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यजुर्वेद अध्याय - 10

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  • यजुर्वेद - अध्याय 10/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वरुण ऋषिः देवता - वृषा देवता छन्दः - स्वराट ब्राह्मी पङ्क्ति, स्वरः - पञ्चमः
    206

    वृष्ण॑ऽऊ॒र्मिर॑सि राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ देहि॒ स्वाहा॑ वृष्ण॑ऽऊर्मिर॑सि राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ देहि वृषसे॒नोऽसि राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ देहि॒ स्वाहा॑ वृषसे॒नोऽसि राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ देहि॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वृष्णः॑। ऊ॒र्मिः। अ॒सि॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। दे॒हि॒। स्वाहा॑। वृष्णः॑। ऊ॒र्मिः। अ॒सि॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्रऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। दे॒हि॒। वृ॒ष॒से॒न इति॑ वृषऽसे॒नः। अ॒सि॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। दे॒हि॒। स्वाहा॑। वृ॒ष॒से॒न इति॑ वृषऽसे॒नः। अ॒सि॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। दे॒हि॒ ॥२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वृष्ण ऽऊर्मिरसि राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे देहि स्वाहा वृष्णऽऊर्मिरसि राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै देहि वृषसेनोसि राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे देहि स्वाहा । वृषसेनोसि राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै देह्यर्थेत स्थ ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वृष्णः। ऊर्मिः। असि। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। मे। देहि। स्वाहा। वृष्णः। ऊर्मिः। असि। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। अमुष्मै। देहि। वृषसेन इति वृषऽसेनः। असि। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। मे। देहि। स्वाहा। वृषसेन इति वृषऽसेनः। असि। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। अमुष्मै। देहि॥२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 10; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्वांसः कीदृशं राजानं प्रति किं किं याचेरन्नित्याह॥

    अन्वयः

    हे राजन्! यतस्त्वं वृष्ण ऊर्मी राष्ट्रदा असि, तस्मान्मे स्वाहा राष्ट्रं देहि। वृष्ण ऊर्मी राष्ट्रदा असि, अमुष्मै राष्ट्रं देहि। राष्ट्रदा वृषसेनोऽसि, स्वाहा राष्ट्रं देहि। राष्ट्रदा वृषसेनोऽसि त्वममुष्मै राष्ट्रं देहि॥२॥

    पदार्थः

    (वृष्णः) सुखवर्षकस्य विज्ञानस्य (ऊर्मिः) प्रापकः। अर्त्तेरुच्च। (उणा॰४।४४) इति ऋधातोर्मिः (असि) (राष्ट्रदाः) राष्ट्रं ददातीति (राष्ट्रम्) राज्यम् (मे) मह्यम् (देहि) (स्वाहा) सत्यया नीत्या (वृष्णः) सुखवर्षकस्य राज्यस्य (ऊर्मिः) ज्ञाता (असि) (राष्ट्रदाः) राज्यप्रदाः (राष्ट्रम्) न्यायप्रकाशितम् (अमुष्मै) राज्यपालकाय (देहि) (वृषसेनः) वृषा बलयुक्ता सेना यस्य सः (असि) (राष्ट्रदाः) राज्ञां कर्मप्रदाः (राष्ट्रम्) राज्यम् (मे) प्रत्यक्षाय मह्यम् (देहि) (स्वाहा) सुष्ठु वाचा (वृषसेनः) हृष्टपुष्टसेनः (असि) (राष्ट्रदाः) (राष्ट्रम्) (अमुष्मै) परोक्षाय जनाय (देहि)॥ अयं मन्त्रः (शत॰ ५। ३। ४। ५-६॥) व्याख्यातः॥२॥

