यजुर्वेद - अध्याय 10/ मन्त्र 17
ऋषिः - देवावात ऋषिः
देवता - यजमानो देवता
छन्दः - आर्षी पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
74
सोमस्य॑ त्वा द्यु॒म्नेना॒भिषि॑ञ्चाम्य॒ग्नेर्भ्राज॑सा॒ सूर्य॑स्य॒ वर्च॒सेन्द्र॑स्येन्द्रि॒येण॑। क्ष॒त्राणां॑ क्ष॒त्रप॑तिरे॒ध्यति॑ दि॒द्यून् पा॑हि॥१७॥
स्वर सहित पद पाठसोम॑स्य। त्वा॒। द्यु॒म्नेन॑। अ॒भि। सि॒ञ्चा॒मि॒। अ॒ग्नेः। भ्राज॑सा। सूर्य॑स्य। वर्च॑सा। इन्द्र॑स्य। इ॒न्द्रि॒येण॑। क्ष॒त्राणा॑म्। क्ष॒त्रप॑ति॒रिति॑ क्ष॒त्रऽप॑तिः। ए॒धि॒। अति॑। दि॒द्यून्। पा॒हि॒ ॥१७॥
स्वर रहित मन्त्र
सोमस्य त्वा द्युम्नेनाभिषिञ्चाम्यग्नेर्भ्राजसा सूर्यस्य वर्चसेन्द्रस्येन्दिण क्षत्राणाङ्क्षत्रपतिरेध्यति दिद्यून्पाहि ॥
स्वर रहित पद पाठ
सोमस्य। त्वा। द्युम्नेन। अभि। सिञ्चामि। अग्नेः। भ्राजसा। सूर्यस्य। वर्चसा। इन्द्रस्य। इन्द्रियेण। क्षत्राणाम्। क्षत्रपतिरिति क्षत्रऽपतिः। एधि। अति। दिद्यून्। पाहि॥१७॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
एतत्प्रवृत्तये कीदृशो राजाभिषेचनीय इत्याह॥
अन्वयः
हे प्रशस्तगुणकर्मस्वभावयुक्त राजन्! यथाऽहं यं त्वा त्वां सोमस्येव द्युम्नेनाग्नेरिव भ्राजसा सूर्य्यस्येव वर्चसेन्द्रस्येवेन्द्रियेण त्वाऽभिषिञ्चामि, तथा स त्वं क्षत्राणां क्षत्रपतिरत्येधि दिद्यून् पाहि॥१७॥
पदार्थः
(सोमस्य) चन्द्रस्येव (त्वा) (द्युम्नेन) यशःप्रकाशेन (अभि) आभिमुख्ये (सिञ्चामि) अधिकरोमि (अग्नेः) अग्नितुल्येन (भ्राजसा) तेजसा (सूर्य्यस्य) सवितुरिव (वर्चसा) अध्ययनेन (इन्द्रस्य) विद्युत इव (इन्द्रियेण) मनआदिना (क्षत्राणाम्) क्षत्रकुलोद्गतानाम् (क्षत्रपतिः) (एधि) भव (अति) (दिद्यून्) विद्याधर्मप्रकाशकान् व्यवहारान् (पाहि) सततं रक्ष॥ अयं मन्त्रः (शत॰ ५.४.२.२) व्याख्यातः॥१७॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्या यः सोमादिगुणयुक्तो विद्वान् जितेन्द्रियो जनो भवेत् तं राजत्वे स्वीकुर्वन्तु। स च राज्यं प्राप्यातिप्रवृद्धः सन् विद्याधर्मप्रकाशकान् राजप्रजाजनान् सततमतिवर्द्धयेत्॥१७॥
हिन्दी (3)
विषय
पूर्वोक्त कार्य्यों की प्रवृत्ति के लिये कैसे पुरुष को राज्याऽधिकार देना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे प्रशंसित गुण, कर्म और स्वभाव वाले राजा! जैसे मैं जिस तुझ को (सोमस्य) चन्द्रमा के समान (द्युम्नेन) यशरूप प्रकाश से (अग्नेः) अग्नि के समान (भ्राजसा) तेज से (सूर्य्यस्य) सूर्य्य के समान (वर्चसा) पढ़ने से और (इन्द्रस्य) बिजुली के समान (इन्द्रियेण) मन आदि इन्द्रियों के सहित (त्वा) आपको (अभिषिञ्चामि) राज्याधिकारी करता हूं, वैसे वे आप (क्षत्राणाम्) क्षत्रिय कुल में जो उत्तम हों, उनके बीच (क्षत्रपतिः) राज्य के पालनेहारे (अत्येधि) अति तत्पर हूजिये और (दिद्यून्) विद्या तथा धर्म का प्रकाश करनेहारे व्यवहारों की (पाहि) निरन्तर रक्षा कीजिये॥