अग्न॒ इन्द्र॑श्च दा॒शुषे॑ ह॒तो वृ॒त्राण्य॑प्र॒ति। उ॒भा हि वृ॑त्र॒हन्त॑मा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑ । इन्द्र॑: । च॒ । दा॒शुषे॑ । ह॒त: । वृ॒त्राणि॑ । अ॒प्र॒ति । उ॒भा । हि । वृ॒त्र॒हन्ऽत॑मा ॥११५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्न इन्द्रश्च दाशुषे हतो वृत्राण्यप्रति। उभा हि वृत्रहन्तमा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने । इन्द्र: । च । दाशुषे । हत: । वृत्राणि । अप्रति । उभा । हि । वृत्रहन्ऽतमा ॥११५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 110; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (इन्द्रः) हे परम ऐश्वर्यवाले राजन् ! (च) और (अग्ने) हे तेजस्वी मन्त्री ! [आप दोनों] (दाशुषे) दानशील [प्रजागण] के लिये (वृत्राणि) रोकावटों को (अप्रति) बे रोक-टोक (हतः) नाश करते हैं। (हि) क्योंकि (उभा) दोनों (वृत्रहन्तमा) रोकावटों के अत्यन्त नाश करनेवाले हैं ॥१॥

    भावार्थ - प्रतापी राजा और विद्वान् मन्त्री शत्रुओं से प्रजा की रक्षा करें ॥१॥

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