यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 1
ऋषिः - आगस्त्य ऋषिः
देवता - सविता देवता
छन्दः - निचृत् पङ्क्ति,आसुरी उष्णिक्,भूरिक् आर्षी उष्णिक्,
स्वरः - धैवतः, ऋषभः
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दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वेऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। आद॑दे॒ नार्य॑सी॒दम॒हꣳ रक्ष॑सां ग्रीवाऽअपि॑कृन्तामि। यवो॑ऽसि य॒वया॒स्मद् द्वेषो॑ य॒वयारा॑तीर्दि॒वे त्वा॒ऽन्तरि॑क्षाय त्वा पृथि॒व्यै त्वा॒ शुन्ध॑न्ताँल्लो॒काः पि॑तृ॒षद॑नाः पितृ॒षद॑नमसि॥१॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुऽभ्याम्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम्। आ। द॒दे॒। नारि॑। अ॒सि॒। इदम्। अ॒हम्। रक्ष॑साम्। ग्री॒वाः। अपि॑। कृ॒न्ता॒मि॒। यवः॑। अ॒सि॒। य॒वय॑। अ॒स्मत्। द्वेषः॑। य॒वय॑। अरा॑तीः। दि॒वे। त्वा॒। अ॒न्तरि॑क्षाय। त्वा॒। पृ॒थि॒व्यै। त्वा॒। शुन्ध॑न्ताम्। लो॒काः। पि॒तृ॒षद॑नाः। पि॒तृ॒सद॑ना॒ इति॑ पितृ॒ऽसद॑नाः। पि॒तृ॒षद॑नम्। पि॒तृ॒ष॑दन॒मिति॑ पि॒तृ॒ऽसद॑नम्। अ॒सि॒ ॥१॥
स्वर रहित मन्त्र
देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेश्विनोर्बाहुभ्याम्पूष्णो हस्ताभ्याम् । आददे नार्यसीदमहँ रक्षसाङ्ग्रीवाऽअपि कृन्तामि । यवोसि यवयास्मद्द्वेषो यवयारातीर्दिवे त्वान्तरिक्षाय त्वा पृथिव्यै त्वा शुन्धन्ताँलोकाः पितृषदनाः पितृषदनमसि ॥
स्वर रहित पद पाठ
देवस्य। त्वा। सवितुः। प्रसव इति प्रऽसवे। अश्विनोः। बाहुभ्यामिति बाहुऽभ्याम्। पूष्णः। हस्ताभ्याम्। आ। ददे। नारि। असि। इदम्। अहम्। रक्षसाम्। ग्रीवाः। अपि। कृन्तामि। यवः। असि। यवय। अस्मत्। द्वेषः। यवय। अरातीः। दिवे। त्वा। अन्तरिक्षाय। त्वा। पृथिव्यै। त्वा। शुन्धन्ताम्। लोकाः। पितृषदनाः। पितृसदना इति पितृऽसदनाः। पितृषदनम्। पितृषदनमिति पितृऽसदनम्। असि॥१॥
विषय - इसके प्रथम मन्त्र में राज्याभिषेक के लिये अच्छी शिक्षा से युक्त सभाध्यक्ष विद्वान् को आचार्य्यादि विद्वान् लोग क्या-क्या उपदेश करें, यह उपदेश किया है ।।
भाषार्थ -
हे सभाऽध्यक्ष विद्वन् ! जैसे (पितृषदनाः) पितरों में रहने वाले विद्वान् लोग (देवस्य) प्रकाशमान (सवितुः) सकल विश्व के उत्पादक (प्रसवे) ईश्वर की सृष्टि में (अश्विनोः) प्राण और उदान के (बाहुभ्याम्) बल एवं वीर्य्य से तथा (पूष्णः) पुष्टिकारक प्राण के (हस्ताभ्याम्) धारण और आकर्षण से [त्वा] तुझ सभाध्यक्ष को ग्रहण करते हैं, वैसे मैं (आ ददे) ग्रहण करूँ। और जैसे (अहम्) मैं [इदम्] युद्ध करके (रक्षसाम्) दुष्टकर्म करने वाले लोगों के (ग्रीवाः) कण्ठों को (कृन्तामि) काटता हूँ वैसे तू भी काट।
हे सभाध्यक्ष ! आप (यवः) संयोग और विभाग करने वाले (असि) हो। अतः (अस्मत्) हमारे पास से (द्वेष:) द्वेषी लोगों को (यवय) हटा, (अरातीः) शत्रुओं को (यवय) हटा। तथा मैं (दिवे) विद्यादि के प्रकाश के लिये (त्वा) तुझ न्यायप्रकाशक को, (अन्तरिक्षाय) सत्याऽनुष्ठान के लिये (त्वा) तुझ सत्याऽऽचरण का अवसर देने वाले को, (पृथिव्यै) विशाल राज्य के लिए (त्वा) तुझ राज्य के विस्तारक को, (शुन्धामि ) शुद्ध करता हूँ, वैसे (पितृषदनाः) विद्वान् जो (लोकाः) न्याय की चक्षु से देखने वाले हैं, वे तुझे शुद्ध करें।