१७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जो शान्ति आदि गुणयुक्त जितेन्द्रिय विद्वान् पुरुष हैं, उसको राज्य का अधिकार देवें और उस राजा को चाहिये कि राज्याऽधिकार को प्राप्त हो अतिश्रेष्ठ होता हुआ विद्या और धर्म आदि के प्रकाश करनेहारे प्रजापुरुषों को निरन्तर बढ़ावे॥१७॥
विषय
सोम-अग्नि-सूर्य-इन्द्र
पदार्थ
१. राज्याभिषेक के समय राजा की चार विशेषताओं का विशेष रूप से ध्यान किया जाता है। पुरोहित कहता है कि ( त्वा ) = तुझे ( सोमस्य ) = चन्द्रमा के ( द्युम्नेन ) = यश से ( अभिषिञ्चामि ) = अभिषिक्त करता हूँ। चन्द्रमा के प्रकाश में जैसे दीप्ति व शान्ति का समन्वय है उसी प्रकार तेरी तेजस्विता ‘शक्ति व शान्ति’ के मेल से तुझे राज्याभिषेक के योग्य बनाती है। शक्ति के कारण तू अधृष्य है तो शान्ति के कारण तू अभिगम्य बना है।
२. ( अग्नेः ) = अग्नि की ( भ्राजसा ) = दीप्ति से ( त्वा ) = तुझे अभिषिक्त करता हूँ। तू स्वास्थ्य के कारण इस प्रकार चमकता है जैसे आग चमकती है।
३. ( सूर्यस्य वर्चसा ) = सूर्य-सदृश वर्चस् के कारण मैं तुझे अभिषिक्त करता हूँ। ‘प्राणः प्रजानामुदयत्येष सूर्यः’ = सूर्य प्राणशक्ति का पुञ्ज है, तुझमें भी प्राणशक्ति का पूर्ण विकास हुआ है, अतः तुझे राज्याभिषिक्त करता हूँ।
४. ( इन्द्रस्य इन्द्रियेण ) = इन्द्रियों का अधिष्ठाता होने से तू सब इन्द्रियों की शक्ति से सम्पन्न है, अतः तुझे राज्याभिषिक्त करता हूँ।
५. ( क्षत्राणां क्षत्रपतिः एधि ) = तू क्षत्रियों में क्षत्रियेश्वर है, बलवानों में बलवान् है। राष्ट्र को आघातों से बचानेवाला है।
६. ( दिद्यून् ) = इषुओं को, बाणों को, ( अति ) = लाँघकर ( पाहि ) = रक्षा कर, अर्थात् हे राजन्! तू शत्रुओं के बाणों से बचाकर हमें सुरक्षित कर।
भावार्थ
भावार्थ — राजा वही होने योग्य है जो चन्द्रमा के समान दीप्ति व शान्तिवाला है, अग्नि के समान स्वास्थ्य की दीप्तिवाला है, सूर्य के समान प्राणशक्ति का पुञ्ज है, जितेन्द्रिय पुरुष के बलवाला है। बलवानों से भी बलवान् है, राष्ट्र को सब आक्रमणों से बचाता है।
विषय
ऐश्वर्य और तेज से अभिषेक ।
भावार्थ
हे राजन ! वीर पुरुष ! ( त्वा) तुझको (सोमस्य ) सोम, सर्वप्रेरक सर्वश्रेष्ठ राजपद के योग्य ( द्युम्नेन ) यश और ऐश्वर्य से ( : ) अग्नि या अग्रणी नेता के ( भ्राजसा ) तेज से और ( सूर्यस्य वर्चसा ) सूर्य के तेज से और ( इन्द्रस्य इन्द्रियेण ) इन्द्र, विद्युत् या वायु के बल से (त्वा अभिपिञ्चामि ) तेरा अभिषेक करता हूं । हे अभिषिक्त राजन् ! तू ( क्षत्राणाम् ) वीर्यवान् क्षत्रियों, राजाओं का ( क्षत्रपति एधि क्षत्रपति राजाधिराज होकर रह । . ( . दिधून ) प्रजा के नाश करनेवाली सब विपत्तियों को ( अति) पार करके प्रजाओं को ( पाहि ) रक्षा कर । अथवा ( दिद्यून ) विद्या और धर्म के प्रकाश करनेवाले व्यवहारों और विद्वानों का ( अति पाहि ) सब कष्टों से पार करके भी रक्षा कर अथवा ( दिद्यून् ) बाण आदि शस्रत्रों की खूब ( पाहि ) रक्षा कर । उन पर पर्याप्त प्रतिबन्ध रख जिससे वे परस्पर हिंसा का कारण न हों ॥ शत० ५ । ४ । २ । २ ॥
