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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 3/ मन्त्र 20
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - शाला छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शाला सूक्त

    कु॒लायेऽधि॑ कु॒लायं॒ कोशे॒ कोशः॒ समु॑ब्जितः। तत्र॒ मर्तो॒ वि जा॑यते॒ यस्मा॒द्विश्वं॑ प्र॒जाय॑ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कु॒लाये॑ । अधि॑ । कु॒लाय॑म् । कोशे॑ । कोश॑: । सम्ऽउ॑ब्जित: । तत्र॑ । मर्त॑: । वि । जा॒य॒ते॒ । यस्मा॑त् । विश्व॑म् । प्र॒ऽजाय॑ते ॥३.२०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कुलायेऽधि कुलायं कोशे कोशः समुब्जितः। तत्र मर्तो वि जायते यस्माद्विश्वं प्रजायते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कुलाये । अधि । कुलायम् । कोशे । कोश: । सम्ऽउब्जित: । तत्र । मर्त: । वि । जायते । यस्मात् । विश्वम् । प्रऽजायते ॥३.२०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 3; मन्त्र » 20

    पदार्थ -
    [जैसे] (कुलाये अधि) घोंसले पर (कुलायम्) घोंसला और (कोशे) कोश [निधि] पर (कोशः) कोश [धनसंचय] (समुब्जितः) यथावत् दबा होता है, [वैसे ही] (तत्र) वहाँ [शाला में] (मर्तः) मनुष्य (वि जायते) विविध प्रकार प्रकट होता है, (यस्मात्) जिस [कारण] से (विश्वम्) सब [सन्तानसमूह] (प्रजायते) उत्तमता से उत्पन्न होता है ॥२०॥

    भावार्थ - जिस प्रकार पक्षी अपने घोंसलों में और अनेक धन धनों के द्वारा बढ़ते हैं, वैसे ही मनुष्य सुखप्रद घर में नीरोग रहकर उत्तम सन्तानों से उन्नति करते हैं ॥२०॥

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