क्योंकि आप (पितृषदनम्) विद्वानों के धाम के समान (असि) हो इसलिये विद्वानों के पालक बनो।
हे सभापति की (नारि) यज्ञसंगिनी देवी ! आप भी इसी प्रकार आचरण करें ॥ ६ । १ ॥
भावार्थ - मन्त्र में वाचकलुप्तोमा अलंकार है। जो विद्या में निष्णात विद्वान् लोग ईश्वर की सृष्टि में अपनी और दूसरों की बुराई को दूर हटाकर राज्य का सेवन करते हैं वे सदा सुखी रहते हैं।। ६। १।।
प्रमाणार्थ -
इस मन्त्र में (यवय) पद में 'वा छन्दसि ( अ० १। ४।९ भा० वा० ) से वृद्धि का प्रतिषेध हुआ है (अन्तरिक्षाय) निघण्टु (१-३) में अन्तरिक्ष शब्द अन्तरिक्ष नामों में पढ़ा है।(पितरः) पितर शब्द निघण्टु (५-५) में पद नामों में पढ़ा है। इस मन्त्र की व्याख्या शतपथ में ( ३। ७। १। १-२ ) में की है।। ६। १।।
भाष्यसार - १. राज्याभिषेक के लिये सुशिक्षित सभाध्यक्ष विद्वान् को आचार्य आदि लोग क्या-क्या उपदेश करें-- हे सुशिक्षित सभाध्यक्ष विद्वान् ! ईश्वर सर्वत्र प्रकाशमान तथा सकल विश्व का उत्पादक है। उस ईश्वर की सृष्टि में पितरों की सभा में बैठने वाले विद्वान् लोग तुझे प्राण और उदान के बल वीर्य के कारण तथा वायु के समान धारण-आकर्षण शक्ति होने के कारण तुझे सभाध्यक्ष रूप में स्वीकार करते हैं। मैं तेरा आचार्य भी तुझे उक्त गुणों के कारण सभाध्यक्ष रूप में स्वीकार करता हूँ। तू युद्ध करके दुष्ट कर्म करने वाले राक्षसों के कण्ठों का छेदन कर और अपनी बुराइयों को भी दूर हटा। हे सभाध्यक्ष ! तेरे अन्दर संयोग और विभाग करने की भी शक्ति है, इसलिये हमसे द्वेष करने वालों की, तथा हमारे शत्रुओं का विभाग कर उन्हें संयुक्त न होने दे। उनमें फूट डाल। आप न्याय के प्रकाशक हो इसलिये विद्यादि शुभ गुणों के प्रकाश के लिये, आप सत्याचरण का अवसर देने वाले हो इसलिये सत्य का आचरण करने के लिये, आप राज्य के विस्तारक हो। अतः भूमि पर राज्य करने के लिये मैं आपका राज्याभिषेक करता हूँ। और पितरों की सभा में बैठने वाले सबको न्याय चक्षु से देखने वाले विद्वान् लोग भी आपका राज्याभिषेक करते हैं। आप विद्वानों के धाम के समान हो इसलिये उक्त पितर विद्वानों के पालक बनो। आपकी यज्ञसंगिनी देवी भी आपके समान ही आचरण करे। विद्यानिष्णात सभाध्यक्ष लोग आचार्य के इस उपदेश के अनुसार अपनी और दूसरों की बुराई को हटाकर राज्य की सेवा करें जिससे सब सुखी रहें। २. अलङ्कार - मन्त्र में उपमावाचक 'इव' आदि शब्द लुप्त है, इसलिये वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है। उपमा यह है कि सुशिक्षित सभाध्यक्ष को राज्य अभिषेक के लिये जैसे पितर (विद्वान्) लोग उन्हें स्वीकार करें वेसे प्रजाजन भी उन्हें सभाध्यक्ष मानें। सभापति की पत्नी भी सभापति के समान आचरण करें।।
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