यजुर्वेद - अध्याय 10/ मन्त्र 14
ऋषिः - वरुण ऋषिः
देवता - परमात्मा देवता
छन्दः - भूरिक जगती,
स्वरः - निषादः
85
ऊ॒र्ध्वामारो॑ह प॒ङ्क्तिस्त्वा॑वतु शाक्वररैव॒ते साम॑नी त्रिणवत्रयस्त्रि॒ꣳशौ स्तोमौ॑ हेमन्तशिशि॒रावृ॒तू वर्चो॒ द्रवि॑णं॒ प्रत्य॑स्तं॒ नमु॑चेः॒ शिरः॑॥१४॥
स्वर सहित पद पाठऊ॒र्ध्वाम्। आ। रो॒ह॒। प॒ङ्क्तिः। त्वा॒। अ॒व॒तु॒। शा॒क्व॒र॒रै॒वतेऽइति॑ शाक्वररै॒वते। साम॑नी॒ऽइति॑ सामनी। त्रि॒ण॒व॒त्र॒य॒स्त्रिꣳशौ। त्रि॒न॒व॒त्र॒य॒स्त्रि॒ꣳशाविति॑ त्रिनवऽत्रयस्त्रि॒ꣳशौ। स्तोमौ॑। हे॒म॒न्त॒शि॒शि॒रौ। ऋ॒तूऽइत्यृ॒तू। वर्चः॑। द्रवि॑णम्। प्रत्य॑स्त॒मिति॒ प्रति॑ऽअस्तम्। नमु॑चेः। शिरः॑ ॥१४॥
स्वर रहित मन्त्र
ऊर्ध्वामारोह पङ्क्तिस्त्वावतु शाक्वररैवते सामनी त्रिणवत्रयस्त्रिँशौ स्तोमौ हेमन्तशिशिरावृतू वर्चा द्रविणम्प्रत्यस्तन्नमुचेः शिरः ॥
स्वर रहित पद पाठ
ऊर्ध्वाम्। आ। रोह। पङ्क्तिः। त्वा। अवतु। शाक्वररैवतेऽइति शाक्वररैवते। सामनीऽइति सामनी। त्रिणवत्रयस्त्रिꣳशौ। त्रिनवत्रयस्त्रिꣳशाविति त्रिनवऽत्रयस्त्रिꣳशौ। स्तोमौ। हेमन्तशिशिरौ। ऋतूऽइत्यृतू। वर्चः। द्रविणम्। प्रत्यस्तमिति प्रतिऽअस्तम्। नमुचेः। शिरः॥१४॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
मनुष्यैरुत्कृष्टविद्ययाऽनेके पदार्था विज्ञातव्या इत्याह॥
अन्वयः
हे राजन्! यद्यूर्ध्वा दिशमारोह तर्हि त्वा पङ्क्तिः शाक्वररैवते सामनी त्रिणवत्रयस्त्रिंशौ स्तोमौ हेमन्तशिशिरावृतू वर्चो द्रविणं चावतु, नमुचेः शिरश्च प्रत्यस्तं स्यात्॥१४॥
पदार्थः
(ऊर्ध्वाम्) दिशम् (आ) (रोह) (पङ्क्तिः) (त्वा) (अवतु) (शाक्वररैवते) शाक्वरं च रैवतं च ते (सामनी) (त्रिणवत्रयस्त्रिंशौ) ये त्रयश्च कालाः नवाङ्कविद्याश्च त्रयश्च त्रिंशच्च वस्वादयः पदार्था व्याख्याता याभ्यां तयोः पूरणौ तौ (स्तोमौ) स्तुतिविशेषौ (हेमन्तशिशिरौ) (ऋतू) (वर्चः) विद्याध्ययनम् (द्रविणम्) द्रव्यम् (प्रत्यस्तम्) प्रतिक्षिप्तम् (नमुचेः) न मुञ्चति परपदार्थान् दुष्टाचारान् वा यः स्तेनस्तस्य (शिरः) उत्तमाङ्गम्॥ अयं मन्त्रः (शत॰ ५। ४। १। ७) व्याख्यातः॥१४॥
भावार्थः
ये मनुष्या अन्वृतु योग्याऽऽहारविहारस्सन्तो विद्यायोगाभ्याससत्सङ्गान् चरन्ति, ते सर्वेष्वृतुषु सुखं भुञ्जते, न चैभ्यो कश्चिच्चौरः पीडां दातुं शक्नोति॥१४॥
हिन्दी (3)
विषय
