यजुर्वेद - अध्याय 10/ मन्त्र 6
ऋषिः - वरुण ऋषिः
देवता - आपो देवताः
छन्दः - स्वराट ब्राह्मी बृहती,
स्वरः - मध्यमः
108
प॒वित्रे॑ स्थो वैष्ण॒व्यौ सविर्तुवः॑ प्रस॒वऽउत्पु॑ना॒म्यच्छि॑द्रेण प॒वित्रे॑ण॒ सूर्य॑स्य र॒श्मिभिः॑। अनि॑भृष्टमसि वा॒चो बन्धु॑स्तपो॒जाः सोम॑स्य दा॒त्रम॑सि॒ स्वाहा॑ राज॒स्वः॥६॥
स्वर सहित पद पाठप॒वित्रे॒ऽइति॑ प॒वित्रे॑। स्थः॒। वै॒ष्ण॒व्यौ᳖। स॒वि॒तुः। वः॒। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। उत्। पु॒ना॒मि॒। अच्छि॑द्रेण। प॒वित्रे॑ण। सूर्य॑स्य। र॒श्मिभि॒रिति॑ र॒श्मिऽभिः॑। अनि॑भृष्ट॒मित्यनि॑ऽभृष्टम्। अ॒सि॒। वा॒चः। बन्धुः॑। त॒पो॒जा इति॑ तपः॒ऽजाः। सोम॑स्य। दा॒त्रम्। अ॒सि॒। स्वाहा॑। रा॒ज॒स्व᳖ इति॑ राज॒ऽस्वः᳖ ॥६॥
स्वर रहित मन्त्र
पवित्रे स्थो वैष्णव्यौ सवितुर्वः प्रसव ऽउत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रेण सूर्यस्य रश्मिभिः । अनिभृष्टमसि वाचो बन्धुस्तपोजाः सोमस्य दात्रमसि स्वाहा राजस्वः ॥
स्वर रहित पद पाठ
पवित्रेऽइति पवित्रे। स्थः। वैष्णव्यौ। सवितुः। वः। प्रसव इति प्रऽसवे। उत्। पुनामि। अच्छिद्रेण। पवित्रेण। सूर्यस्य। रश्मिभिरिति रश्मिऽभिः। अनिभृष्टमित्यनिऽभृष्टम्। असि। वाचः। बन्धुः। तपोजा इति तपःऽजाः। सोमस्य। दात्रम्। असि। स्वाहा। राजस्व इति राजऽस्वः॥६॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
यथा कुमारा ब्रह्मचर्येण विद्या गृह्णीयुस्तथैव कुमार्योऽपि पठेयुरित्याह॥
अन्वयः
हे सभेश राजन्! यतस्त्वं वाचो निभृष्टं बन्धुरसि सोमस्य दात्रं तपोजा असि। तवाज्ञया सवितुः प्रसवे वैष्णव्यौ पवित्रे स्थः। हे अध्यापकपरिचारिका अध्येत्र्यश्च स्त्रियः! यथाहं सवितुः प्रसवे सूर्य्यस्य रश्मिभिरिवाच्छिद्रेण पवित्रेण व उत्पुनामि तथा यूयं स्वाहा राजस्वो भवत॥६॥
पदार्थः
(पवित्रे) शुद्धाचरणे (स्थः) स्याताम् (वैष्णव्यौ) सकलविद्या सुशिक्षाशुभगुणस्वभावव्यापिनौ (सवितुः) सकलजगत्प्रसवितुरीश्वरस्य (वः) युष्मान् ब्रह्मचारिणीर्विद्यार्थिनीः कुमारिकाः (प्रसवे) प्रसूतेऽस्मिन् जगति (उत्) उत्कृष्टतया (पुनामि) पवित्रीकरोमि (अच्छिद्रेण) अविच्छिन्नेन निरन्तरेण (पवित्रेण) विद्यासुशिक्षाजितेन्द्रियत्वब्रह्मचर्यादिभिः पवित्रीकारकेण व्यवहारेण (सूर्य्यस्य) अर्कस्य (रश्मिभिः) किरणैरिव (अनिभृष्टम्) नित्यं भृष्टं पापरहितमाचरितवान् (असि) (वाचः) वेदवाण्याः (बन्धुः) भ्राता (तपोजाः) ब्रह्मचर्यादितपसा जातः (सोमस्य) ओषधिगणस्य (दात्रम्) दाति रोगान् येन तद्वान् (असि) (स्वाहा) सत्यक्रियया (राजस्वः) राजवीरप्रसविकाः॥ अयं मन्त्रः (शत॰ ५। ३। ५। १६-१८) व्याख्यातः॥६॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे राजादयो राजपुरुषाः! यूयमस्मिन् जगति यथा कुमाराध्यापने सज्जना नियुज्यन्ते, तथा पवित्रविद्यापरीक्षाकारिकाः स्त्रियः कन्यानामध्यापने नियुङ्ग्ध्वम्। यत एत इमाश्च विद्यासुशिक्षाः प्राप्य युवत्यः सत्यः स्वसदृशैः प्रियैर्वरैः पुरुषैः सह स्वयंवरं विवाहं कृत्वा वीरपुरुषान् जनयेयुः॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
