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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 3/ मन्त्र 7
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - शाला छन्दः - परोष्णिक् सूक्तम् - शाला सूक्त

    ह॑वि॒र्धान॑मग्नि॒शालं॒ पत्नी॑नां॒ सद॑नं॒ सदः॑। सदो॑ दे॒वाना॑मसि देवि शाले ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ह॒वि॒:ऽधान॑म् । अ॒ग्नि॒ऽशाल॑म् । पत्नी॑नाम् । सद॑नम् । सद॑: । सद॑: । दे॒वाना॑म् । अ॒सि॒ । दे॒वि॒ । शा॒ले॒ ॥३.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हविर्धानमग्निशालं पत्नीनां सदनं सदः। सदो देवानामसि देवि शाले ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हवि:ऽधानम् । अग्निऽशालम् । पत्नीनाम् । सदनम् । सद: । सद: । देवानाम् । असि । देवि । शाले ॥३.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 3; मन्त्र » 7

    पदार्थ -
    (देवि) हे दिव्य कमनीय (शाले) शाला ! तू (हविर्धानम्) देने लेने योग्य पदार्थों [वा अन्न और हवन सामग्री] का घर, (अग्निशालम्) अग्नि [वा बिजुली आदि] का स्थान, (पत्नीनाम्) रक्षा करनेवाली स्त्रियों का (सदनम्) घर और (सदः) सभास्थान और (देवानाम्) विद्वान् पुरुषों का (सदः) सभास्थान (असि) है ॥७॥

    भावार्थ - मनुष्यों को ऐसे घर बनाने चाहिये, जो कला-कौशल आदि कर्मों, कुटुम्बियों के रहने, स्त्री-सम्मेलन और पुरुष-सभा करने में सुखदायी हों ॥७॥

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