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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 50

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 50/ मन्त्र 6
    सूक्त - अङ्गिराः देवता - इन्द्रः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - विजय सूक्त

    उ॒त प्र॒हामति॑दीवा जयति कृ॒तमि॑व श्व॒घ्नी वि चि॑नोति का॒ले। यो दे॒वका॑मो॒ न धनं॑ रु॒णद्धि॒ समित्तं रा॒यः सृ॑जति स्व॒धाभिः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । प्र॒ऽहाम् । अति॑ऽदीवा । ज॒य॒ति॒ । कृ॒तम्ऽइ॑व । श्व॒ऽघ्नी । वि । चि॒नो॒ति॒ । का॒ले । य: । दे॒वऽका॑म: । न । धन॑म् । रु॒णध्दि॑ । सम् । इत् । तम् । रा॒य: । सृ॒ज॒ति॒ । स्व॒धाभि॑: ॥५२.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत प्रहामतिदीवा जयति कृतमिव श्वघ्नी वि चिनोति काले। यो देवकामो न धनं रुणद्धि समित्तं रायः सृजति स्वधाभिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । प्रऽहाम् । अतिऽदीवा । जयति । कृतम्ऽइव । श्वऽघ्नी । वि । चिनोति । काले । य: । देवऽकाम: । न । धनम् । रुणध्दि । सम् । इत् । तम् । राय: । सृजति । स्वधाभि: ॥५२.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 50; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    (उत्) और (अतिदीवा) बड़ा व्यवहारकुशल पुरुष (प्रहाम्) उपद्रवी शत्रु को (जयति) जीत लेता है, (श्वघ्नी) धन नाश करनेवाला जुआरी (काले) [हार के] समय पर (इव) ही (कृतम्) अपने काम का (वि चिनोति) विवेक करता है। (यः) जो (देवकामः) शुभगुणों का चाहनेवाला (धनम्) धन को [शुभ काम में] (न) नहीं (रुणद्धि) रोकता है, (रायः) अनेक धन (तम्) उसको (इत्) ही (स्वधाभिः) आत्मधारण शक्तियों के साथ (सम् सृजति) मिलते हैं ॥६॥

    भावार्थ - प्रतापी पुरुष दुष्ट को जीतकर उसे उसके दोष का निश्चय करा देता है, शुभगुण चाहनेवाला उदारचित्त मनुष्य अनेक धन और आत्मबल पाता है ॥६॥ मन्त्र ६, ७ कुछ भेद से ऋग्वेद में हैं-१०।४२।९, १० ॥

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