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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 110

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 110/ मन्त्र 2
    सूक्त - भृगुः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    याभ्या॒मज॑य॒न्त्स्वरग्र॑ ए॒व यावा॑त॒स्थतु॒र्भुव॑नानि॒ विश्वा॑। प्र च॑र्ष॒णी वृष॑णा॒ वज्र॑बाहू अ॒ग्निमिन्द्रं॑ वृत्र॒हणा॑ हुवे॒ऽहम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याभ्या॑म् । अज॑यन् । स्व᳡: । अग्रे॑ । ए॒व । यौ । आ॒ऽत॒स्थतु॑: । भुव॑नानि । विश्वा॑ । प्रच॑र्षणी॒ इति॒ प्रऽच॑र्षणी । वृष॑णा । वज्र॑बाहू॒ इति॒ वज्र॑ऽबाहू । अ॒ग्निम् । इन्द्र॑म् । वृ॒त्र॒ऽहना॑ । हु॒वे । अ॒हम् ॥११५.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    याभ्यामजयन्त्स्वरग्र एव यावातस्थतुर्भुवनानि विश्वा। प्र चर्षणी वृषणा वज्रबाहू अग्निमिन्द्रं वृत्रहणा हुवेऽहम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    याभ्याम् । अजयन् । स्व: । अग्रे । एव । यौ । आऽतस्थतु: । भुवनानि । विश्वा । प्रचर्षणी इति प्रऽचर्षणी । वृषणा । वज्रबाहू इति वज्रऽबाहू । अग्निम् । इन्द्रम् । वृत्रऽहना । हुवे । अहम् ॥११५.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 110; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (याभ्याम्) जिन दोनों के द्वारा (एव) ही उन्होंने [महात्माओं ने] (स्वः) स्वर्ग [सुख] को (अग्रे) पहिले (अजयन्) जीता था [पाया था], (यौ) जो दोनों (विश्वा) सब (भुवनानि) प्राणियों में (आतस्थतुः) ठहर गये हैं। [उन दोनों] (प्रचर्षणी) शीघ्रगामी वा अच्छे मनुष्योंवाले, (वृषणा) शूर, (वज्रबाहू) वज्र [लोह समान दृढ़] भुजाओंवाले, (वृत्रहणा) रोकावटें नाश करनेवाले (इन्द्रम्) परम ऐश्वर्यवाले राजा और (अग्निम्) तेजस्वी मन्त्री को (अहम्) मैं (हुवे) बुलाता हूँ ॥२॥

    भावार्थ - जिस प्रकार प्रजागण पहिले से राजा और मन्त्री के प्रबन्ध में सुखी रहे हैं, वैसे ही सदा रहें ॥२॥

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