यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 9
ऋषिः - गोतम ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - भूरिक् आर्षी गायत्री,भूरिक् ब्राह्मी बृहती,निचृत् ब्राह्मी जगती,याजुषी अनुष्टुप्
स्वरः - षड्जः, निषादः
1
त॒प्ताय॑नी मेऽसि वि॒त्ताय॑नी मे॒ऽस्यव॑तान्मा नाथि॒तादव॑तान्मा व्यथि॒तात्। वि॒देद॒ग्निर्नभो॒ नामाग्ने॑ऽअङ्गिर॒आयु॑ना॒ नाम्नेहि॒ योऽस्यां पृ॑थि॒व्यामसि॒ यत्तेऽना॑धृष्टं॒ नाम॑ य॒ज्ञियं॒ तेन॒ त्वा द॒धे वि॒देद॒ग्निर्नभो॒ नामाग्ने॑ऽअङ्गिर॒ऽआयु॑ना॒ नाम्नेहि॒ यो द्वि॒तीय॑स्यां पृथि॒व्यामसि॒ यत्तेऽना॑धृष्टं॒ नाम॑ य॒ज्ञियं॒ तेन॒ त्वा द॑धे वि॒देद॒ग्निर्नभो॒ नामाग्ने॑ऽअङ्गिर॒ऽआयु॑ना॒ नाम्नेहि॒ यस्तृ॒तीय॑स्यां पृथि॒व्यामसि॒ यत्तेऽना॑धृष्टं॒ नाम॑ य॒ज्ञियं॒ तेन॒ त्वा द॑धे। अनु॑ त्वा दे॒ववी॑तये॥९॥
स्वर सहित पद पाठत॒प्ताय॒नीति॑ तप्त॒ऽअय॑नी। मे॒। अ॒सि॒। वि॒त्ताय॒नीति॑ वित्त॒ऽअय॑नी। मे॒। अ॒सि॒। अव॑तात्। मा॒। ना॒थि॒तात्। अव॑तात्। मा॒। व्य॒थि॒तात्। वि॒देत्। अ॒ग्निः। नभः॑। नाम॑। अग्ने॑। अ॒ङ्गि॒रः॒। आयु॑ना। नाम्ना॑। आ। इ॒हि॒। यः। अ॒स्याम्। पृ॒थि॒व्याम्। असि॑। यत्। ते॒। अना॑धृष्टम्। नाम॑। य॒ज्ञिय॑म्। तेन॑। त्वा॒। आ। द॒धे॒। वि॒देत्। अ॒ग्निः। नमः॑। नामः॑। अग्ने॑। अ॒ङ्गि॒रः॒। आयु॑ना। नाम्ना॑। आ। इ॒हि॒। यः। द्वि॒तीय॑स्याम्। पृ॒थि॒व्याम्। असि॑। यत्। ते। अना॑धृष्टम्। नाम॑। य॒ज्ञिय॑म्। तेन॑। त्वा॒। आ। द॒धे॒। वि॒देत्। अ॒ग्निः। नभः॑। नाम॑। अग्ने॑। अ॒ङ्गि॒रः॒। आयु॑ना। नाम्ना॑। आ। इ॒हि॒। यः। तृ॒तीय॑स्याम्। पृ॒थि॒व्याम्। असि॑। यत्। ते॒। अना॑धृष्टम्। नाम॑। य॒ज्ञिय॑म्। तेन॑। त्वा॒। आ। द॒धे॒। अनु॑। त्वा॒। दे॒ववी॑तय॒ इति॑ दे॒वऽवी॑तये ॥९॥
स्वर रहित मन्त्र
तप्तायनी मेसि वित्तायनी मेस्यवतान्मा नाथितादवतान्मा व्यथितात् । विदेदग्निर्नभो नामऽअग्ने अङ्गिर आयुना नाम्नेहि यो स्याम्पृथिव्यामसि यत्ते नाधृष्टं नाम यज्ञियंन्तेन त्वा दधे विदेदग्निर्नभो नामाग्नेऽअङ्गिर आयुना नाम्नेहि यो द्वितीयस्यां पृथिव्यामसि यत्ते नाधृष्टन्नाम यज्ञियन्तेन त्वा दधे विदेदग्निर्नभो नामग्ने अङ्गिर आयुना नाम्नेहि यस्तृतीयस्याम्पृथिव्यामसि यत्ते नाधृष्टन्नाम यज्ञियन्तेन त्वा दधे । अनु त्वा देववीतये ॥
स्वर रहित पद पाठ
तप्तायनीति तप्तऽअयनी। मे। असि। वित्तायनीति वित्तऽअयनी। मे। असि। अवतात्। मा। नाथितात्। अवतात्। मा। व्यथितात्। विदेत्। अग्निः। नभः। नाम। अग्ने। अङ्गिरः। आयुना। नाम्ना। आ। इहि। यः। अस्याम्। पृथिव्याम्। असि। यत्। ते। अनाधृष्टम्। नाम। यज्ञियम्। तेन। त्वा। आ। दधे। विदेत्। अग्निः। नमः। नामः। अग्ने। अङ्गिरः। आयुना। नाम्ना। आ। इहि। यः। द्वितीयस्याम्। पृथिव्याम्। असि। यत्। ते। अनाधृष्टम्। नाम। यज्ञियम्। तेन। त्वा। आ। दधे। विदेत्। अग्निः। नभः। नाम। अग्ने। अङ्गिरः। आयुना। नाम्ना। आ। इहि। यः। तृतीयस्याम्। पृथिव्याम्। असि। यत्। ते। अनाधृष्टम्। नाम। यज्ञियम्। तेन। त्वा। आ। दधे। अनु। त्वा। देववीतय इति देवऽवीतये॥९॥