जैसे कुमार पुरुष ब्रह्मचर्य्य से विद्या ग्रहण करें, वैसे कन्या भी पढ़े, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे सभापति राजपुरुष! जिस लिये आप (वाचः) वेदवाणी के (अनिभृष्टम्) भृष्टतारहित आचरण के लिये (बन्धुः) भाई (असि) हैं, (सोमस्य) ओषधियों के काटने वाले (तपोजाः) ब्रह्मचर्य्यादि तप से प्रसिद्ध (असि) हैं, आप की आज्ञा से (सवितुः) सब जगत् को उत्पन्न करनेहारे ईश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न हुए जगत् में (वैष्णव्यौ) सब विद्या, अच्छी शिक्षा, शुभ गुण, कर्म और स्वभाव में व्यापनशील और (पवित्रे) शुद्ध आचरणवाली (स्थः) तुम दोनों हो। हे पढ़ाने, परीक्षा करने और पढ़नेहारी स्त्री लोगो! मैं (सवितुः) ईश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न किये इस जगत् में (सूर्य्यस्य) सूर्य्य की (रश्मिभिः) किरणों के समान (अच्छिद्रेण) छेदरहित (पवित्रेण) विद्या, अच्छी शिक्षा, धर्मज्ञान, जितेन्द्रियता और ब्रह्मचर्य्य आदि करके पवित्र किये हुए से (वः) तुम लोगों को (उत्पुनामि) अच्छे प्रकार पवित्र करता हूं, तुम लोग (स्वाहा) सत्य क्रिया से (राजस्वः) राजाओं में वीरों को उत्पन्न करने वाली हो॥६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे राजा आदि पुरुषो! तुम लोग इस जगत् में कन्याओं को पढ़ाने के लिये शुद्धविद्या की परीक्षा करने वाली स्त्री लोगों को नियुक्त करो, जिससे ये कन्या लोग विद्या और शिक्षा को प्राप्त होके जवान हुई प्रिय वर पुरुषों के साथ स्वयंवर विवाह करके वीर पुरुषों को उत्पन्न करें॥६॥
विषय
राष्ट्र के ‘स्त्री-पुरुष’
पदार्थ
राष्ट्र के स्त्री-पुरुषों को सम्बोधित करके पुरोहित कहता है कि १. ( पवित्रे स्थः ) = आप पवित्र जीवनवाले, ( वैष्णव्यौ ) = व्यापक मनोवृत्तिवाले हो। वस्तुतः इस व्यापक मनोवृत्ति का ही परिणाम है कि वे पवित्र हैं। व्यापकता में ही पवित्रता है, संकोच में अपवित्रता।
२. ( सवितुः ) = उस प्रेरक प्रभु की ( प्रसवे ) = अनुज्ञा में ( वः ) = तुम्हें ( उत् पुनामि ) = विषयों से ( उत् ) = out = बाहर करता हुआ पवित्र करता हूँ। मैं वेद में दिये गये प्रभु के आदेशों के अनुसार व्यवस्था करता हुआ तुम्हारे जीवनों को उज्ज्वल करता हूँ।
३. ( अच्छिद्रेण पवित्रेण ) = छेदशून्य— कहीं भी खाली स्थान न रखनेवाली इस वायु से तथा ( सूर्यस्य रश्मिभिः ) = सूर्य-किरणों से मैं तुम्हें पवित्र करता हूँ, अर्थात् लोगों के रहने का प्रकार ऐसा हो कि उनके घरों में वायु का पर्याप्त आना-जाना हो और सूर्य-किरणों का खूब प्रवेश हो। ऐसे ही घरों में नीरोगता रहती है।
४. ( अनिभृष्टम् असि ) = [ अनाधृष्टाः—उ० ] तुम किसी भी प्रकार के रोगों से पराभूत नहीं होते हो।
