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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 50

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 50/ मन्त्र 3
    सूक्त - अङ्गिराः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - विजय सूक्त

    ईडे॑ अ॒ग्निं स्वाव॑सुं॒ नमो॑भिरि॒ह प्र॑स॒क्तो वि च॑यत्कृ॒तं नः॑। रथै॑रिव॒ प्र भ॑रे वा॒जय॑द्भिः प्रदक्षि॒णं म॒रुतां॒ स्तोम॑मृध्याम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ईडे॑ । अ॒ग्निम् । स्वऽव॑सुम् । नम॑:ऽभि: । इ॒ह । प्र॒ऽस॒क्त: । वि । च॒य॒त् । कृ॒तम् । न॒: । रथै॑:ऽइव । प्र । भ॒रे॒ । वा॒जय॑त्ऽभि: । प्र॒ऽद॒क्षि॒णम् । म॒रुता॑म् । स्तोम॑म् । ऋ॒ध्या॒म् ॥५२.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ईडे अग्निं स्वावसुं नमोभिरिह प्रसक्तो वि चयत्कृतं नः। रथैरिव प्र भरे वाजयद्भिः प्रदक्षिणं मरुतां स्तोममृध्याम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ईडे । अग्निम् । स्वऽवसुम् । नम:ऽभि: । इह । प्रऽसक्त: । वि । चयत् । कृतम् । न: । रथै:ऽइव । प्र । भरे । वाजयत्ऽभि: । प्रऽदक्षिणम् । मरुताम् । स्तोमम् । ऋध्याम् ॥५२.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 50; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (स्ववसुम्) बन्धुओं को धन देनेवाले (अग्निम्) विद्वान् राजा को (नमोभिः) सत्कारों के साथ (ईडे) मैं ढूँढ़ता हूँ, (प्रसक्तः) सन्तुष्ट वह (इह) यहाँ पर (नः) हमारे (कृतम्) कर्म का (वि चयत्) विवेचन करे। (प्रदक्षिणम्) उसकी प्रदक्षिणा [आदर से पूज्य को दाहिनी ओर रखकर घूमना] (प्र) अच्छे प्रकार (भरे) मैं धारण करता हूँ (इव) जैसे (वाजयद्भिः) शीघ्र चलनेवाले (रथैः) रथों से, [जिससे] (महताम्) शूरवीरों में (स्तोमम्) स्तुति को (ऋध्याम्) मैं बढ़ाऊँ ॥३॥

    भावार्थ - प्रजागण विद्वानों के सत्कार करनेवाले विवेकी राजा के अधीन रह कर आदरपूर्वक उसकी आज्ञा मानकर शूरवीरों में अपना यश बढ़ावें ॥३॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−५।६०।१ ॥

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