मनुष्यों को चाहिये कि प्रबल विद्या से अनेक पदार्थों को जानें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे राजन्! आप जो (ऊर्ध्वाम्) ऊपर की दिशा में (आरोह) प्रसिद्ध होवें तो (त्वा) आपको (पङ्क्तिः) पङ्क्ति नाम का पढ़ा हुआ छन्द (शाक्वररैवते) शक्वरी और रेवती छन्द से युक्त (सामनी) सामवेद के पूर्व उत्तर दो अवयव (त्रिणवत्रयस्त्रिंशौ) तीन काल, नव अङ्कों की विद्या और तैंतीस वसु आदि पदार्थ जिन दोनों से व्याख्यान किये गये हैं, उनके पूर्ण करने वाले (स्तोमौ) स्तोत्रों के दो भेद (हेमन्तशिशिरौ) हेमन्त और शिशिर (ऋतू) ऋतु (वर्चः) ब्रह्मचर्य्य के साथ विद्या का पढ़ना और (द्रविणम्) ऐश्वर्य्य (अवतु) तृप्त करे और (नमुचेः) दुष्ट चोर का (शिरः) मस्तक (प्रत्यस्तम्) नष्ट-भ्रष्ट होवे॥१४॥
भावार्थ
जो सब ऋतुओं में समय के अनुसार आहार-विहार युक्त होके विद्या योगाभ्यास और सत्सङ्गों का अच्छे प्रकार सेवन करते हैं, वे सब ऋतुओं में सुख भोगते हैं और इनको कोई चोर आदि भी पीड़ा नहीं दे सकता॥१४॥
विषय
नातिमानिता
पदार्थ
१. हे राजन्! तू राष्ट्र में ऐसी व्यवस्था कर कि ( दन्दशूकाः ) = औरों को अकारण ही डसनेवाले सर्पवृत्ति के लोग, कुटिल चाल से चलनेवाले औरों को पीड़ित करनेवाले लोग ( अवेष्टाः ) = [ अवयज = नाशि ] नष्ट कर दिये जाएँ, राष्ट्र में ऐसे लोग न पनप पाएँ। इसके लिए तू निम्न प्रयत्न कर— २. ( प्राचीम् आरोह ) = पूर्व दिशा में आरूढ़ हो। यह ‘प्राची’ दिशा [ प्र+अञ्च् ] आगे बढ़ने की दिशा है। तू अग्रगति का अधिपति बन। यदि तू निरन्तर आगे बढ़ने का ध्यान रखेगा तो ( दक्षिणाम् आरोह ) = दक्षिण का आरोहण करनेवाला होगा, अर्थात् तू प्रत्येक कार्य को करने में ( दक्षिण ) = कुशल बन पाएगा। यह कार्य-कुशलता तेरे ऐश्वर्य-वृद्धि का कारण बनेगी। उस समय तूने ( प्रतीचीम् आरोह ) = प्रतीची का आरोहण करना है। प्रतीची अर्थात् प्रति-अञ्च् = वापस होना—विषयों में न फँस जाना, अर्थात् विषय-व्यावृत्त होना—प्रत्याहार का पाठ पढ़ना अत्यन्त आवश्यक है। ऐसा करने पर तू ( उदीचीम् आरोह ) = उत्तर दिशा का आरोहण करनेवाला होगा, अर्थात् तेरी उन्नति प्रारम्भ होगी और एक दिन ( ऊर्ध्वाम् आरोह ) = तू सर्वोच्च दिशा पर आरूढ़ हुआ होगा।
