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  • यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 11
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - वाग्देवता छन्दः - निचृत् ब्राह्मी त्रिष्टुप्, स्वरः - धैवतः
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    इ॒न्द्र॒घो॒षस्त्वा॒ वसु॑भिः पु॒रस्ता॑त् पातु॒ प्रचे॑तास्त्वा रु॒द्रैः प॒श्चात् पा॑तु॒ मनो॑जवास्त्वा पि॒तृभि॑र्दक्षिण॒तः पातु॑ वि॒श्वक॑र्मा त्वादि॒त्यैरु॑त्तर॒तः पा॑त्वि॒दम॒हं त॒प्तं वार्ब॑हि॒र्धा य॒ज्ञान्निःसृ॑जामि॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒न्द्र॒घो॒ष इती॑न्द्रघो॒षः। त्वा॒ वसु॑भि॒रिति॒ वसु॑ऽभिः। पु॒रस्ता॑त्। पा॒तु॒। प्रचे॑ता॒ इति॒ प्रऽचे॑ताः। त्वा॒। रु॒द्रैः। प॒श्चात्। पा॒तु॒। मनो॑जवा॒ इति॒ मनः॑ऽजवाः। त्वा॒। पि॒तृभि॒रिति॑ पि॒तृऽभिः॑। द॒क्षि॒ण॒तः। पा॒तु॒। वि॒श्वक॒र्मेति॑ वि॒श्वऽक॑र्मा। त्वा॒। आ॒दि॒त्यैः। उ॒त्त॒र॒तः। पा॒तु॒। इ॒दम्। अ॒हम्। त॒प्तम्। वाः। ब॒हि॒र्धेति॑ बहिः॒ऽधा। य॒ज्ञात्। निः। सृ॒जा॒मि॒ ॥११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रघोषस्त्वा वसुभिः पुरस्तात्पातु प्रचेतास्त्वा रुद्रैः पश्चात्पातु मनोजवास्त्वा पितृभिर्दक्षिणतः पातु विश्वकर्मा त्वादित्यैरुत्तरतः पात्विदमहन्तप्तँवार्बहिर्धा यज्ञान्निः सृजामि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रघोष इतीन्द्रघोषः। त्वा वसुभिरिति वसुऽभिः। पुरस्तात्। पातु। प्रचेता इति प्रऽचेताः। त्वा। रुद्रैः। पश्चात्। पातु। मनोजवा इति मनःऽजवाः। त्वा। पितृभिरिति पितृऽभिः। दक्षिणतः। पातु। विश्वकर्मेति विश्वऽकर्मा। त्वा। आदित्यैः। उत्तरतः। पातु। इदम्। अहम्। तप्तम्। वाः। बहिर्धेति बहिःऽधा। यज्ञात्। निः। सृजामि॥११॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 5; मन्त्र » 11
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    भाषार्थ -
    हे मनुष्य! जैसे (प्रचेताः) उत्तम विज्ञान वाला एवं उत्तम रीति से सबको ज्ञान देने वाला (इन्द्रघोषः) परमेश्वर की वेदवाणी के विविध शब्दार्थ सम्बन्ध तथा विद्युत् विद्या का ज्ञान (विश्वकर्मा) सब कर्मों में कुशल मैं विद्वान् (यज्ञात्) अध्ययन-अध्यापन रूप यज्ञ से तथा होम से (इदम्) इस आन्तरिक जल को जो (तप्तम्) धर्म और अध्ययन-अध्यापन के श्रम से तपा हुआ एवं जो (वाः) बाह्य शीतल जल है उसे (निःसृजामि) सर्वथा सिद्ध करता हूँ। और-- जो (वसुभिः) अग्नि आदि तथा २४ वर्ष ब्रह्मचर्य पालन करने वाले वसु ब्रह्मचारियों के साथ वर्तमान (इन्द्रघोषः) परमेश्वर की वेदवाणी के विविध शब्दार्थ सम्बन्ध वाली तथा विद्युत् सम्बन्धी जो वाणी है [त्वा] उसकी (पुरस्तात्) पूर्व में रक्षा करता हूँ, वैसे आप भी उसकी रक्षा करो। और-- जो (रुद्रैः) प्राण तथा ४४ वर्ष ब्रह्मचर्य-पालन करने वाले रुद्र ब्रह्मचारियों के साथ वर्तमान (प्रचेताः) उत्तम विज्ञान वाली एवं प्रकृष्ट ज्ञान का साधन जो वाणी है [त्वा] उसकी (पश्चात्) पश्चिम में रक्षा करता हूँ वैसे आप भी (पातु) उसकी रक्षा करो। और-- जो (पितृभिः) ज्ञानी पितर जनों तथा ऋतुओं के साथ वर्तमान (मनोजवाः) मन के समान वेग वाली वाणी है [त्वा] उसकी (दक्षिणतः) दक्षिण में रक्षा करता हूँ वैसे आप भी(पातु) रक्षा करो। और-- जो (आदित्यैः) वर्ष के मास तथा ४८ वर्ष ब्रह्मचर्य-पालन करने वाले आदित्य ब्रह्मचारियों के साथ वर्तमान [विश्वकर्मा] सब कर्मों में व्याप्त वाणी है [त्वा] उसकी (उत्तरतः) उत्तर में रक्षा करता हूँ वैसे आप भी (पातु) उसकी रक्षा करो ॥ ५ । ११ ।।