    भावार्थः

    यो मनुष्यो दुष्टान् जित्वा प्रत्यक्षान् श्रेष्ठान् सत्कृत्य राज्याधिकारं राज्यश्रियं ददाति, स चक्रवर्त्ती भवितुं योग्यो जायते॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब विद्वान् लोग कैसे राजा से क्या-क्या मागें, यह उपदेश अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे राजन्! जिस कारण आप (वृष्णः) सुख के वर्षाकारक ज्ञान के प्राप्त कराने (राष्ट्रदाः) राज्य के देनेहारे (असि) हैं, इससे (मे) मुझे (स्वाहा) सत्यनीति से (राष्ट्रम्) राज्य को (देहि) दीजिये। (वृष्णः) सुख की वृष्टि करने वाले राज्य के (ऊर्मिः) जानने और (राष्ट्रदाः) राज्य प्रदान करनेहारे (असि) हैं, (अमुष्मै) उस राज्य की रक्षा करने वाले को (राष्ट्रम्) न्याय से प्रकाशित राज्य को (देहि) दीजिये। (राष्ट्रदा) राजाओं के कर्मों के देनेहारे (वृषसेनः) बलवान् सेना से युक्त (असि) हैं, (मे) प्रत्यक्ष वर्त्तमान मेरे लिये (स्वाहा) सुन्दर वाणी से (राष्ट्रम्) राज्य को (देहि) दीजिये तथा (राष्ट्रदाः) प्रत्यक्ष राज्य को देने वाले (वृषसेनः) आनन्दित पुष्टसेना से युक्त (असि) हैं, इससे आप (अमुष्मै) उस परोक्ष पुरुष के लिये (राष्ट्रम्) राज्य को (देहि) दीजिये॥२॥

    भावार्थ

    जो राजपुरुष दुष्ट प्राणियों को जीत प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष श्रेष्ठ पुरुषों का सत्कार करके अधिकार और शोभा को देता है, उसके लिये चक्रवर्त्ती राज्य का अधिकार होना योग्य है॥२॥

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    विषय

    ये+अमुष्मै

    पदार्थ

    प्रस्तुत मन्त्र में पुरोहित प्रजा से कह रहा है कि तुम राष्ट्र को पहले मुझे सौंपो और फिर इस राजा को। राष्ट्र को केवल क्षत्रिय के हाथों में नहीं सौंपना है, उसे ब्राह्मण तथा क्षत्रिय दोनों के हाथों में सौंपना ही ठीक है। १. हे प्रजे! तू ( वृष्णः ) = अग्नि व सोम का [ शक्ति व शान्ति का ] ( ऊर्मिः ) = [ ऊर्णुञ् आच्छादने ] अपने अन्दर आच्छादन करनेवाली है, ( राष्ट्रदाः ) = राष्ट्र को देनेवाली है। प्रजा ही तो राष्ट्र को बनाती है। यह इस राष्ट्र को कुछ व्यक्तियों के हाथ में सौंपती है। पुरोहित कह रहा है कि ( राष्ट्रम् ) = इस राष्ट्र को ( मे देहि ) = तुम मुझे सौंपो। ( स्वाहा ) = और स्व का हा = त्याग करो, अर्थात् उचित कर देनेवाली बनो। ( वृष्णः ऊर्मिः असि ) = हे प्रजे! तू अग्नि व सोम की आच्छादिका है, ( राष्ट्रदाः ) = राष्ट्र को देनेवाली है। ( राष्ट्रम् ) = राष्ट्र को ( अमुष्मै ) = उस सभापतिरूप से चुने गये राज्याभिषिक्त व्यक्ति के लिए ( देहि ) = सौंप। 

