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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 62

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 62/ मन्त्र 1
    सूक्त - कश्यपः देवता - अग्निः छन्दः - जगती सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    अ॒यम॒ग्निः सत्प॑तिर्वृ॒द्धवृ॑ष्णो र॒थीव॑ प॒त्तीन॑जयत्पु॒रोहि॑तः। नाभा॑ पृथि॒व्यां निहि॑तो॒ दवि॑द्युतदधस्प॒दं कृ॑णुतां॒ ये पृ॑त॒न्यवः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । अ॒ग्नि: । सत्ऽप॑ति:। वृ॒ध्‍दऽवृ॑ष्ण: । र॒थीऽइ॑व । प॒त्तीन् । अ॒ज॒य॒त् । पु॒र:ऽहि॑त: । नाभा॑ । पृथि॒व्याम् ।‍ निऽहि॑त: । दवि॑द्युतत् । अ॒ध॒:ऽप॒दम् । कृ॒णु॒ता॒म् । ये । पृ॒त॒न्यव॑: ॥६४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयमग्निः सत्पतिर्वृद्धवृष्णो रथीव पत्तीनजयत्पुरोहितः। नाभा पृथिव्यां निहितो दविद्युतदधस्पदं कृणुतां ये पृतन्यवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । अग्नि: । सत्ऽपति:। वृध्‍दऽवृष्ण: । रथीऽइव । पत्तीन् । अजयत् । पुर:ऽहित: । नाभा । पृथिव्याम् ।‍ निऽहित: । दविद्युतत् । अध:ऽपदम् । कृणुताम् । ये । पृतन्यव: ॥६४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 62; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (अयम्) इस (सत्पतिः) श्रेष्ठों के रक्षक, (वृद्धवृष्णः) बड़े बलवाले, (पुरोहितः) सबके अगुआ (अग्निः) अग्निसमान तेजस्वी सेनापति ने (रथी इव) रथवाले योधा के समान (पत्तीन्) [शत्रु की] सेनाओं को (अजयत्) जीत लिया है। (पृथिव्याम्) पृथिवी पर (नाभा) नाभि में (निहितः) स्थापित किया हुआ (दविद्युतत्) अत्यन्त प्रकाशमान वह [उनको] (अधस्पदम्) पाँव के तले (कृणुताम्) कर लेवे, (ये) जो (पृतन्यवः) सेना चढ़ानेवाले हैं ॥१॥

    भावार्थ - जो शूरवीर पुरुष सब शत्रुओं को जीत कर सज्जनों की रक्षा करे, वही गोलाकार पृथिवी के बीच में सब ओर से चक्रवर्ती राजा होकर संसार में उपकारी बने ॥१॥

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