३. इस उल्लिखित मार्ग पर चलने से तुझे क्रमशः ( ब्रह्म द्रविणम् ) = ज्ञानरूप धन प्राप्त होगा। निरन्तर आगे बढ़नेवाला व्यक्ति कण-कण करके ज्ञान प्राप्त करता है। ज्ञानी व कार्यकुशल बनकर यह ( क्षत्रं द्रविणम् ) = शक्तिरूप धन प्राप्त करता है। क्रियाशीलता शक्तिवृद्धि का कारण बनती है। ( विट् द्रविणम् ) = ज्ञान और शक्ति प्राप्त करके अब यह [ विट् ] ‘उत्तम प्रजा’ रूप धनवाला होता है। इस उत्तमता को स्थायी बनाने के लिए ( फलं द्रविणम् ) = फलरूप धनवाला होता है। यह राजा राष्ट्र में फलों के उत्पादन का इस रूप में आयोजन करता है कि सब लोगों का मुख्य भोजन ये फल ही हो जाते हैं। इस सात्त्विक भोजन से ही प्रजाओं का जीवन उत्तम बनता है। उनके ज्ञान व शक्ति की वृद्धि होती है। इन फलों से ( वर्चः द्रविणम् ) = वर्चस्—प्राणशक्तिरूप धन प्राप्त होता है। वस्तुतः ( प्राची ) = निरन्तर आगे बढ़ना ( ब्रह्म ) = ज्ञान-प्राप्ति का मुख्य उपाय है। ( दक्षिणा ) = कार्यकुशलता ( क्षत्र ) = बल का कारण है। ( प्रतीची ) = विषयनिवृत्ति ( विट् ) = उत्तम प्रजा का कारण है। ( उदीची ) = उन्नति के लिए शाकाहारी फल = वनस्पति आदि का भोजन आवश्यक है। सर्वोच्च स्थिति ( ऊर्ध्वा ) = में पहुँचने पर मनुष्य ब्रह्म के समान वर्चस्वी बनता है। इस प्रकार इन मन्त्रों में पहले और अन्तिम वाक्यों का परस्पर सम्बन्ध है। यह सम्बन्ध आगे चलकर दूसरे व पाँचवें वाक्यों में होगा और तीसरे व चौथे में यह सम्बन्ध दिखेगा। साहित्य में यह शैली ‘चक्रबन्ध काव्य’ के नाम से प्रसिद्ध है।
४. दूसरे स्थान पर स्थित वाक्यों का अर्थ इस प्रकार है कि ‘गायत्री-त्रिष्टुप्-जगती-अनुष्टुप् और पङ्क्तिः’ = ये सब छन्द ( त्वा ) = तेरी ( अवतु ) = रक्षा करें। परिणामतः तेरे जीवन में पाँचवें-पाँचवें वाक्यों के अनुसार क्रमशः वसन्तः, ग्रीष्म, वर्षा, शरद् ऋतुः, हेमन्त-शिशिरौ ऋतू = ‘वसन्त-ग्रीष्म-वर्षा-शरद् व हेमन्त-शिशिर’ ऋतुओं का आगमन होगा। क. ( गायत्री ) = [ गयाः प्राणाः तान् तत्रे ] प्राण-रक्षण से ( वसन्त ) = तेरा उत्तम निवास होगा। जिस प्रकार वसन्त ऋतु पुष्प-फल-वृद्धिवाली होती है, उसी प्रकार तेरे जीवन में सब शक्तियों का विकास होगा। ख. त्रिष्टुप् [ त्रिष्टुप् stop ] काम, क्रोध व लोभ को रोक देने से तेरा जीवन ‘ग्रीष्म’ ऋतुवाला होगा। तेरे जीवन में सचमुच उष्णता व उत्साह होगा। ग. ( जगती ) = निरन्तर गति शक्तिशीलता से तेरे जीवन की ऋतु-चर्या ( वर्षा ) = सब सुखों की वर्षावाली होगी। तू निरन्तर क्रियाशील होगा और सुखी जीवनवाला होगा। घ. ( अनुष्टुप् ) = तू