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है ॥ सब मनुष्य वसु, रुद्र, आदित्य और पितर जनों से सेवन की गई यज्ञ की अधिकारिणी वाणी को विद्या से एवं जल को सत्कार से सेवन करके शुद्ध और निर्मल सदा रहें ।। ५ । ११ ।।

    भाष्यसार - १. विद्वान्-- उत्तम विज्ञान वाला तथा उत्तम रीति से ज्ञान का दाता, परमेश्वर की वेदवाणी के विविध शब्दार्थसम्बन्ध का ज्ञाता एवं विद्युत्-विद्या का वेत्ता, सब कर्मों में कुशल पुरुष विद्वान् कहलाता है, जो अध्ययन-अध्यापन रूप यज्ञ से एवं धर्म तथा अध्ययन-अध्यापन के श्रम से अन्तःकरण के रस को शुद्ध करता है। होम के द्वारा बाह्य शीतल जल को भी सिद्ध करता है। २. वाणी कैसी है— उत्तम विज्ञान वाली, ज्ञान प्राप्ति की उत्तम साधन, परमेश्वर की वेदवाणी के विविध शब्दार्थसम्बन्ध को व्यक्त करने वाली एवं विद्युत्-विद्या का घोष (उपदेश) करने वाली, सब कर्मों में व्याप्त है। अग्नि आदि से सम्बन्धित तथा २४ वर्ष ब्रह्मचर्य-पालन करने वाले वसु ब्रह्मचारियों की इन्द्रघोष नामक वाणी की, प्राणों से सम्बन्धित तथा ४४ वर्ष ब्रह्मचर्य पालन करने वाले रुद्रब्रह्मचारियों की 'प्रचेता' नामक वाणी की, ऋतुओं से सम्बन्धित तथा ज्ञानी पितर जनों की 'मनोजवा' नामक वाणी की, संवत्सर से सम्बन्धित तथा ४८ वर्ष ब्रह्मचर्य पालन करने वाले आदित्य ब्रह्मचारियों की 'विश्वकर्मा' नामक वाणी की सब ओर से विद्वानों के समान सब मनुष्य रक्षा करें । ३. अलङ्कार-- मन्त्र में उपमावाचक शब्द लुप्त है, इसलिये वाचकलुप्तोपमा अलङ्कार है।उपमा यह है कि विद्वानों के समान सब मनुष्य होम से जल को सिद्ध करें। तथा मन्त्रोक्त वाणी की रक्षा करें ।। ५ । ११।।

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