५. ( वाचो बन्धुः ) = वाणी के तुम बन्धु हो। वेदवाणी को पढ़कर उसे अपने कार्यों में व्यक्त करनेवाले हो। इस प्रकार वेदवाणी को जीवन से बाँधनेवाले हो।
६. ( तपोजाः ) = तप के द्वारा तुम अपना प्रादुर्भाव—विकास करनेवाले हो।
७. ( सोमस्य दात्रम् असि ) = सोम की दराँतीवाले हो। शरीर में सुरक्षित सोम रोगों व द्वेषादि भावों को काटनेवाला होता है।
८. ( स्वाहा ) = तुम राष्ट्र के लिए ( स्व ) = अपने धन का ( हा ) = त्याग करनेवाले हो।
९. ( राजस्वः ) = तुम राजा को जन्म देनेवाली हो। वस्तुतः उल्लिखित गुणों से सम्पन्न प्रजाएँ ही राजा का ठीक चुनाव कर सकती हैं।
भावार्थ
भावार्थ — राष्ट्र का प्रत्येक स्त्री-पुरुष पवित्र बनने का प्रयत्न करे।
विषय
राजोत्पादक प्रजाएं ।
भावार्थ
दोनों राजा का अहे स्त्री पुरुषो ! दोनों प्रकार की प्रजाओ ! तुम ( पवित्रे ) पवित्र, शुद्धाचरणवाली ( स्थः ) होकर रहो। तुम दोनों (वैष्णव्यौ ) समस्त विद्याओं में निष्णात होवो। अथवा ( वैष्णव्यौ ) राष्ट्र की व्यापक राज शक्ति के मुख्य अंग होवो | ( वः ) तुम दोनों को ( सवितुः ) सर्वोत्पादक परमेश्वर और सर्वप्रेरक राजा के ( प्रसवे ) बनाये ऐश्वर्यमय जगत् और राजा के राज्य में ( अच्छिद्रेण ) छिद्र या त्रुटि रहित ( पवित्रेण ) शुद्ध पवित्र, ब्रह्मचर्य, विद्या, शिक्षा आदि के आचार व्यवहार द्वारा ( उत्पु- नामि ) पवित्राचारवान् करके उन्नत करूं। और ( सूर्यस्य रश्मिभिः ) सूर्य की किरणों से शुद्ध पवित्र होकर जल जिस प्रकार ऊर्ध्व आकाश में जाता है उसी प्रकार में भी शुद्ध उत्तम शिक्षा आदि द्वारा अपनी प्रजाओं को शुद्ध आचारवान् करके उद्धृत पद को पहुंचाऊँ । हे राष्ट्र और राष्ट्रवासी प्रजाओ ! तुम ( अनिभृष्टम् असि ) शत्रु और दुष्ट पुरुषों से कभी सताए न जाओ। और तुम ( वाचः बन्धुः ) वाणी द्वारा परस्पर प्रियभाषण करते हुए एक दूसरे को बन्धु समान प्रेम में बद्ध होकर रहो । आप लोग (तपोजाः ) तप, ब्रह्मचर्य, विद्याध्ययन आदि तपों द्वारा अपने को बढ़ाओ और परिपक्क वीर्यों से सन्तान उत्पन्न करो। आप लोग ( सोमस्य ) सोम अर्थात् राजा के पद को ( दात्रम् ) प्रदान करने में समर्थ ( असि ) हो । ( स्वाहा ) इसी कारण अपने इस सत्याचरण और व्यवहार से आप ( राजस्वः ) राजा को उत्पन्न करने में समर्थ हो । शत० ५। ३ । ५ । १४ ॥ राजा, स्त्री पुरुष दोनों प्रजाओं को उन्नत करे। दोनों तपश्चर्यों करें, बल बढ़ावें और राज्य कार्यों में भाग लेंभिषेक करें ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वरुण ऋषिः । आपो देवताः । स्वराड् ब्राह्मी बृहतीः । मध्यमः ॥
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजांनो मुलींना शिकविण्यासाठी सत्य विद्येची परीक्षा करणाऱ्या स्त्रियांची नियुक्ती करा, ज्यामुळे मुलींना विद्या व शिक्षण मिळेल व तरुणपणी प्रिय अशा व्यक्तीशी (स्वयंवर) विवाह करता येईल व वीर पुरुषांना जन्म देता येईल.