विषय - अब किसलिये अग्नि आदि से यज्ञ का अनुष्ठान करना चाहिये, इस विषय का उपदेश कियाजाता है।।
भाषार्थ -
हे विद्या को ग्रहण करने के इच्छुक! जैसे मैं, जो (तप्तायनी) स्थापन करने योग्य वस्तुओं का स्थान विद्युत् (असि) है, और जो (वित्तायनी) भोग और प्रसिद्ध पदार्थों को प्राप्त कराने वाली विद्युत् (असि) है (त्वा) उसे जानता हूँ, वैसे तू इसलिए इस विद्या को (मे) मुझ से (एहि) प्राप्त कर ।
जैसे यह अच्छे प्रकार से सेवन किया हुआ (अग्निः) सूर्य वा प्रसिद्ध अग्नि (नभः) जल और प्रकाश को देता हुआ (मा) मेरी (व्यथितात्) भय और विचलित होने से (अवतात्) रक्षा करती है और (नाथितात्) ऐश्वर्य प्रदान से (अवतात्) रक्षा करती है वैसे तुझ से सेवन किया हुआ अग्नि तेरी भी रक्षा करे ।
[जाठर अग्नि]
जैसे मैं, जो (अग्ने) जाठराग्नि (अङ्गिरः) अङ्गों को रस पहुँचाने वाला (अग्नि:) है वह (आयुना) जीवन का सुख-प्रापक (नाम्ना) नामकी प्रसिद्धि से (अस्याम्) इस (पृथिव्याम्) भूमि पर (नाम) प्रसिद्ध है, (त्वा) उस अग्नि को (देववीतये) दिव्यगुणों वा दिव्य भोगों की प्राप्ति के लिये मैं जानता हूँ, वैसे इसीलिये इस अग्नि को तू भी (मे) मुझ से (एहि) जान एवं प्राप्त कर ।
[यज्ञिय अग्नि]
जैसे मैं, उस (नाम्ना) प्रसिद्धि से (यत्) जिस (अनाधृष्टम् ) किसी ओर से न दबाये जाने वाले (यज्ञियम्) यज्ञाङ्गों के साधक (नाम) उक्त प्रसिद्ध तेज को (आदधे) सब ओर से धारण करता हूँ वैसे (त्वा) उसे तू इसको हमारे पीछे (अन्वेहि) प्राप्त कर और सब लोग उसको (अनुविदेत्) जानें ।
[प्रसिद्ध अग्नि]
जैसे मैं, (तेन) उस अग्नि को जो अग्नि (द्वितीयस्याम्) इससे भिन्न (पृथिव्याम्) विशाल भूमि पर (अग्ने) प्रसिद्ध अग्नि है और जो(अङ्गिरः) अङ्गारस्थ (आयुना) जीवन वा सुख प्रापक (नाम्ना) प्रसिद्धि से (नाम) प्रसिद्ध (असि) है। और (यः) जो अग्नि (नभः) सुख एवं अवकाश प्रदान करती है अतः (त्वा) उसे प्रयोग में लाता हूँ, वैसे इसलिए (त्वा) इस अग्नि को तू (एहि) प्राप्त कर और भी सब लोग (अनुविदेत्) अनुकूलता से प्राप्त करें ।
जैसे मैं जो (अनाधृष्टम्) बड़ा (यज्ञियम्) यज्ञ विद्या सम्बन्धी (नाम) प्रसिद्ध तेज है (त्वा) उसे (आदधे) सब ओर से स्वीकार करता हूँ, वैसे तू इसी (नाम्ना) प्रसिद्धि से (एहि ) उसे प्राप्त कर और सब लोग उसे (अनुविदेत्) प्राप्त करें।
[सूर्य अग्निः]
जैसे मैं जो (अग्निः) सूर्य में स्थित अग्नि है, वह (आयुना) जीवन वा सुख-प्रापक (नाम्ना) नाम से (तृतीयस्याम्) तृतीय कक्षा में विद्यमान (पृथिव्याम्) भूमि पर (अग्ने) सूर्य रूप (अङ्गिरः) गमनशील सूर्य रूप से (नाम) प्रसिद्ध (असि) है और (यः) जो अग्नि (नभः) आकाश को चमकाती है (त्वा) उसे जानता हूँ, वैसे इसको इसीलिए तू (एहि ) प्राप्त कर और सब लोग भी (विदेत्) प्राप्त करें ॥ ५। ९ ॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है॥ जो प्रसिद्ध सूर्य और विद्युत् रूप में तीन प्रकार का अग्नि सब लोकों में बाहर और अन्दर विद्यमान है, उसे जान कर तथा जनाकर सब मनुष्य सब कार्यों की सिद्धि करें ॥ ५। ९ ॥