दिन-ब-दिन, अर्थात् सदा प्रभु का स्तवन करनेवाला होगा और तेरे जीवन में शरत् का प्रवेश होगा। जैसे शरत् में सब पत्ते शीर्ण हो जाते हैं उसी प्रकार इस स्तुति से तेरे सारे पाप शीर्ण हो जाएँगे। [ ङ ] ( पङ्क्तिः ) = तू पाँचों ज्ञानेन्द्रियों, पाँचों कर्मेन्दियों व पाँचों प्राणों के पञ्चकों से सुरक्षित होगा तो तेरे जीवन में हेमन्त व शिशिर ऋतुओं का उदय होगा, अर्थात् हेमन्त [ हन्ति पाप्मानं, हिनोति वर्धयति बलं वा ] = तेरे रोग व पाप नष्ट होंगे और तेरा बल बढे़गा तथा ( शिशिरः ) = [ शश प्लुतगतौ ] तू द्रुतगतिवाला होगा। तेरी चाल मन्द न होगी। तू तीव्र गति से आगे बढ़नेवाला बनेगा।
५. अब तीसरे-व-चौथे-वाक्यों का अर्थ यह है कि [ क ] ( रथन्तरम् ) = रथन्तर तेरी ( साम ) = उपासना है और त्रिवृत् तेरी ( स्तोमः ) = स्तुति है। प्रभु की सच्ची उपासना यही है कि मनुष्य ( रथन्तर ) = इस शरीररूप रथ से भवसागर को तैरने का यत्न करे और सच्ची स्तुति यही है कि मनुष्य ( त्रिवृत् ) = शरीर, मन व बुद्धि की त्रिगुण उन्नति करनेवाला हो। [ ख ] ( बृहत् ) = बृहत् तेरी ( साम ) = उपासना है और ( पञ्चदशः ) = पञ्चदश तेरी ( स्तोम ) = स्तुति है। ( बृहत् ) [ बृहि वृद्धौ ] = निरन्तर वृद्धि—बढ़ना—उन्नति करना ही तेरी उपासना है। पाँचों ज्ञानेन्द्रियों, पाँचों कर्मेन्द्रियों व पाँचों प्राणों को उन्नत करना—इनका अधिपति बनता ही स्तवन है। [ ग ] ( वैरूपम् ) = विशिष्ट रूपवाला बनना ही ( साम ) = उपासना है सप्तदशः पाँच प्राण, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ तथा मन और बुद्धि को ठीक रखना ही ( स्तोमः ) = स्तुति है। [ घ ] ( वैराजम् ) = विशिष्ट रूप से चमकना ही ( साम ) = तेरी उपासना है और ( एकविंशः स्तोमः ) = शरीर का धारण करनेवाली २१ शक्तियोंवाला होना ही तेरी स्तुति है। [ ङ ] ( शाक्वररैवते ) = शक्तिशाली बनना व ज्ञान-धनवाला होना। ( सामनी ) = तेरी उपासनाएँ हैं और ( त्रिणवत्रयस्त्रिंशः ) = [ इमे वै लोकास्त्रिणवः—ता० ६।२।३ ] [ देवता एव त्रयस्त्रिंशस्या- यतनम्—ता० १०।१।१६ ] [ वर्ष्म वै त्रयस्त्रिंशः—ता० १९।१०।१० ] तीन लोक व ३३ देवता ही ( स्तोमौ ) = तेरी स्तुति हैं, अर्थात् यदि तू शरीररूप पृथिवीलोक को, हृदयरूप अन्तरिक्षलोक को तथा मस्तिष्करूप द्युलोक को ठीक रखता है और इन्हें अपने-अपने देवताओं से अलंकृत करता है तो तू सच्चा स्तवन कर रहा होता है।
