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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 3/ मन्त्र 8
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - शाला छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शाला सूक्त

    अक्षु॒मोप॒शं वित॑तं सहस्रा॒क्षं वि॑षू॒वति॑। अव॑नद्धम॒भिहि॑तं॒ ब्रह्म॑णा॒ वि चृ॑तामसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अक्षु॑म् । ओ॒प॒शम् । विऽत॑तम् । स॒ह॒स्र॒ऽअ॒क्षम् । वि॒षु॒ऽवति॑ । अव॑ऽनध्दम् । अ॒भिऽहि॑तम् । ब्रह्म॑णा । वि । चृ॒ता॒म॒सि॒ ॥३.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अक्षुमोपशं विततं सहस्राक्षं विषूवति। अवनद्धमभिहितं ब्रह्मणा वि चृतामसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अक्षुम् । ओपशम् । विऽततम् । सहस्रऽअक्षम् । विषुऽवति । अवऽनध्दम् । अभिऽहितम् । ब्रह्मणा । वि । चृतामसि ॥३.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 3; मन्त्र » 8

    पदार्थ -
    (विषुवति) व्याप्तिवाले [ऊँचे] स्थान पर (विततम्) फैले हुए, (सहस्राक्षम्) सहस्रों व्यवहार वा झरोखेवाले (ओपशम्) उपयोगी, (ब्रह्मणा) वेदज्ञ विद्वान् करके (अवनद्धम्) अच्छे प्रकार छाये गये और (अभिहितम्) बताये गये (अक्षुम्) व्याप्तिवाले [सर्वदर्शक स्तम्भगृह] को (विचृतामसि) हम अच्छे प्रकार ग्रन्थित करते हैं ॥८॥

    भावार्थ - विद्वान् लोग विद्वान् शिल्पियों की सम्मति से ऊँचे स्थान पर सर्वदर्शक स्तम्भ, अर्थात्, ज्योतिष चक्र, प्रकाश लाट, घटिकाधान आदि सर्वोपयोगी स्थान बनावें ॥८॥

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