टिप्पणी
० इन्द्रियेण मरुतामोजसा, क्षत्राणां । इति काण्व० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
क्षत्रपतिर्देवता । आर्षी पंक्तिः । पञ्चमः ॥
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी शांत, जितेन्द्रिय व विद्वान पुरुषाला राज्याचा अधिकार द्यावा. राजानेही राज्याधिकार प्राप्त झाल्यावर श्रेष्ठ बनून विद्या व धर्माचा प्रचार करावा आणि प्रजेची सदैव उन्नती करावी.
विषय
वर पूर्वी सांगितलेल्या कार्यांकडे प्रवृत्ती वाढावी, यासाठी कशा प्रकारच्या पुरुषाला राज्याचा अधिकार द्यवा, पुढील मंत्रात हे सांगितले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (आचार्य वा विद्वान राजाला उद्देशून म्हणत आहे) हे राजा, प्रशंसनीय गुण, कर्म आणि स्वभाव असलेल्या तुला मी (आचार्य) (सोमस्य) चंद्राप्रमाणे (घुम्नेन) यशरुप प्रकाशाने (संयुक्त करीत आहे) तुला (अग्ने:) अग्नीप्रमाणे (भ्रानसा) तेजाने आणि (सूर्य्यस्य) सूर्याप्रमाणे (वर्चसा) अध्ययताने (तीव्रता आणि प्रभावत याने) संयुक्त करीत आहे. तसेच मी तुला (इन्द्रस्य) विद्युताप्रमाणे (इन्द्रियेण) मन आणि इंद्रियांसह (पूर्ण सामर्थ्याने) (त्वा) तुला (अभिषिंचामि) राज्याधिकारी करीत आहे. माझ्याप्रमाणे तुम्ही (क्षत्राणाम्) क्षत्रियकुळात उत्पन्न झालेल्या मनुष्यांमधे (क्षत्रपति:) राज्याचे पालन करणारा श्रेष्ठ राजा या रुपात (अत्येधि) सदैव तत्पर रहा. तसेच विद्या आणि धर्माचा विकास करणारे जे कर्म वा योजना आहेत, त्यांचे तू (पाहि) रक्षण कर. (राज्यात क्षत्रियांचा आदर्श नेता हो आणि विद्या धर्म यांची उन्नती कर) ॥17॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. मनुष्यांना (प्रजाजनांना) पाहिजे की त्यांनी शान्ति आदी गुणयुक्त जितेंद्रिय आणि विद्वान पुरुषाला राज्याचा अधिकारी करावे. त्याचप्रमाणे राजासाठी ही आवश्यक आहे की त्याने राज्याधिकार मिळाल्यानंतर आणखी श्रेष्ठ होत विद्या आणि धर्माची उन्नती करणार्या प्रजाजनांना नेहमी प्रोत्साहित करावे आणि त्यांची वृद्धी करावी. ॥17॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O King I install thee with brilliance like the moon, lustre like the fire, splendour of knowledge like the sun, and the might of mind like the lightning, Be lord of princes. Guard constantly all acts conducive to knowledge and religion.
