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यजुर्वेद अध्याय - 10

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  • यजुर्वेद - अध्याय 10/ मन्त्र 23
    ऋषिः - वामदेव ऋषिः देवता - सूर्य्यो देवता छन्दः - जगती, स्वरः - निषादः
    316

    अ॒ग्नये॑ गृ॒हप॑तये॒ स्वाहा॒ सोमा॑य॒ वन॒स्पत॑ये॒ स्वाहा म॒रुता॒मोज॑से॒ स्वाहेन्द्र॑स्येन्द्रि॒याय॒ स्वाहा॑। पृथि॑वि मात॒र्मा मा॑ हिꣳसी॒र्मोऽअ॒हं त्वाम्॥२३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्नये॑। गृहप॑तय॒ इति॑ गृहऽप॑तये। स्वाहा॑। सोमा॑य। वन॒स्पत॑ये। स्वाहा॑। म॒रुता॑म्। ओज॑से। स्वाहा॑। इन्द्र॑स्य। इ॒न्द्रि॒याय॑। स्वाहा॑। पृथि॑वि। मा॒तः॒। मा। मा॒। हि॒ꣳसीः॒। मोऽइति॒ मो। अ॒हम्। त्वाम् ॥२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्नये गृहपतये स्वाहा सोमाय वनस्पतये स्वाहा मरुतामोजसे स्वाहेन्द्रस्येन्द्रियाय स्वाहा । पृथिवि मातर्मा मा हिँसीर्मो अहन्त्वाम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्नये। गृहपतय इति गृहऽपतये। स्वाहा। सोमाय। वनस्पतये। स्वाहा। मरुताम्। ओजसे। स्वाहा। इन्द्रस्य। इन्द्रियाय। स्वाहा। पृथिवि। मातः। मा। मा। हिꣳसीः। मोऽइति मो। अहम्। त्वाम्॥२३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 10; मन्त्र » 23
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ माताऽपत्यानि परस्परं कीदृशं संवदेयुरित्याह॥

    अन्वयः

    हे प्रजाजनाः! यथा राजजना वयं गृहपतयेऽग्नये स्वाहा सोमाय वनस्पतये स्वाहा मरुतामोजसे स्वाहेन्द्रस्येन्द्रियाय स्वाहा चरेम तथा यूयमप्याचरत। हे पृथिवि मातः! त्वं मा मा हिंसीस्त्वामहं च मो हिंस्याम्॥२३॥

    पदार्थः

    (अग्नये) धर्मविज्ञानाढ्याय (गृहपतये) गृहाश्रमस्वामिने (स्वाहा) सत्यां नीतिम् (सोमाय) सोमलताद्यायौषधिगणाय (वनस्पतये) वनानां पालकायाश्वत्थप्रभृतये (स्वाहा) वैद्यकशास्त्रबोधजनितां क्रियाम् (मरुताम्) प्राणानामृत्विजां वा (ओजसे) बलाय (स्वाहा) योगशान्तिदां वाचम् (इन्द्रस्य) जीवस्य (इन्द्रियाय) नेत्राद्याय अन्तःकरणाय वा (स्वाहा) सुशिक्षायुक्तां वाचमुपदिष्टिम् (पृथिवि) भूमिवत्पृथुशुभलक्षणे (मातः) मान्यकर्त्रि जननि (मा) निषेधे (मा) माम् (हिंसीः) कुशिक्षया मा हिंस्याः (मो) (अहम्) (त्वाम्)॥ अयं मन्त्रः (शत॰ ५.४.३.१५-२१) व्याख्यातः॥२३॥

    भावार्थः

    राजादिराजजनैः प्रजाहिताय प्रजाजनैरेतेषां सुखाय सर्वस्योन्नतये च परस्परं वर्त्तितव्यम्। माता कुशिक्षयाऽविद्यादानेन स्वसन्तानान् नष्टबुद्धीन् कदाचिन्न कुर्य्यात्, सन्तानाश्च मातुरप्रियं नाचरेयुः॥२३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब माता और पुत्र आपस में कैसे सम्वाद करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे प्रजा के मनुष्यो! जैसे राजा और राजपुरुष हम लोग (गृहपतये) गृहाश्रम के स्वामी (अग्नये) धर्म और विज्ञान से युक्त पुरुष के लिये (स्वाहा) सत्यनीति (सोमाय) सोमलता आदि ओषधि और (वनस्पतये) वनों की रक्षा करनेहारे पीपल आदि के लिये (स्वाहा) वैद्यक शास्त्र के बोध से उत्पन्न हुई क्रिया (मरुताम्) प्राणों वा ऋत्विज लोगों के (ओजसे) बल के लिये (स्वाहा) योगाभ्यास और शान्ति की देने हारी वाणी और (इन्द्रस्य) जीव के (इन्द्रियाय) मन इन्द्रिय के लिये (स्वाहा) अच्छी शिक्षा से युक्त उपदेश का आचरण करते हैं, वैसे ही तुम लोग भी करो। हे (पृथिवि) भूमि के समान बहुत से शुभ लक्षणों से युक्त (मातः) मान्य करने हारी जननी! तू (मा) मुझ को (मा) मत (हिंसीः) बुरी शिक्षा से दुःख दे और (त्वाम्) तुझ को (अहम्) मैं भी (मो) न दुःख देऊं॥२३॥