    २. यह राष्ट्र का पुरुषवर्ग ( वृषसेनः असि ) = शक्तिशाली सेनावाला है। राष्ट्र के नवयुवकों में से ही तो शक्तिशाली सेना का निर्माण होना है। हे वृषसेन! तू ( राष्ट्रदाः ) = राष्ट्र को देनेवाला है। बिना सेना के भी राष्ट्र का निर्माण नहीं हो पाता। ( राष्ट्रम् ) = राष्ट्र को ( मे ) = मुझ पुरोहित के लिए ( देहि ) = तू सौंप और ( स्वाहा ) = स्वार्थ का त्याग करके राष्ट्र को शक्तिशाली बना। हे पुरुषवर्ग! तू ( वृषसेनः असि ) = शक्तिशाली सेनावाला है। ( राष्ट्रदाः ) = राष्ट्र को देनेवाला है। ( राष्ट्रम् ) = राष्ट्र को ( अमुष्मै ) = अमुक राज्याभिषिक्त पुरुष के लिए ( देहि ) = सौंप। 

    ३. विधेय ‘प्रजा’ शब्द के स्त्रीलिंग होते हुए भी ‘वृषसेनः’ यह पुल्लिंग का प्रयोग इसलिए है कि सेना पुरुषों में से ही एकत्र होनी है। 

    भावार्थ

    भावार्थ — प्रजा अपने में वृषन्, अर्थात् अग्नि व सोम दोनों तत्त्वों को रक्खे हुए है। प्रजा में उत्साह भी चाहिए, शान्ति भी। प्रजा को ही अपने में से सेना को जुटाना है। यह प्रजा राष्ट्र को पुरोहित तथा सभापति के हाथों में सौंपती है।

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    विषय

    राष्ट्रपद प्रजाओं के प्रतिनिधि रूप जलों से राज्याभिषेक।

    भावार्थ

    ( १ ) हे पुरुष ! तू ( वृष्णः ) बलवान् पुरुष को ( ऊर्मि असि ) ऊंचे पद पर पहुंचाने में समर्थ है। तू ( राष्ट्रदाः ) राष्ट्र को देने में समर्थ है। तू ( स्वाहा ) उत्तम नीतिव्यवस्था से ( मे राष्ट्र ) मुझे राष्ट्र, अर्थात् राज्यशक्ति ( देहि ) प्रदान कर । ( कृष्णः ) तू सुख वर्षक राज्य का ( ऊर्मिः असि ) ज्ञाता है, तू ( राष्ट्रदाः ) राज्य देने में समर्थ होकर ( अमुष्मै ) अमुक नाम के पुरुष को ( राष्ट्रम् देहि ) राष्ट्र, राजपद, या राज्याधिकार प्रदान कर । ( २ ) हे वीर पुरुष ! तू (वृषसेनः असि) वृषसेन, बलवान्, हृष्ट पुष्ट सेना से युक्त है। तू ( राष्ट्रदाः ) राज्यशक्ति प्रदान करनेहारा होकर ( स्वाहा ) उत्तम रीति से ( मे राष्ट्रं देहि ) मुझको राज्यपद प्रदान कर और इसी प्रकार ( वृषसेनः राष्ट्रदाः असि ) बलवान् पुरुषों की बनी सेना से युक्त होकर राष्ट्र देने में समर्थ है। ( अमुष्मै राष्ट्रम देहि ) अमुक पुरुष को राष्ट्र या राज्य सम्पद प्रदान कर । इस प्रकार मन्त्र के पूर्व भाग से बलवान् और सेनासम्पन्न पुरुषों से राजा बल की याचना करे और उत्तर भाग से पुरोहित उस राजा को राज्यपद प्रदान करने की अनुमति ले । सर्वत्र ऐसा ही समझना चाहिये। इस मन्त्र से तरंग के जलों से राजा को स्नान कराते हैं ।

    टिप्पणी

    वरुणा अभ्यः' इति काण्व ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वरुण ऋषिः । वृषा देवता । स्वराड् ब्राह्मी पंक्तिः । पञ्चमः स्वरः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जो राजा दुष्टांना जिंकून प्रत्यक्षपणे व अप्रत्यक्षपणे श्रेष्ठ पुरुषांचा सत्कार करतो आणि त्यांचा अधिकार त्यांना देऊन त्याचे भले करतो अशा व्यक्तीलाच चक्रवती राज्याचा अधिकार देणे योग्य ठरते.

