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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 84

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 84/ मन्त्र 3
    सूक्त - भृगुः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - क्षत्रभृदग्नि सूक्त

    मृ॒गो न॑ भी॒मः कु॑च॒रो गि॑रि॒ष्ठाः प॑रा॒वत॒ आ ज॑गम्या॒त्पर॑स्याः। सृ॒कं सं॒शाय॑ प॒विमि॑न्द्र ति॒ग्मं वि शत्रू॑न्ताढि॒ वि मृधो॑ नुदस्व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मृ॒ग: । न । भी॒म: । कु॒च॒र: । गि॒रि॒ऽस्था: । प॒रा॒ऽवत॑: । आ । ज॒ग॒म्या॒त् । पर॑स्या: । सृ॒कम् । स॒म्ऽशाय॑ । प॒विम् । इ॒न्द्र॒ । ति॒ग्मम् । वि । शत्रू॑न् । ता॒ढि॒ । वि । मृध॑: । नु॒द॒स्व॒ ॥८९.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मृगो न भीमः कुचरो गिरिष्ठाः परावत आ जगम्यात्परस्याः। सृकं संशाय पविमिन्द्र तिग्मं वि शत्रून्ताढि वि मृधो नुदस्व ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मृग: । न । भीम: । कुचर: । गिरिऽस्था: । पराऽवत: । आ । जगम्यात् । परस्या: । सृकम् । सम्ऽशाय । पविम् । इन्द्र । तिग्मम् । वि । शत्रून् । ताढि । वि । मृध: । नुदस्व ॥८९.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 84; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (इन्द्र) हे राजन् ! (भीमः) भयानक (कुचरः) टेढ़े चलनेवाले [ऊँचे-नीचे, दायें-बायें जानेवाले] (गिरिष्ठाः) पहाड़ों पर रहनेवाले (मृगः न) [आखेट ढूँढ़नेवाले] सिंह आदि के समान आप (परावतः) समीप देश और (परस्याः) दूर दिशा से (आ जगम्यात्) आते रहें। (तिग्मम्) उत्साहवाले (सृकम्) बाण और (पविम्) वज्र को (संशाय) तीक्ष्ण करके (शत्रून्) शत्रुओं को (वि) विशेष कर (ताढि) ताड़ना कर और (मृधः) हिंसकों को (वि नुदस्व) निकाल दे ॥३॥

    भावार्थ - राजा सिंह के समान पराक्रमी होकर शस्त्र-अस्त्रों को तीक्ष्ण करके शत्रुओं को जीत प्रजा को सुखी रक्खे ॥३॥ यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१०।१८–०।२। और यजु० १८।७१। इस मन्त्र का पूर्वार्द्ध आ चुका है-अथर्व० ७।२६।२ ॥

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