यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 16
ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः
देवता - विष्णुर्देवता
छन्दः - स्वराट् आर्षी त्रिष्टुप्,
स्वरः - धैवतः
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इ॒रा॑वती धेनु॒मती॒ हि भू॒तꣳ सूय॑व॒सिनी॒ मन॑वे दश॒स्या। व्य॑स्कभ्ना॒ रोद॑सी विष्णवे॒ते दा॒धर्त्थ॑ पृथि॒वीम॒भितो॑ म॒यूखैः॒ स्वाहा॑॥१६॥
स्वर सहित पद पाठइरा॑वती॒ इतीरा॑ऽवती। धे॒नु॒मती॒ इति॑ धे॒नु॒ऽमती॑। हि। भू॒तम्। सू॒य॒व॒सिनी॑। सु॒य॒व॒सिनी॒ इति॑ सु॒ऽयव॒सिनी॑। मन॑वे। द॒श॒स्या। वि। अ॒स्क॒भ्नाः॒। रोद॑सी॒ इति॒ रोद॑सी। वि॒ष्णो॒ऽइति॑ विष्णो। ए॒तेऽइत्ये॒ते॑। दा॒धर्त्थ॑। पृ॒थि॒वीम्। अ॒भितः॑। म॒यूखैः॑। स्वाहा॑ ॥१६॥
स्वर रहित मन्त्र
इरावती धेनुमती हि भूतँ सूयवसिनी मनवे दशस्या । व्यस्कभ्ना रोदसी विष्णवेते दाधर्थ पृथिवीमभितो मयूखैः स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठ
इरावती इतीराऽवती। धेनुमती इति धेनुऽमती। हि। भूतम्। सूयवसिनी। सुयवसिनी इति सुऽयवसिनी। मनवे। दशस्या। वि। अस्कभ्नाः। रोदसी इति रोदसी। विष्णोऽइति विष्णो। एतेऽइत्येते। दाधर्त्थ। पृथिवीम्। अभितः। मयूखैः। स्वाहा॥१६॥
विषय - फिर ईश्वर और सूर्य के गुणों का उपदेश किया है ।।
भाषार्थ -
हे (विष्णो) सर्वव्यापक जगदीश्वर ! आप जो (इरावती) उत्तम अन्नों वाली (धेनुमती) उत्तम धेनु अर्थात् वाणी वा पशुओं वाली (सूयवसिनी) नाना सुन्दर मिश्रित अमिश्रित वस्तुओं वाली पृथिवी है उस (पृथिवीम्) भूमि वा आकाश को तथा (स्वाहा) वेदवाणी को (हि) निश्चय से (भूतम्) उत्पन्न हुए समस्त जगत् को (मयूखैः) ज्ञान प्रकाश आदि गुणों से (अभितः) सब ओर से (दाधर्थ) धारण करते हो। और--
(रोदसी) प्रकाशलोकों और पृथिवी लोकों को (व्यस्कभ्नाः) रोके रखते हो, उस आप के लिये तथा (दशस्याय) दशा के समान आप को (मनवे) बोध-प्राप्ति के लिए हम लोग और (एते) ये विद्वान् लोग इस सारे जगत् को अर्पण करते हैं। यह इस मन्त्र का पहला अर्थ है ॥
जो (विष्णुः) व्यापक प्राण है वह, जो (इरावती) उत्तम अन्नों वाली (धेनुमती) उत्तम धेनु अर्थात् वाणी वा पशुओं वाली (सूयवसिनी) नानासुन्दर मिश्रित-अमिश्रित वस्तुओं वाली भूमि वा वाणी है उस (पृथिवीम्) भूमि वा आकाश को तथा (स्वाहा) वाणी तथा चक्षु इन्द्रिय की (मयूखैः) ज्ञान किरणों से (अभितः) सब ओर से (दाधर्थ) धारण करता है, और (रोदसी) प्रकाश लोक और पृथिवी लोकों को (व्यस्कभ्नाः) धारण करता है, उस (दशस्याय) दशा के तुल्य (मनवे) प्राण के लिये (भूतम् ) उत्पन्न सब कार्य जगत् को [हि] निश्चयपूर्वक प्रकाशित करने में समर्थ प्राण को तुम सब जानो। यह मन्त्र का दूसरा अर्थ है ।। ५ । १६ ।।
भावार्थ - इस मन्त्र में श्लेष अलङ्कार है।।जैसे सूर्य अपनी किरणों से एवं कान्ति से सब भूमि आदि जगत् को, रोक, खैंच कर धारण कर रहा है वैसे ही परमेश्वर वा प्राण अपने सामर्थ्य से सब प्राण आदि जगत् को रच कर धारण करके व्यवस्था में रखता है ।। ५ । १६ ।।
प्रमाणार्थ -
(इरावती) यहाँ प्रशंसा अर्थ में 'मतुप्' प्रत्यय है। 'इरा' शब्द निघं० (२ । ७) में अन्न नामों में पढ़ा है। (धेनुमती) यहाँ प्रशंसा और आधिक्य अर्थ में 'मतुप्' प्रत्यय है । (दशस्या) यहाँ बहुल करके 'असुन्' प्रत्यय और वह कित् है, पश्चात् आचार अर्थ में 'क्यच्' प्रत्यय है । (दाधर्थ) यह पद "दाधर्त्ति०" (अ० ७ । ४ । ६५) इस सूत्र से यङ्लुगन्त निपातित है। (पृथिवी) यह शब्द निघं० (१ । ३) में अन्तरिक्ष-नामों में पढ़ा है । (मयूखै:) 'मयूख' शब्द निघं० (१ । ५) में रश्मि-नामों में पढ़ा है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३ । ५ । ३ । १४) में की गई है ।। ५ । १६ ।।
भाष्यसार - १. विष्णु (ईश्वर) के गुण--विष्णु अर्थात् ईश्वर सर्वव्यापक और जगत् का स्वामी है। वह उत्तम अन्नों से युक्त, गौ आदि पशुओं से भरपूर, उत्तम वस्तुओं वाली पृथिवी को तथा आकाशको अर्थात् उत्पन्न मात्र सकल जगत् को धारण कर रहा है। वेदवाणी को भी वही धारण करता है। द्यावा पृथिवी को उसी ने स्वसामर्थ्य और आकर्षण शक्ति से परस्पर बांधा है। विद्वान् लोग उसके बोध के लिए उसे सब जगत् को अर्पित करते हैं। २. विष्णु (सूर्य) के गुण--विष्णु अर्थात् सूर्य उक्त गुणों वाली पृथिवी को, वाणी और चक्षु इन्द्रिय को अपनी किरणों से धारण कर रहा है। द्युलोक और पृथिवी लोक को आकर्षण शक्ति से धारण करता है। यही सब जगत् को प्रकाशित करने में समर्थ है। ३. प्राण--विष्णु अर्थात् प्राण सर्वत्र व्यापक है। वह उक्त गुणों वाली भूमि को तथा वाणी को अपने सामर्थ्य से सब ओर से धारण करता है। द्युलोक और पृथिवी लोक को भी धारण करता है। यह प्राण सब कार्य जगत् को प्रकाशित करने में समर्थ है। सब जगत् का आधार प्राण है । ४. अलङ्कार-- यहाँ श्लेष अलङ्कार से विष्णु शब्द से ईश्वर, सूर्य और प्राण अर्थ का ग्रहण किया है ।। ५ । १६ ।।
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