६. इस प्रकार सारे देवताओं का अधिष्ठान बनकर भी तूने इस बात का पूरा ध्यान रखना है कि ( नमुचेः ) = [ न मुचिः, last infirmity of the noble minds ] नमुचि को बड़े-बड़े शक्तिशाली भी जीत नहीं पाते, उस अहंकार का ( शिरः प्रत्यस्तम् ) = सिर कुचल दिया जाए। सम्पूर्ण दैवी सम्पत्तिवाला बनकर भी तुझमें ‘नतिमानिता’ = अभिमान का न होना आवश्यक है। यह अभिमान सारे किये-कराये पर पानी फेर देता है।
भावार्थ
भावार्थ — राजा सब दिशाओं में उन्नति करके निरभिमानिता से प्रजाओं का कल्याण करने में प्रवृत्त हो।
विषय
दुष्टों का नाश । राजा की रक्षा।
भावार्थ
( ऊर्ध्वाम् आरोह) ऊर्ध्व दिशा की ओर चढ़, उधर आक्रमण कर । ( पंक्तिः, शाक्कररेवते सामनी, त्रिनवत्रयस्त्रिंशौ स्तोमौ, हेमन्तशिशिरौ ऋतू, वर्चः द्रविणाम् त्वा अवतु ) पंक्ति छन्द, शाक्कर और रैवत साम, त्रिनक और त्रयस्त्रिंश नामक दोनों स्तोम, हेमन्त और शिशिर दोनों ऋतु और वर्चस तेजरूप धन ये तेरी रक्षा करें। ( नमुचेः पापाचार को न छोड़नेवाले का ( शिरः ) शिर ( प्रति अस्तम् ) काटकर फेंक दिया जाय । शत० ५ | ४।१ ७-९ ॥ ( १०-१४ ) - (१) दन्दशूकाः-नैते क्रिमयो नाक्रिमयः यद् दन्दशूकाः । लोहिता इव हि दन्दशूकाः । श० ५ । ४ । १ । २ ॥ लाल धमूड़ २।४।१।२ या लाल बर्र दन्दशूक कहाता है, वह बिना प्रयोजन काटता है । उसी के स्वभाव वाले व्यर्थ परपीड़क लोग भी दन्दशूक कहाते हैं । (२) 'प्राची' - प्राची हि दिग् अग्नेः । श० ६ । ३ । ३ । २ ॥ अग्नि नेत्रेभ्यो देवेभ्यः पुरः सद्भ्यः स्वाहा । यजु० ९ । ३५ ॥ अथैनामिन्द्रं प्राच्यां दिशि वसवः देवा अभ्यषिञ्चन् साम्राज्याय । ए० ८। १४ ।। वसव- स्त्वा पुरस्तादभिषिञ्चतु गायत्रेण छन्दसा । तै०२ । ७ । १५ । ५ ॥ तेजो वै ब्रह्मवर्चसं प्राची दिक् ॥ ऐ० १ । ८ ॥ ( ३ ) 'गायत्री' – सेयं सर्वा कृत्वा मन्यमाना अगायत् । यद्गायद् तस्मादियं पृथिवी गायत्री । श० ६ । १ । १ । १५ ॥ गायत्रोऽयं भूलोकः । कौ० ८।९ ॥ गायत्री वसूनां पत्नी । गो उ० २ । ९ ॥ गायत्री वै रथन्तर- स्य योनिः । तां० १५ । १० । ५ ॥ या द्यौः सा अनुमतिः सा एवं गायत्री । ऐ० २ । १७ ॥ ( ४ ) ' रथन्तरं साम - अभित्वा शूर नोनुम ( ऋ० ७ । ३२ । "२२ २२ ) इत्यस्यामृचि उत्पन्नं साम रथन्तरम् । ऐ० ४ | १३ सायणः । इयं वै पृथिवी रथन्तरम् । ऐ० ८।१ ॥ वाग् वै रथन्तरम् ऐ० ४ । २८ ॥ रथन्तरं वै सम्राट् । तै० १।