यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 26
ऋषिः - औतथ्यो दीर्घतमा ऋषिः
देवता - यज्ञो देवता
छन्दः - निचृत् आर्षी पङ्क्ति,निचृत् आर्षी त्रिष्टुप्,
स्वरः - पञ्चमः, धैवतः
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दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वेऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। आद॑दे॒ नार्य॑सी॒दम॒हꣳ रक्ष॑सां ग्री॒वाऽअपि॑कृन्तामि॒। यवो॑ऽसि य॒वया॒स्मद् द्वेषो॑ य॒वयारा॑तीर्दि॒वे त्वा॒ऽन्तरि॑क्षाय त्वा पृथि॒व्यै त्वा॒ शुन्ध॑न्ताँल्लो॒काः पि॑तृ॒षद॑नाः पितृ॒षद॑नमसि॥२६॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुऽभ्याम्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्या॒मिति॒ हस्ता॑ऽभ्याम्। आ। द॒दे॒। नारि॑। अ॒सि॒। इ॒दम्। अ॒हम्। रक्ष॑साम्। ग्री॒वाः। अपि॑। कृ॒न्ता॒मि॒। यवः॑। अ॒सि॒। य॒वय॑। अ॒स्मत्। द्वेषः॑। य॒वय॑। अरा॑तीः। दि॒वे। त्वा॒। अ॒न्तरिक्षा॑य। त्वा॒। पृ॒थि॒व्यै। त्वा॒। शुन्ध॑न्ताम्। लो॒काः। पि॒तृ॒षद॑नाः। पि॒तृ॒सद॑ना॒ इति॑ पितृ॒ऽसद॑नाः। पि॒तृ॒षद॑नम्। पि॒तृ॒सद॑न॒मिति॑ पितृ॒ऽसद॑नम्। अ॒सि॒ ॥२६॥
स्वर रहित मन्त्र
देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेश्विनोर्बाहुभ्याम्पूष्णो हस्ताभ्याम् । आददे नार्यसीदमहँ रक्षसाङ्ग्रीवाऽअपि कृन्तामि । यवोसि यवयास्मद्द्वेषो यवयारातीर्दिवे त्वान्तरिक्षाय त्वा पृथिव्यै त्वा । शुन्धन्तान्लोकाः पितृषदनाः पितृषदनमसि ॥
स्वर रहित पद पाठ
देवस्य। त्वा। सवितुः। प्रसव इति प्रऽसवे। अश्विनोः। बाहुभ्यामिति बाहुऽभ्याम्। पूष्णः। हस्ताभ्यामिति हस्ताऽभ्याम्। आ। ददे। नारि। असि। इदम्। अहम्। रक्षसाम्। ग्रीवाः। अपि। कृन्तामि। यवः। असि। यवय। अस्मत्। द्वेषः। यवय। अरातीः। दिवे। त्वा। अन्तरिक्षाय। त्वा। पृथिव्यै। त्वा। शुन्धन्ताम्। लोकाः। पितृषदनाः। पितृसदना इति पितृऽसदनाः। पितृषदनम्। पितृसदनमिति पितृऽसदनम्। असि॥२६॥
विषय - किसलिये इस यज्ञ को करना चाहिये, इस विषय का उपदेश किया है ॥
भाषार्थ -
हे मनुष्य! जैसे मैं विद्वान् (सवितुः) सब के उत्पत्तिकर्ता (देवस्य) सब आनन्द देने वाले ईश्वर की (प्रसवे) सृष्टि में (अश्विनोः)प्राण और अपान के (बाहुभ्याम्) बल वीर्य सेऔर (पूष्णः) बलवान् वीर के (हस्ताभ्याम्) बलशाली भुजाओं से अनेक उपकारों को (आददे) ग्रहण करता हूँ तथा (इदम्) इस विश्व का संरक्षण करके (रक्षसाम्) दुष्ट कर्म करने वाले प्राणियों के (ग्रीवा:) शिरों का (अपि) निश्चय ही (कृन्तामि) छेदन करता हूँ और जैसे पदार्थों को मिलाता वा पृथक् करता हूँ वैसे तू भी कर एवं (यवय) श्रेष्ठ गुणों से पदार्थों को संयुक्तकर तथा दोषों से दूर कर और करा। और--