प्रमाणार्थ -
(वित्तायनी) यहाँ'वित्त' शब्द 'वित्तो भोग प्रत्ययोः (अ०८।२।५८ ) सूत्र से भोग और प्रतीत अर्थ में निपातित है। (अवतात्) रक्षति। यहाँ सर्वत्र लङ् अर्थ में लोट् लकार है । (नभः) यह शब्द निघं० (१।१२) में जल-नामों में और निघं० (१।४) में द्युलोक और सूर्य के साधारण नामों में पढ़ा है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (३।५।१।२७-३२) में की गई है। ५।९॥
[विद्युत्]
भाष्यसार - १. अग्नि आदि से यज्ञानुष्ठान किसलिये-- (क) अग्नि अर्थात् विद्युत् सब वस्तुओं का आधार है, सब भोगों और पदार्थों का प्रापक है, इसका विधिपूर्वक सेवन जल और प्रकाश प्रदान करता है, यह सब भय से रक्षा करती है, ऐश्वर्य प्रदान करके रक्षा करती है। अतः विद्युत् विद्या के पठन-पाठन रूप यज्ञ का अनुष्ठान अवश्य करते रहें । (ख) अग्नि अर्थात् जाठर अग्नि शरीर के अङ्गों का रस है, अङ्गों में रस पहुँचाता है, रसों का परिपाक करता है, आयु और सुखों का प्रापक है। दिव्य गुणों और दिव्य भोगों की प्राप्ति का साधन है। अत: इस जाठर अग्नि विद्या का शिक्षण रूप यज्ञ का अनुष्ठान अवश्य करते रहें । (ग) अग्नि अर्थात् यज्ञिय अग्नि अत्यन्त तेजस्वी है। इसके तेज को कोई दबा नहीं सकता।यह दुर्गन्ध को दूर करने वाला और सुगन्धि रूप तेज को फैलाने वाला है। इस अनाधृष्य यज्ञिय तेजःस्वरूप अग्नि का यज्ञ वेदि में आधान करें। सब मनुष्य यज्ञ विद्या को सीखें । (घ) अग्नि अर्थात् भौतिक स्थूल सर्वप्रसिद्ध अग्नि अङ्गारों में स्थित है। जीवन तथा अन्य लौकिक सुखों का साधक है, प्रापक है। इसका विधिपूर्वक प्रयोग करें। इस स्थूल प्रसिद्ध अग्नि के प्रयोग की शिल्प विद्या को भी सीखें । (ङ) अग्नि अर्थात् सूर्य आयु का हेतु है। आयु का परिमाण यही है। स्वयं गतिशील तथा सब जगत् को गति देने वाला है। सम्पूर्ण आकाश को प्रकाशित करता है। सब मनुष्य सूर्य-विद्या को सीखें। इस मन्त्र में प्रतिपादित अग्नि की विद्या को सीखना यज्ञानुष्ठान है। इस यज्ञानुष्ठान से मनुष्य सब कार्यों की सिद्धि करें । २. तीन प्रकार की अग्नि--इस पृथिवी पर स्थूल रूप प्रसिद्ध अग्नि है, अन्तरिक्ष में विद्युत् रूप अग्नि है, और द्युलोक में सूर्य रूप अग्नि है। मन्त्र में प्रतिपादित जाठराग्नि का विद्युत् रूप अग्नि में तथा यज्ञिय अग्नि का स्थूल प्रसिद्ध अग्नि में अन्तर्भाव है। ३. अलङ्कार--मन्त्र में उपमा वाचक शब्द लुप्त हैइसलिये वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है। उपमा यह है कि विद्वानों के समान अन्य जन भी अग्निविद्या को सीखें ॥ ५ । ९ ॥
इस भाष्य को एडिट करेंAcknowledgment
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