४ । ४ । ९॥ ( १ ) ' न्निवृत् स्तोमः ' - वायुर्वा आशुः त्रिवृत् । श० ८ । ४ ।१ । ९ ॥ वज्रो वै त्रिवृत् । श० ३ | ३ | ४ | तेजो वै त्रिवृत् तां० २।१७ ॥ २ ॥ ब्रह्मवर्चसं वै त्रिवृत् । तां० ७ ।६ ।३ ॥ ( ६ ) 'वसन्त ऋतुः ' - तस्य अनेः रथगृत्सश्च रथौजाश्च सेनानी ग्रामण्यौ इति वासन्तिकौ तावृत् । श० ८ । ६ । १ । १६ ॥ बसन्तो वै ब्राह्मणस्य ऋतुः । तै ०१।१।२।६ ॥
टिप्पणी
० शिशिरा ऋतू' इति काण्व० ।
मराठी (2)
भावार्थ
जी माणसे सर्व ऋतूंमध्ये योग्य आहारविहार करतात, विद्या, योगाभ्यास व सत्संग करतात त्यांना सर्व ऋतूंमध्ये सुख प्राप्त होते. त्यांना कोणीही त्रास देऊ शकत नाही.
विषय
मनुष्यांनी उत्कृष्ट विद्येने अनेक पदार्थांचे ज्ञान मिळवावे याविषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे राजा, आपणास (ऊर्ध्वाम्) वरच्या दिशेत (आरोह) कीर्तीप्राप्त व्हावी. (त्वा) आपणाला (पंक्ति:) पंक्तिनामक छंद आणि (शाक्वररैवते) शक्वरी व रेवती छंदांनी युक्त (सामनी) सामवेदाचे पूर्ण आणि उत्तर असे दोन भाग की ज्यांमध्ये (त्रिणवत्रयस्त्रिंशौ) तीन काल, नऊ अंकाची विद्या, आणि तेहतीस वसु आदी पदार्थांची व्याख्या केली आहे, (ते दोन भाग प्राप्त व्हावेत) त्या भागांना पूर्ण करणारे (स्तोमौ) स्तोत्रांचे दोन भेद (हेमन्तशिशिरौ) (ऋतु) हेमंत आणि शिशिर ऋतु (वर्च:) ब्रह्मचर्यपूर्वक विद्याध्ययन आणि (द्रविणम्) ऐश्वर्य (अवतु) हे सर्व प्राप्त व्हावेत. (आपल्या या कार्यात जो विघ्र उपस्थित करील, त्या) (नमुचे:) दुष्ट चोराचे वा उपद्रकारी मनुष्याचे (शिर:) डोके (प्रत्यस्तम्) छिन्न-भिन्न होवो. ॥14॥
भावार्थ
भावार्थ - जी माणसें सर्व ऋतूंमध्ये योग्यकाळी आहार, विहार आदींचे नियमांचे पालन करीत विद्याभ्यास, योगाभ्यास आणि सत्संग करतात, ते सर्व ऋतूंमध्ये सुखी होतात आणि त्यांना चोर आदी दुर्जनदेखील पीडा वा त्रास देऊ शकत नाहीत. ॥14॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O King, ascend the zenith. May thou obtain the Knowledge conveyed in the Pankti Shakvari and Rewati verses of the Sam Veda, the thirty-threefold praise-song, three divisions of time, both seasons, Winter and Dews, Arithmetic, the science of nine digits ; thirty-three gods, the study through Brahmcharya and riches. Cast aside the head of a thief.