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    विषय

    विद्वानांनी कोणत्या प्रकारच्या राजाकडून काम काय मागावे (कोणत्या प्रयोजनांच्या पूर्ततेची अपेक्षा करावी) याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (विद्वान म्हणत आहे) हे राजा, आपण (वृष्ण:) मुखाची वृष्टी करणारे जे ज्ञान ते देणारे आहात (नागरिकांसाठी शिक्षणाची व्यवस्था (करणारे आहात) आणि (राष्ट्रदा:) राज्य देणारे (राज्यात सर्व सुखसोयी करणारे) (असि) आहात. यामुळे (मे) मला (स्वाहा) सत्य व प्रामाणिक नियमांद्वारे (राष्ट्रम्) राज्य (देहि) द्या (मला त्या सुखकारक राज्याचे सर्व लाभ मिळू द्या.) आपण (वृष्ण:) सुखाची वृष्ठी करणार्‍या या राज्याचे (ऊर्मि:) जाणकार आणि (राष्ट्रदा:) राज्याला सुखी करणारे (असि) आहात. यामुळे (अमुष्मै) या राज्याच्या रक्षण कार्यात (सहकार्य करणार्‍या नागरिकाला) (राष्ट्रभ्) न्यायपूर्ण आणि प्रशंसनीय राज्य (देहि) द्या. (राष्ट्रदा:) आपण राजासाठी आवश्यक त्या कर्तव्याची पूर्तीकरणारे आणि (वृषसेन:) बलवान सैन्याचे अधिपती (असि) आहात (मे) मी जो इथे समक्ष उपस्थित आहे त्या मला (स्वाहा) सुंदर वाणीद्वारा (राष्ट्रम्) राज्य (राज्याचे सर्व कर्त्तव्य) (देहि) द्या वा सांगा. तसेच आपण (राष्ट्रदा:) प्रत्यक्षपणे राज्य देणारे (चालविणारे नेते) वाणि (वृषसेन:) आनंदित अशा सैन्याचे स्वामी (असि) आहात, यामुळे आपण (अमुष्मै) त्या परोक्ष असलेल्या (उपस्थित नसलेल्या) नागरिकाला देखील माझ्याप्रमाणे (राष्ट्रम्) राज्य (राज्यातील सर्व सुख व अधिकार) (देहि) द्या. ॥2॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जो राजपुरुष दुष्टजनांना पराभूत करून प्रत्यक्ष समोर असलेल्या आणि अप्रत्यक्ष असलेल्या सर्वजणांना सारखेपणाने अधिकार देतो, त्या सर्वांचा यथोचित सत्कार करतो, तो कीर्तिमंत होतो आणि तोच चक्रवर्ती राज्याचा अधिपती होण्यास पात्र ठरतो ॥2॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    0 people, ye are the givers of Kingship, that brings knowledge and showers happiness, bestow on me the kingdom, in a righteous manner. Ye are the knowers of government that showers happiness, and the givers of Kingship, bestow Kingdom on him, who can protect it. Ye are the definer of the duties of Kings, and masters of a strong army, bestow on me the Kingdom, in a beautiful speech. Ye are the givers of Kingship, and masters of a strong army, bestow the Kingdom on the deserving.

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    Meaning

    Mighty lord, shower of generosity, bringer of prosperity wave on wave, maker of the nation and builder of the republic, give me a sovereign republic of human values and just policies. Illustrious lord of generosity, ocean of knowledge of polity, harbinger of prosperity and comfort to the people, bless him (bless all of them) with the unity of the nation and dignity of the republic with truth of word and action. Generous lord of a mighty force, maker of the republic, give me a world republic of universal values and universal peace. Generous lord of universal power of love and Dharma, maker of the world, give us all a world state of universal love and universal Dharma.