Meaning
I anoint and consecrate you as the ruler with the light and grace of the moon, the brilliance of fire, the glory of the sun, and the swiftness of sense and mind like the velocity of electricity. Ascend the throne of the republic to do more than justice to the seat of governance. Develop the missiles of defence and protect and promote knowledge, Dharma and prosperity of the nation.
Translation
I bathe you with the snine of the moon. (1) with the glare of the fire;(2) with the lustre of the sun,(3) with the might of the thunder. Become overlord of all the rulers. Protect this sacrificer past arrows. (4)
Notes
Now the sacrificer is sprinkled with water by a Priest, by a Rajanya, by a Vais$ya and by a man of labour class. Dyumnena, with the shine. Bhrajasa, with the glare. Varcasa, with the lustre. Indriyena, with the might. Indra, the thunder. Didyun ati, past the arrows.
बंगाली (1)
विषय
এতৎপ্রবৃত্তয়ে কীদৃশো রাজাভিষেচনীয় ইত্যাহ ॥
পুর্বোক্ত কার্য্যের প্রবৃত্তি হেতু কেমন ব্যক্তিকে রাজ্যাধিকার দেওয়া প্রয়োজন, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে প্রশংসিত গুণ-কর্ম স্বভাব যুক্ত রাজা । যেমন আমি তোমাকে (সোমস্য) চন্দ্রের সমান (দ্যুম্নেন) যশরূপ প্রকাশ দ্বারা (অগ্নেঃ) অগ্নির সমান (ভ্রাজসা) তেজ বলে (সূর্য্যস্য) সূর্য্যের সমান (বর্চসা) পাঠের দ্বারা এবং (ইন্দ্রস্য) বিদ্যুতের সমান (ইন্দ্রিয়েণ) মনাদি ইন্দ্রিয় সহিত (ত্বা) আপনাকে (অভিষিঞ্চামি) রাজ্যাধিকারী করি । তদ্রূপ আপনি (ক্ষত্রাণাম্) ক্ষত্রিয় কুলে যাহারা উত্তম, তাহাদের মধ্যে (ক্ষত্রপতিঃ) রাজ্যপালক (অত্যেধি) অতি তৎপর হউন এবং (দিদূ্যন্) বিদ্যা তথা ধর্মের প্রকাশকারী ব্যবহারের (পাহি) নিরন্তর রক্ষা করুন ॥ ১৭ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । মনুষ্যদিগের উচিত যে, যিনি শান্তি আদি গুণযুক্ত জিতেন্দ্রিয় বিদ্বান্ পুরুষ হন তাঁহাকে রাজ্যের অধিকার দিবে এবং সেই রাজার উচিত যে, রাজ্যাধিকার প্রাপ্ত হইয়া, অতিশ্রেষ্ঠ হইয়া বিদ্যা ও ধর্মাদির প্রকাশকারী প্রজাসুখকে নিরন্তর বৃদ্ধি করিবেন ॥ ১৭ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
সোম॑স্য ত্বা দ্যু॒ম্নেনা॒ভিষি॑ঞ্চাম্য॒গ্নের্ভ্রাজ॑সা॒ সূর্য়॑স্য॒ বর্চ॒সেন্দ্র॑স্যেন্দ্রি॒য়েণ॑ । ক্ষ॒ত্রাণাং॑ ক্ষ॒ত্রপ॑তিরে॒ধ্যতি॑ দি॒দূ্যন্ পা॑হি ॥ ১৭ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
সোমস্যেত্যস্য বরুণ ঋষিঃ । ক্ষত্রপতির্দেবতা । আর্ষী পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥
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