विषय
ज्याप्रमाणे कुमारवयातील पुरुषांनी ब्रह्मचर्य धारण करीत विद्या ग्रहण केली पाहिजे, तसेच कुमारी कन्यांनी देखील (ब्रह्मचारिणी राहून) विद्या ग्रहण केली पाहिजे, याविषयी :-
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (सभापतीला उद्देशून विद्वान आचार्याचे वचन) हे सभापती राजपुरुष ज्याप्रमाणे आपण (वाच:) वेदवाणीचे (अनिभृष्टम्) भ्रष्टतारहित आचरण करणारे (वेदोक्त पद्धतीने कर्म व आचरण करणारे) (बन्धु:) आमचे बंधु (सहायक) आहात, तसेच (सोमस्य) सोम आदी गुणकारक औषधींद्वारे (दात्रम्) रोगांचा नायनाट करणारे आत्रण (तपोजा:) ब्रह्मचर्य आदी तपांनी युक्त असे प्रसिद्ध (असि) आहात. त्याप्रमाणेच आपल्या आज्ञेने आणि (सवितु:) सर्वजगदुत्पादक परमेश्वराने (प्रसवे) उत्पन्न केलेल्या या जगात (वैष्णन्यौ) सर्व विद्या, उत्तम शिक्षा, शुभ गुणकर्म व स्वभाव, यांमधे, रममाण असणारे ब्रह्मचारी आणि (पवित्रे) शुद्ध आचरण असणार्या ब्रह्मचारिणी कुमारिका असे दोघे आहेत. हे अध्यापन करणार्या आचार्या महोदय, परीक्षा घेणार्या महोदया आणि हे शिक्षण घेणार्या विद्यार्थिनीनों, मी (आचार्य) (सवितु:) ईश्वराने (प्रसवे) उत्पन्न केलेल्या या जगात (सूर्य्यस्थ) सूर्याच्या (रश्मिभि:) किरणांप्रमाणे (अच्छिद्रेण) छिद्र वा दोषरहित आणि (पवित्रेण) विद्या, व सुशिक्षा, धर्मज्ञान, जितेंद्रियत्व आणि ब्रह्मचर्य आदीद्वारा तुम्हाला पवित्र करून (व:) तुम्हा (विद्यार्थिनी व आचार्याला) (उत्पुनाभि) आणखी चांगल्याप्रकारे पवित्र करीत आहे. तुम्ही (स्वाहा) सत्याचरणाद्वारे (राजस्व:) वीर राजांना जन्म देणार्या व्हा. ॥6॥^(संस्कृत भावार्थामध्ये स्वामीजीनीं स्पष्ट म्हटले आहे की ज्याप्रमाणे कुमारांच्या अध्यापनासाठी सज्जन पुरुष नेमले जातात, तद्वत कन्यांना शिक्षण देण्यासाठी पवित्र विद्या परीक्षा कारिका स्त्रिया नेमाव्यात - अनुवादक)
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. हे राजा आदी राजपुरुषहो, तुम्ही या जगात (आपल्या राज्यात) कन्यांना शिकविण्यसाठी शुद्धाचरणयुक्त विद्यावती आणि नीट परीक्षा अभ्यास करून ज्ञान देणार्या शिक्षिका नियुक्त करा की ज्यामुळे या कन्या विद्या-ज्ञान प्राप्त करून युवती होऊन त्यांना प्रिय असलेल्या पुरुषासह स्वयंवर विवाह करून शूरवीर पुत्रांना जन्म देतील ॥6॥
टिप्पणी
(टिप :- 1) या मंत्राच्या हिंदीभाष्यात ‘दात्रम्’ हा शब्द आणि त्याचा अर्थ द्यायचा राहून गेला आहे. संस्कृत भाष्यांच्या आधारे तो अर्थ योग्य त्या स्थानी दिला आहे व तो चिन्हांकित केला आहे. ॥ संस्कृत अर्थ-दात्रम्=दाति रोगान् येनतद्वान्॥^2) तसेच या मंत्राच्या हिंदी भाष्यात ’सवितु:प्रसवे’ हे दोन शब्द दोनदा आले आहेत, पण मंत्रात एकदाच आहेत. बहुतेक मुद्रण दोषामुळे वरील दोन प्रकार झाले असावेस.)
इंग्लिश (3)
Meaning
O King, thou art the flawless friend of the Vedas. Thou, with the use of disease healing herbs, leadest the life of a Brahmchari. In this world created by God, ye, male and female students, engaged in study, lead a life of high morals I purify ye, like the beams of the sun, with your unbroken pledge of celibacy. Ye are the producers of brave Kings in a nice way.