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    Translation

    You are a surge of strength, bestower of kingdom; bestow kingdom on me. Svaha. (1) You are a surge of strength, bestower of kingdom; bestow kingdom on this sacrificer,so and so. (2) You have a powerful army, bestower of kingdom; bestow kingdom on me. Svaha. (3) You have a powerful army, bestower of kingdom; bestow kingdom on this sacrificer,so and so. (4)

    Notes

    Vrsnah_ of the strength. Rastrada, bestower of kingdom. Amusmai, to so and so (name of the person to be mentioned here). Vrsasenah, one who has a powerful army.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ বিদ্বাংসঃ কীদৃশং রাজানং প্রতি কিং কিং য়াচেরন্নিত্যাহ ॥
    এখন বিদ্বান্গণ কেমন করিয়া রাজা হইতে কী কী চাহিবে এই উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে রাজন্ ! যে কারণে আপনি (বৃষঃ) সুখের বর্ষাকারক জ্ঞানপ্রাপ্ত কারী, (রাষ্ট্রদাঃ) রাজ্য প্রদাতা (অসি) হন ইহাতে (মে) আমাকে (স্বাহা) সত্যনীতি পূর্বক (রাষ্ট্রম্) রাজ্যকে (দেহি) প্রদান করুন । (বৃষ্ণঃ) সুখের বৃষ্টিকারক রাজ্য (ঊর্মিঃ) সম্পর্কে জ্ঞাতা এবং (রাষ্ট্রদাঃ) রাজ্য প্রদানকারী (অসি) হন্ । (অমুষ্মৈ) সেই রাজ্যের রক্ষাকারীকে (রাষ্ট্রম্) ন্যায়পূর্বক প্রকাশিত রাজ্যকে (দেহি) প্রদান করুন । (রাষ্ট্রদা) রাজাদিগের কর্মদাতা (বৃষসেনঃ) বলবান সেনা দ্বারা যুক্ত (অসি) হন্ । (মে) প্রত্যক্ষ বর্ত্তমান আমার জন্য (স্বাহা) সুন্দর বাণী দ্বারা (রাষ্ট্রম্) রাজ্যকে (দেহি) প্রদান করুন তথা (রাষ্ট্রদাঃ) প্রত্যক্ষ রাজ্য প্রদাতা (বৃষসেনঃ) আনন্দিত পুষ্টসেনা যুক্ত (অসি) হন্ । এইজন্য আপনি (অমুষ্মৈ) সেই পরোক্ষ পুরুষের জন্য (রাষ্ট্রম্) রাজ্যকে (দেহি) প্রদান করুন ॥ ২ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যে রাজপুরুষ দুষ্ট প্রাণিদের জিতিয়া প্রত্যক্ষ ও অপ্রত্যক্ষ শ্রেষ্ঠ পুরুষদিগের সৎকার করিয়া অধিকার ও শোভা প্রদান করে, তাহার জন্য চক্রবর্ত্তী রাজ্যের অধিকার হওয়া দরকার ॥ ২ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    বৃষ্ণ॑ऽঊ॒র্মির॑সি রাষ্ট্র॒দা রা॒ষ্ট্রং মে॑ দেহি॒ স্বাহা॑ বৃষ্ণ॑ऽঊর্মির॑সি রাষ্ট্র॒দা রা॒ষ্ট্রম॒মুষ্মৈ॑ দেহি বৃষসে॒নো᳖ऽসি রাষ্ট্র॒দা রা॒ষ্ট্রং মে॑ দেহি॒ স্বাহা॑ বৃষসে॒নো᳖ऽসি রাষ্ট্র॒দা রা॒ষ্ট্রম॒মুষ্মৈ॑ দেহি ॥ ২ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    বৃষ্ণ ঊর্মিরিত্যস্য বরুণ ঋষিঃ । বৃষা দেবতা । স্বরাড্ ব্রাহ্মী পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
    পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

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