    भावार्थ

    राजा आदि राजपुरुषों को प्रजा के हित, प्रजापुरुषों को राजपुरुषों के सुख और सब की उन्नति के लिये परस्पर वर्त्तना चाहिये। माता को योग्य है कि बुरी शिक्षा और मूर्खता रूप अविद्या देकर सन्तानों की बुद्धि नष्ट न करे और सन्तानों को उचित है कि अपनी माता के साथ कभी द्वेष न करें॥२३॥

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    विषय

    पारस्परिक अहिंसन

    पदार्थ

    देववात प्रार्थना करता है कि गत मन्त्र के अनुसार मैं अपने शरीर-रूप रथ की लगाम प्रभु के हाथों में सौंपनेवाला बनूँ, और अपनी इस जीवन-यात्रा में १. ( अग्नये ) = निरन्तर आगे बढ़ने के लिए तथा ( गृहपतये ) = इस शरीर-रूप गृह का उत्तम रक्षक बनने के लिए ( स्वाहा ) = उस प्रभु के प्रति अपना अर्पण करूँ। यह प्रभु के प्रति अर्पण मुझे ‘अग्नि’ बनाएगा। २. ( सोमाय ) = सौम्य स्वभाव का बनने के लिए अथवा सोम [ वीर्य ] शक्ति का पुञ्ज बनने के लिए और परिणामतः ( वनस्पतये ) = ज्ञान की रश्मियों का पति बनने के लिए ( स्वाहा ) = मैं उस प्रभु के प्रति अर्पण करता हूँ। यह प्रभु-अर्पण मुझे ‘सोम’ बनाएगा, यह प्रभु-अर्पण मुझे ‘वनस्पति’ बनाएगा। 

    ३. ( मरुताम् ) = प्राणों के ( ओजसे ) = ओज के लिए ( स्वाहा ) = मैं उस प्रभु के प्रति अपना अर्पण करता हूँ, अर्थात् प्रभु-चरणों में बैठना मुझे वासनाओं से बचाकर ओजस्वी बनाता है, मैं प्राणशक्ति-सम्पन्न होता हूँ। 

    ४. ( इन्द्रस्य ) = जितेन्द्रिय पुरुष की ( इन्द्रियाय ) =  प्रत्येक इन्द्रिय की शक्ति-सम्पन्नता के लिए ( स्वाहा ) = मैं प्रभु के प्रति अपना अर्पण करता हूँ। 

    ५. ( मा ) = इस अर्पण करनेवाले मुझको हे ( पृथिवि मातः ) = मातृतुल्य पृथिवि! ( मा हिंसीः ) = मत हिंसित कर। यद्यपि शरीर पञ्चभौतिक है तथापि पृथिवीतत्त्व की प्रधानता के कारण इसे पार्थिव कहने की परिपाटी है, अतः उस पृथिवीतत्त्व को ही मुख्यता देते हुए कहते हैं कि तू मेरे अनुकूल हो। ( उ ) = और ( अहम् ) = मैं ( त्वाम् ) = तुझे ( मा ) = मत हिंसित करूँ। मैं अतिभोजनादि व विषयासक्ति के कारण इस पार्थिव शरीर को विकृत करनेवाला न होऊँ। प्रभु के प्रति अर्पण का यह परिणाम तो होगा ही। उस ‘महान् देव’ प्रभु से निरन्तर प्रेरणा [ वात ] प्राप्त करके यह ‘देववात’ निश्चित रूप से ही अहिंसित होगा।

