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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 82

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 82/ मन्त्र 2
    सूक्त - शौनकः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अग्नि सूक्त

    मय्यग्रे॑ अ॒ग्निं गृ॑ह्णामि स॒ह क्ष॒त्रेण॒ वर्च॑सा॒ बले॑न। मयि॑ प्र॒जां मय्यायु॑र्दधामि॒ स्वाहा॒ मय्य॒ग्निम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मयि॑ । अग्रे॑ । अ॒ग्निम् । गृ॒ह्णा॒मि॒ । स॒ह । क्ष॒त्रेण॑ । वर्च॑सा । बले॑न । मयि॑ । प्र॒ऽजाम् । मयि॑ । आयु॑: । द॒धा॒मि॒ । स्वाहा॑ । मयि॑ । अ॒ग्निम् ॥८७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मय्यग्रे अग्निं गृह्णामि सह क्षत्रेण वर्चसा बलेन। मयि प्रजां मय्यायुर्दधामि स्वाहा मय्यग्निम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मयि । अग्रे । अग्निम् । गृह्णामि । सह । क्षत्रेण । वर्चसा । बलेन । मयि । प्रऽजाम् । मयि । आयु: । दधामि । स्वाहा । मयि । अग्निम् ॥८७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 82; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    मैं (अग्रे) सब से पहिले वर्तमान (अग्निम्) सर्वज्ञ परमेश्वर को (मयि) अपने में (क्षत्रेण) [दुःख से बचानेवाले] राज्य, (वर्चसा) प्रताप और (बलेन सह) बल के साथ (गृह्णामि) ग्रहण करता हूँ। मैं (मयि) अपने में (प्रजाम्) प्रजा [सन्तान भृत्य आदि] को, (मयि) अपने में (आयुः) जीवन को, (मयि) अपने में (अग्निम्) अग्नि [शारीरिक और आत्मिक बल] को (स्वाहा) सुन्दर वाणी [वेदवाणी] के द्वारा (दधामि) धारण करता हूँ ॥२॥

    भावार्थ - मनुष्य अनादि, अनन्त, परमात्मा का भरोसा रखकर शारीरिक, आत्मिक बल बढ़ा कर राज्य आदि की वृद्धि करें ॥२॥

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