Meaning
Ruler of the land/President of the council, free from pollution of mind and character, seasoned and tempered in the discipline of austerity, dedicated as a brother to the sacred voice of knowledge, you are an instrument of Soma, nature’s power of health and growth. Both of you (ruler and people, teachers and students, boys as well as girls), endowed with universal virtues of mind and character, stay pure and unsullied. In this holy world of Lord Savita’s creation, I sanctify you all with a ceaseless flow of the purest rays of the sun and the light of higher knowledge. Act in truth of word and deed and create noble heroes for the nation.
Translation
Both of you are purifier belonging to omnipresent Lord. (1) By the impulsion of the creator God, I purify you with the rays of the sun, as if, with a strainer without pores. (2) You are unconquered by evil ones. You are correlated with the speech and born of austerity. You are bestowers of bliss. Svaha. You are producers of king. Svaha(3)
Notes
Anibhrstam, unconquered (by evil ones). Somasya datram, bestowers of bliss (soma). Rajasvah, creators of king.
बंगाली (1)
विषय
য়থা কুমারা ব্রহ্মচর্য়েণ বিদ্যা গৃহ্ণীয়ুস্তথৈব কুমার্য়োऽপি পঠেয়ুরিত্যাহ ॥
যেমন কুমার পুরুষ ব্রহ্মচর্য্য দ্বারা বিদ্যা গ্রহণ করিবে সেইরূপ কন্যাও পড়িবে । এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে সভাপতি রাজপুরুষ ! যে হেতু আপনি (বাচঃ) বেদবাণীর (অনিভৃষ্টম্) ভৃষ্টতারহিত আচরণ কৃত (বন্ধুঃ) বন্ধু (অসি) আছেন । (সোমস্য) ওষধিগুলির কর্ত্তনকারী (তপোজাঃ) ব্রহ্মচর্য্যাদি তপ দ্বারা প্রসিদ্ধ (অসি) আছেন । আপনার আজ্ঞায় (সবিতুঃ) সব জগতের উৎপন্নকর্ত্তা ঈশ্বরের (প্রসবে) উৎপন্ন এই জগতে (বৈষ্ণব্যৌ) সকল বিদ্যা সুশিক্ষা, শুভ গুণ-কর্ম ও স্বভাবে ব্যাপনশীল এবং (পবিত্রে) শুদ্ধ আচরণকারী (স্থঃ) তোমরা উভয়ে হও । হে পঠন-পাঠন ও পরীক্ষাকারিণী স্ত্রীগণ ! আমি (সবিতুঃ) ঈশ্বরের (প্রসবে) উৎপন্ন এই জগতে (সূর্য়্যস্য) সূর্য্যের (রশ্মিভিঃ) কিরণ-সম (অচ্ছিদ্রেণ) ছিদ্ররহিত (পবিত্রেণ) বিদ্যা, সুশিক্ষা, ধর্মজ্ঞান, জিতেন্দ্রিয়তা ও ব্রহ্মচর্য্যাদি করিয়া পবিত্র ব্যবহার দ্বারা (বঃ) তোমাদিগকে (উৎপুনামি) ভাল প্রকার পবিত্র করি । তোমরা (স্বাহা) সত্য ক্রিয়া দ্বারা (রাজস্বঃ) রাজাদের মধ্যে বীরদের উৎপন্নকারিণী হও ॥ ৬ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । হে রাজাদি রাজপুরুষগণ! আপনারা এই জগতে কন্যাদের পড়াইবার জন্য শুদ্ধ বিদ্যার পরীক্ষাকারিণী নারীদেরকে নিযুক্ত কর । যাহাতে এই সব কন্যাগণ বিদ্যা ও শিক্ষা প্রাপ্ত হইয়া যুবক প্রিয় বর পুরুষ দের সহ স্বয়ম্বর বিবাহ করিয়া বীর পুরুষদেরকে উৎপন্ন করে ॥ ৬ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
প॒বিত্রে॑ স্থো বৈষ্ণ॒ব্যৌ᳖ সবিতুর্বঃ॑ প্রস॒বऽউৎপু॑না॒ম্যচ্ছি॑দ্রেণ প॒বিত্রে॑ণ॒ সূর্য়॑স্য র॒শ্মিভিঃ॑ । অনি॑ভৃষ্টমসি বা॒চো বন্ধু॑স্তপো॒জাঃ সোম॑স্য দা॒ত্রম॑সি॒ স্বাহা॑ রাজ॒স্বঃ᳖ ॥ ৬ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
পবিত্রে স্থ ইত্যস্য বরুণ ঋষিঃ । আপো দেবতাঃ । স্বরাড্ ব্রাহ্মী বৃহতী ছন্দঃ । মধ্যমঃ স্বরঃ ॥
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