    भावार्थ

    भावार्थ — ‘हम अग्नि, गृहपति, सोम, ज्ञानी, ओजस्वी व इन्द्र’ बनें।

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    विषय

    राजा की प्रतिष्ठा ।

    भावार्थ

    ( गृहपतये ) गृहों के पालक या गृह के समान राज्य के पति (अग्नये) अग्नि, अग्रणी या विद्वान् पुरुष का ( स्वाहा ) हम आदर करें। ( वनस्पतये सोमाय स्वाहा ) वन= सेना समूह के पालक सोम राजा का हम आदर सत्कार करें। ( मरुताम् ) शत्रु को मारने में समर्थ, वायु के समान तीव्रगामी भटों के ( ओजसे ) बल के लिये ( स्वाहा ) हम अन् धनादि को प्रदान करें | ( इन्द्रस्य ) ऐश्वर्यवान् राजा के ( इन्द्रियाय ) बल का हम आदर करें। राजा भी प्रजाजन से कहे - हे ( पृथिवि मातः) रामः पृथिवी ! पृथिवीवासी जन ! ( भा) मुझको तू ( माहिंसी: ) विनाश मत कर । और ( अहम् ) मैं ( त्वाम् ) तुझको भी ( मा ) न विनाश करूं । प्रजावासी लोग गृहों के पालक, तेजस्वी, सेनाओं के पालक और बलवान् ऐश्वर्यवान् राजा का आदर करें। वह प्रजा का नाश न करे और प्रजा उसका नाश न करे । इसी प्रकार सामान्यतः भी पुत्र माता को कष्ट न दे । माता पुत्र को कष्ट न दे । विद्वान् गृहपति, वनस्पति आदि सोम ओषधि, प्राणों और विद्वानों और केवल इन्द्र, जीव के इन्द्रियों का उनकी उत्तम विद्या के अनुकूल उपयोग लें ॥ शत० ५ । ४ । ३ । १६-२० ॥

    टिप्पणी

    ० स्वाहा मरुतामोजसे स्वाहा । इति काण्व०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    लिङ्गोक्ता अग्न्यादयो देवताः । जगती । निषादः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    राजा इत्यादींनी प्रजेच्या हितासाठी व प्रजेने राजाच्या सुखासाठी झटावे. परस्परांनी सर्वांच्या उन्नतीसाठी कार्य करावे. मातेने आपल्या पुत्रांना वाईट शिक्षण व अज्ञान वाढविणारी अविद्या शिकवून सन्तानाची बुद्धी नष्ट करू नये. तसेच सन्तानांनी आपल्या आईचा कधी द्वेष करू नये.

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    विषय

    यानंतर माता आणि पुत्र यांनी एकमेकाशी कसा संवाद वा आचरण ठेवावे, याविषयी-

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे प्रजाजन हो, आम्ही राजा आणि राजपुरुष ज्याप्रमाणे (गृह्यतये) गृहाश्रमाच्या स्वामीकरिता आणि (अग्नये) धार्मिक व विज्ञानयुक्त मनुष्याकरिता (स्वाहा) सत्यनीतीचा प्रयोग करतो (खरेपणाने वागतो) तसेच आम्ही (सोमाय) सोमलता आदी औषधीकरिता व (वनस्पतये) वनांचे रक्षण करणार्‍या पिंपळ आदी वृक्षाकरिता (स्वाहा) वैद्यकशास्त्राने शोधलेल्या पद्धतीप्रमाणे प्रयोग करतो (त्या वनस्पतीपासून लाभ घेतो,) त्याप्रमाणे हे प्रजाजनहो, तुम्हीही लाभ घ्या. (मकताम्) ज्याप्रमाणे आम्ही प्राणांकरिता वा ऋत्विज लोकांकरिता आणि (ओजसे) बलप्राप्तीकरिता (स्वाहा) योगाभ्यासाचा व शान्तिदायक वाणीचा उपयोग करतो आणि (इन्द्रस्य) जीवात्म्याच्या (इन्द्रियाथ) मन इंद्रियाकरिता (स्वाहा) हितकारी ज्ञानाचा उपदेश करतो आणि तसे वागतोही, त्याप्रमाणे तुम्ही लोकदेखील करीत जा. हे (पृथिवी) भूमीप्रमाणे शुभ-लक्षणांनी मुक्त (माता) वंदनीया माता, तू (मा) मला (तुझ्यापुत्राला) (मा) (हिंसी) वाईट शिक्षण व संस्कार देऊन दु:ख देऊ नकोस. तसेच (अहम्) मी देखील (त्वा) तुला (मो) दु:खी करू नये ॥23॥

