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  • यजुर्वेद - अध्याय 10/ मन्त्र 23
    ऋषिः - वामदेव ऋषिः देवता - सूर्य्यो देवता छन्दः - जगती, स्वरः - निषादः
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    अ॒ग्नये॑ गृ॒हप॑तये॒ स्वाहा॒ सोमा॑य॒ वन॒स्पत॑ये॒ स्वाहा म॒रुता॒मोज॑से॒ स्वाहेन्द्र॑स्येन्द्रि॒याय॒ स्वाहा॑। पृथि॑वि मात॒र्मा मा॑ हिꣳसी॒र्मोऽअ॒हं त्वाम्॥२३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्नये॑। गृहप॑तय॒ इति॑ गृहऽप॑तये। स्वाहा॑। सोमा॑य। वन॒स्पत॑ये। स्वाहा॑। म॒रुता॑म्। ओज॑से। स्वाहा॑। इन्द्र॑स्य। इ॒न्द्रि॒याय॑। स्वाहा॑। पृथि॑वि। मा॒तः॒। मा। मा॒। हि॒ꣳसीः॒। मोऽइति॒ मो। अ॒हम्। त्वाम् ॥२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्नये गृहपतये स्वाहा सोमाय वनस्पतये स्वाहा मरुतामोजसे स्वाहेन्द्रस्येन्द्रियाय स्वाहा । पृथिवि मातर्मा मा हिँसीर्मो अहन्त्वाम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्नये। गृहपतय इति गृहऽपतये। स्वाहा। सोमाय। वनस्पतये। स्वाहा। मरुताम्। ओजसे। स्वाहा। इन्द्रस्य। इन्द्रियाय। स्वाहा। पृथिवि। मातः। मा। मा। हिꣳसीः। मोऽइति मो। अहम्। त्वाम्॥२३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 10; मन्त्र » 23
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    भावार्थ - राजा इत्यादींनी प्रजेच्या हितासाठी व प्रजेने राजाच्या सुखासाठी झटावे. परस्परांनी सर्वांच्या उन्नतीसाठी कार्य करावे. मातेने आपल्या पुत्रांना वाईट शिक्षण व अज्ञान वाढविणारी अविद्या शिकवून सन्तानाची बुद्धी नष्ट करू नये. तसेच सन्तानांनी आपल्या आईचा कधी द्वेष करू नये.

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