Meaning
Move up and rise high, and the knowledge contained in the Pankti verses, Shakvara and the Raivata parts of the Samans, the knowledge of the three divisions of time (past, present and future), the science of nine numbers (1-9), and of the thirty-three powers of nature (8 Vasus, 11 Rudras, 12 Adityas, Indra, i. e. , electric energy, and yajna, i. e. , cosmic chemistry) would reveal to you; the lustre of knowledge and discipline and the wealth of life would bless you. The heads of the sinner, the thief and the preventer would be down.
Translation
Ascend zenith. May the metre pankti protect you; also the sakvara and raivata saman verses and the twenty-seven and the thirty-three praise-verses; the winter and freezing cold season and the wealth of lustre. (1) The head of the miser is cut off. (2)
Notes
Namuceh, of the miser; of one, who will not give up. In legend, Namuci is the name of an asura.
बंगाली (1)
विषय
মনুষ্যৈরুৎকৃষ্টবিদ্যয়াऽনেকে পদার্থা বিজ্ঞাতব্যা ইত্যাহ ॥
মনুষ্যদিগের উচিত যে, প্রবল বিদ্যা দ্বারা বহু পদার্থসকলকে জানিবে । এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে রাজন্ ! আপনি (ঊর্ধ্বাম্) উপরের দিকে (আরোহ) প্রসিদ্ধি লাভ করুন । (ত্বা) আপনাকে (পঙ্ক্তি) পঙ্ক্তি নামক পঠিত ছন্দ (শাক্বররৈবতে) শক্বরী ও রেবতী ছন্দ দ্বারা যুক্ত (সামনী) সামবেদের পূর্ব উত্তর দুটি অবয়ব (ত্রিণবত্রয় স্ত্রিংশৌ) তিন কাল, নয় অঙ্কের বিদ্যা এবং তেত্রিশ বসু ইত্যাদি পদার্থ যে দুইটি দ্বারা ব্যাখ্যান করা হইয়াছে তাহাদের পূর্ণ করিবার (স্তোমৌ) স্তোত্রদের দুইটি ভেদ (হেমন্তশিশিরৌ) (ঋতু) হেমন্ত ও শিশির ঋতু (বর্চঃ) ব্রহ্মচর্য্য সহ বিদ্যা পাঠ এবং (দ্রবিণম্) ঐশ্বর্য্য (অবতু) তৃপ্ত করুক এবং (নমুচেঃ) দুষ্ট চোরের (শিরঃ) শির (প্রত্যস্তম্) নষ্ট-ভ্রষ্ট হউক ॥ ১৪ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- যে মনুষ্য সকল ঋতুতে সময়ানুসার আহার-বিহারযুক্ত হইয়া বিদ্যা যোগাভ্যাস ও সৎসঙ্গের উত্তম প্রকার সেবন করে, সে সকল ঋতুতে সুখ ভোগ করে এবং তাহাকে কোন চোরাদিও পীড়া দিতে সক্ষম হয় না ॥ ১৪ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
ঊ॒র্ধ্বামা রো॑হ প॒ঙ্ক্তিস্ত্বা॑বতু শাক্বররৈব॒তে সাম॑নী ত্রিণবত্রয়স্ত্রি॒ꣳশৌ স্তোমৌ॑ হেমন্তশিশি॒রাবৃ॒তূ বর্চো॒ দ্রবি॑ণং॒ প্রত্য॑স্তং॒ নমু॑চেঃ॒ শিরঃ॑ ॥ ১৪ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ঊর্ধ্বামিত্যস্য বরুণ ঋষিঃ । য়জমানো দেবতা । ভুরিজ্জগতী ছন্দঃ ।
নিষাদঃ স্বরঃ ॥
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