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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 110

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 110/ मन्त्र 3
    सूक्त - भृगुः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    उप॑ त्वा दे॒वो अ॑ग्रभीच्चम॒सेन॒ बृह॒स्पतिः॑। इन्द्र॑ गी॒र्भिर्न॒ आ वि॑श॒ यज॑मानाय सुन्व॒ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑ । त्वा॒ । दे॒व: । अ॒ग्र॒भी॒त् । च॒म॒सेन॑ । बृ॒ह॒स्पति॑: । इन्द्र॑ । गी॒:ऽभि: । न॒: । आ । वि॒श॒ । यज॑मानाय । सु॒न्व॒ते ॥११५.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उप त्वा देवो अग्रभीच्चमसेन बृहस्पतिः। इन्द्र गीर्भिर्न आ विश यजमानाय सुन्वते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उप । त्वा । देव: । अग्रभीत् । चमसेन । बृहस्पति: । इन्द्र । गी:ऽभि: । न: । आ । विश । यजमानाय । सुन्वते ॥११५.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 110; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (इन्द्र) हे राजन् ! (त्वा) तुझे (देवः) प्रकाशमान, (बृहस्पतिः) बड़े-बड़े लोकों के रक्षक परमेश्वर ने (चमसेन) अन्न के साथ (उप अग्रभीत्) सहारा दिया है। तू (गीर्भिः) वाणियों [स्तुतियों] के साथ (यजमानाय) संयोग-वियोग करनेवाले (सुन्वते) तत्त्वमथन करनेवाले पुरुष के लिये (नः) हम में (आ विश) प्रवेश कर ॥३॥

    भावार्थ - राजा को उचित है कि परमेश्वर के दिये सामर्थ्य से विवेकी धर्मात्माओं का सहाय करे ॥३॥

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