    भावार्थ

    भावार्थ - राजा आणि राजपुरुषांनी प्रजेच्या हिताकरिता तसेच प्रजेने राजा आणि राजपुरुषांच्या हिताकरिता, एकमेकास सुखी करण्याकरिता व एकमेकाच्या उन्नतीकरिता झटले पाहिजे. प्रत्येक मातेस उचित आहे की तिने आपल्या संततीला वाईट शिकवण देऊन, वा अविद्यारुप मुर्खत्व देऊन त्याची बुद्धि विकृत करू नये. तसेच मातेच्या संतानांचेही कर्तव्य आहे की त्यानी कदापि स्वत:च्या आईचा द्वेष करू नये. ॥23॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    We should behave righteously towards the religious-minded and learned householder, derive medical benefit from herbs and trees, inculcate the practice of yoga for the vigour of the priests, follow noble instructions for the improvement of physical organs controlled by the soul. O mother endowed with noble qualities like the Earth, dont injure me by wrong instructions. May I never injure thee.

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    Meaning

    Ruler and chiefs of the nation, provide and promote for agni, the enlightened householder, a true policy of value and virtue; for soma, herbs and trees, forestry and knowledge of Botany; for the strength, energy and lustre of the most dynamic people (maruts), yoga and peace-giving words; for the honour of Indra, ruler, right conduct and good reading; for the working efficiency of the soul (Indra), good instruction and practice. Mother earth, hurt me not. Nor shall I hurt you. Mother mine, ruin me not with wrong instruction. Nor must I hurt you (with ingratitude).

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    Translation

    I dedicate to the fire, the lord of the household. (1) I dedicate to moon, the lord of the vegetation. (2) I dedicate to the vigour of the cloud-bearing winds. (3) І dedicate to the might of the thunder. (4) О mother earth, may you never injure me, nor may I injure уоu. (5)

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ মাতাऽপত্যানি পরস্পরং কীদৃশ্যং সংবদেয়ুরিত্যাহ ॥
    এখন মাতা ও পুত্র পরস্পর কীভাবে সংবাদ করিবে এই বিষয়ে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে প্রজাগণ ! যেমন রাজা ও রাজপুরুষ আমরা (গৃহপতয়ে) গৃহাশ্রমের স্বামী (অগ্নয়ে) ধর্ম ও বিজ্ঞান যুক্ত পুরুষের জন্য (স্বাহা) সত্যনীতি (সোমায়) সোমলতাদি ওষধি এবং (বনস্পতয়ে) বনের রক্ষক অশ্বত্থ ইত্যাদির জন্য (স্বাহা) বৈদ্যক শাস্ত্রের বোধজনিত ক্রিয়া (মরুতাম্) প্রাণ ও ঋত্বিজ লোকদের (ওজসে) বলহেতু (স্বাহা) যোগাভ্যাস ও শান্তিদায়ক বাণী এবং (ইন্দ্রস্য) জীবের (ইন্দ্রিয়ায়) মন ইন্দ্রিয়ের জন্য (স্বাহা) সুশিক্ষা দ্বারা যুক্ত উপদেশের আচরণ করি সেইরূপ তোমরাও কর । হে (পৃথিবি) ভূমি সমান বহু শুভ লক্ষণযুক্ত (মাতঃ) মান্যকর্ত্রী জননী । তুমি (মা) আমাকে (মা) না (হিংসী) কুশিক্ষা দ্বারা দুঃখদান কর এবং (ত্বাম্) তোমাকে (অহম্) আমিও (মো) দুঃখ না দিই ॥ ২৩ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- রাজাদি রাজপুরুষদিগকে প্রজার হিত, প্রজা-পুরুষদিগকে রাজপুরুষদিগের সুখ এবং সকলের উন্নতির জন্য পরস্পর ব্যবহার করা উচিত । মাতার কর্ত্তব্য যে, কুশিক্ষা ও মূর্খতারূপ অবিদ্যা দান করিয়া সন্তানদের বুদ্ধি নষ্ট করিবেন না এবং সন্তানদিগের উচিত যে, স্বীয় মাতার সহিত কখনও দ্বেষ করিবে না ॥ ২৩ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অ॒গ্নয়ে॑ গৃ॒হপ॑তয়ে॒ স্বাহা॒ সোমা॑য়॒ বন॒স্পত॑য়ে॒ স্বাহা ম॒রুতা॒মোজ॑সে॒ স্বাহেন্দ্র॑স্যেন্দ্রি॒য়ায়॒ স্বাহা॑ । পৃথি॑বি মাত॒র্মা মা॑ হিꣳসী॒র্মোऽঅ॒হং ত্বাম্ ॥ ২৩ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অগ্নয় ইত্যস্য দেববাত ঋষিঃ । অগ্ন্যায়ো মন্ত্রোক্তা দেবতাঃ । জগতী ছন্দঃ ।
    নিষাদঃ স্বরঃ ॥

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