यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 43
ऋषिः - आगस्त्य ऋषिः
देवता - यज्ञो देवता
छन्दः - ब्राह्मी त्रिष्टुप्,
स्वरः - धैवतः
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द्यां मा ले॑खीर॒न्तरि॑क्षं॒ मा हि॑ꣳसीः पृथि॒व्या सम्भव॑। अ॒यꣳहि त्वा॒ स्वधि॑ति॒स्तेति॑जानः प्रणि॒नाय॑ मह॒ते सौभ॑गाय। अत॒स्त्वं दे॑व वनस्पते श॒तव॑ल्शो॒ वि॒रो॑ह स॒हस्र॑वल्शा॒ वि व॒यꣳ रु॑हेम॥४३॥
स्वर सहित पद पाठद्याम्। मा। ले॒खीः॒। अ॒न्तरि॑क्षम्। मा। हि॒ꣳसीः॒। पृ॒थि॒व्या। सम्। भ॒व॒। अयम्। हि। त्वा॒। स्वधि॑ति॒रिति॒ स्वऽधि॑तिः। तेति॑जानः। प्र॒णि॒नाय॑ प्र॒ति॒नायेति॑ प्रऽनि॒नाय॑। म॒ह॒ते। सौभ॑गाय। अतः॑। त्वम्। दे॒व॒। व॒न॒स्प॒ते॒। श॒तवल्श॒ इति॑ श॒तऽव॑ल्शः। वि। रो॒ह॒। स॒हस्र॑वल्शा॒ इति॑ स॒हस्र॑ऽवल्शाः। वि। व॒यम्। रु॒हे॒म॒ ॥४३॥
स्वर रहित मन्त्र
द्याम्मा लेखीरन्तरिक्षम्मा हिँसीः पृथिव्या सम्भव । अयँ हि त्वा स्वधितिस्तेतिजानः प्रणिनाय महते सौभगाय । अतस्त्वन्देव वनस्पते शतवल्शो विरोह सहस्रवल्शा वि वयँ रुहेम ॥
स्वर रहित पद पाठ
द्याम्। मा। लेखीः। अन्तरिक्षम्। मा। हिꣳसीः। पृथिव्या। सम्। भव। अयम्। हि। त्वा। स्वधितिरिति स्वऽधितिः। तेतिजानः। प्रणिनाय प्रतिनायेति प्रऽनिनाय। महते। सौभगाय। अतः। त्वम्। देव। वनस्पते। शतवल्श इति शतऽवल्शः। वि। रोह। सहस्रवल्शा इति सहस्रऽवल्शाः। वि। वयम्। रुहेम॥४३॥
विषय - मनुष्य यज्ञ के लिये विद्या का नित्य सेवन करें॥
भाषार्थ -
हे विद्वान् ! जैसे मैं (द्याम्) सूर्य के प्रकाश को नहीं छोड़ता हूँ वैसे तू भी विद्याप्रकाश को (मा लेखी:) मत छोड़ । और—
जैसे मैं (अन्तरिक्षम्) अवकाश का नाश नहीं करता हूँ वैसे तू भी अवकाश (समय) का (मा हिंसीः) नाश न कर। और--
जैसे मैं (पृथिव्या) पृथिवी के साथ प्रकट होता हूँ वैसे तू भी इसके साथ उत्तम कार्यों से प्रकट रह। और--
(हि) क्योंकि जैसे (तेतिजानः) अत्यन्त तीक्ष्ण (स्वधितिः) वज्र=शस्त्र शत्रुओं का नाश करके ऐश्वर्य्य को प्राप्त कराता है वैसे आप भी ऐश्वर्य को प्राप्त कराओ।
(अतः) इसलिये हम लोग (त्वा) आपको (महते) विशेष पूजा के योग्य (सौभागाय) उत्तम ऐश्वर्यों की उत्पत्ति के लिये सत्कार करें। और--
जैसे कोई ऐश्वर्य को (प्रणिनाय) प्राप्त कराता है, वैसे हम लोग भी आपको प्राप्त करायें।
हे (देव) आनन्दमय (वनस्पते) वनों के रक्षक विद्वान् ! पूर्वोक्त महान् ऐश्वर्य्य से जैसे (शतवल्श:) बहुत अंकुरों वाला वृक्ष विशेषतः बढ़ता है, वैसे आप (विरोह) विविध प्रकार से बढ़ो। और
जैसे (सहस्रवल्शाः) बहुमूल्य वृक्ष एवं वनस्पतियाँ बढ़ती हैं वैसे हम लोग भी [विरुहेम] नाना प्रकार से बढ़ें ।। ५ । ४३ ।।
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है।। इस संसार में कोई भी मनुष्य विद्याप्रकाश, विद्याभ्यास, स्वतन्त्रता का अवसर, ऐश्वर्य उत्पादन के योग से असंख्य उन्नति करना, इनका परित्याग कभी न करे । ।। ५ । ४३ ।।
प्रमाणार्थ -
इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३।६।४।१३-१६) में की गई है ।। ५ । ४३ ।।
भाष्यसार - १. मनुष्य यज्ञ के लिये विद्या का सदा सेवन करें--जैसे ईश्वर सूर्य के प्रकाश को कभी तिरोहित नहीं करता इसी प्रकार विद्वान् पुरुष भी विद्या-प्रकाश को तथा विद्याभ्यास को कभी न छोड़े। जैसे ईश्वर आकाश का हिंसन नहीं करता अर्थात् इसका विनाश नहीं करता अपितु इसे सदा विद्यमान रखता है इसी प्रकार विद्वान् पुरुष स्वतन्त्रता-अवकाश एवं शुभ कर्मों के लिए अमूल्य समय का कभी नाश न करें। जैसे ईश्वर पृथ्वी के साथ से अर्थात् सदा से विद्यमान है इसी प्रकार विद्वान् पुरुष भी अपने यश से पृथिवी के साथ तक अमर रहें। जैसे अत्यन्त तीक्ष्ण वज्र शत्रुओं का छेदन करके ऐश्वर्य को प्राप्त कराता है वैसे विद्वान् पुरुष दुष्ट का छेदन करके श्रेष्ठ जनों को ऐश्वर्य प्राप्त करायें। उक्त कार्यों को सम्पन्न करने वाले विद्वान् का सब मनुष्य महान् ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये सत्कार करें। ऐश्वर्य को स्वयं प्राप्त करके विद्वानों को भी ऐश्वर्य प्रदान करें। जिससे बहुत अंकुरों वाले वृक्ष के समान विद्वान् पुरुष विविध प्रकार की उन्नति करें । २. अलङ्कार--मन्त्र में उपमावाचक ‘इव’ आदि शब्द लुप्त हैं, अतः वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है। उपमा यह् है जैसे ईश्वर सूर्य का त्याग नहीं करता वैसे विद्वान् भी विद्याप्रकाश तथा विद्याभ्यास का त्याग न करें। जैसे ईश्वर अन्तरिक्ष का हिंसन नहीं करता अर्थात् इसे सदा वर्तमान रखता है वैसे शुभ कर्मों के अवसर का लोप न करें। इत्यादि ।। ५ । ४३ ।।
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