जैसे मैं (द्वेषः) ईर्ष्या आदि दोषों को तथा(अरातीः) शत्रुओं को (अस्मत्) अपने लोगों से दूर करता हूँ वैसे तू भी (यवय) दूर हटा।
हे विद्वान् मनुष्य ! जैसे (अहम्) सभा का अध्यक्ष मैं (दिवे) सत्य धर्म को प्रकाशित करने के लिये, (अन्तरिक्षाय) आकाश की यात्रा के लिये, (पृथिव्यै) पृथिवी के पदार्थों की पुष्टि के लिए, (त्वा) आपका आश्रय लेता हूँ, वैसे सब लोग विद्वानों का आश्रय ग्रहण किया करें। और--
जैसे (पितृषदनम्) ज्ञानी लोगों की सभा (असि)है, जिससे (पितृषदनाः) ज्ञानी लोगों में बैठने वाले(लोकाः) सब लोग शुद्ध होते हैं और मैं शुद्ध होता हूँ वैसे (इदम्) उस सारे संसार को ज्ञानी पितर लोग (शुन्धन्ताम्) पवित्र करें।
हे (नारि) नरों की सबला स्त्री! तू भी इस सब उपदेश का इसी प्रकार आचरण कर ।। ५ । २६ ।।
भावार्थ - इस मन्त्र में उपमा अलङ्कार है। सब मनुष्य क्रिया के अनुसार तथा यथाक्रम विद्वानों का आश्रय करके यज्ञानुष्ठान से सब की शुद्धि करें ॥ ५ । २६ ॥
प्रमाणार्थ -
(यवय) यहाँ'वा छन्दसि' [अ० १।४।९ ] इस वार्त्तिक से वृद्धि का अभाव है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३ । ६ । १ । ४-१४) में की गई है ।। ५ । २६ ॥
भाष्यसार - १. यज्ञानुष्ठान किस लिए करें--जैसे विद्वान् पुरुष सकल जगत् के उत्पादक, सब आनन्द के दाता ईश्वर को सृष्टि में प्राण और अपान के बल-वीर्य से, बलवान् वीर पुरुष के हाथों से अनेक उपकार ग्रहण करते हैं, संसार की रक्षा के लिये दुष्ट कर्म करने वाले राक्षसों की ग्रीवा (गर्दन) का छेदन करते हैं, सृष्टि के पदार्थों को श्रेष्ठ गुणों से युक्त और दोषों से मुक्त करते हैं, ईर्ष्या आदि दोषों को तथा शत्रुओं को दूर हटाते हैं वैसे सब मनुष्य इस यज्ञ का अनुष्ठान करें। जैसे सभाध्यक्ष आदि सत्यधर्म को जानने के लिये, आकाश में गति करने के लिये, पृथिवी केपदार्थों के पोषण के लिये विद्वानों की शरण में जाते हैं वैसे सब मनुष्य भी इस यज्ञ का अनुष्ठान करें । जैसे पितर अर्थात् विद्यावान् ज्ञानी लोगों की सभा में बैठने वाले ज्ञानी पुरुष शुद्ध हो जाते हैं, वैसे इस यज्ञानुष्ठान से समस्त विश्व को पवित्र करें। पुरुषों के समान देवियाँ भी इस यज्ञ का अनुष्ठान करें । २. अलङ्कार –इस मन्त्र में उपमा अलङ्कार यह है कि विद्वानों के समान सब मनुष्य यज्ञानुष्ठान से विश्व को पवित्र करें ।। ५।२६ ।।
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