यजुर्वेद - अध्याय 10/ मन्त्र 30
ऋषिः - शुनःशेप ऋषिः
देवता - क्षत्रपतिर्देवता
छन्दः - स्वराट आर्षी जगती,
स्वरः - धैवतः
76
स॒वि॒त्रा प्र॑सवि॒त्रा सर॑स्वत्या वा॒चा त्वष्ट्रा॑ रू॒पैः पू॒ष्णा प॒शुभि॒रिन्द्रे॑णा॒स्मे बृह॒स्पति॑ना॒ ब्रह्म॑णा॒ वरु॑णे॒नौज॑सा॒ऽग्निना॒ तेज॑सा॒ सोमे॑न॒ राज्ञा॒ विष्णु॑ना दश॒म्या दे॒वत॑या॒ प्रसू॑तः प्रस॑र्पामि॥३०॥
स्वर सहित पद पाठस॒वि॒त्रा। प्र॒स॒वि॒त्रेति॑ प्रऽसवि॒त्रा। सर॑स्वत्या। वा॒चा। त्वष्ट्रा॑। रू॒पैः। पू॒ष्णा। प॒शुभि॒रिति॑ प॒शुऽभिः॑। इन्द्रे॑ण। अ॒स्मेऽइत्य॒स्मे। बृह॒स्पति॑ना। ब्रह्म॑णा। वरु॑णेन। ओज॑सा। अ॒ग्निना॑। तेज॑सा। सोमे॑न। राज्ञा॑। विष्णु॑ना। द॒श॒म्या। दे॒वत॑या। प्रसू॑त॒ इति॒ प्रऽसू॑तः। प्र। स॒र्पा॒मि॒ ॥३०॥
स्वर रहित मन्त्र
सवित्रा प्रसवित्रा सरस्वत्या वाचा त्वष्ट्रा रूपैः पूष्णा पशुभिरिन्द्रेणास्मे बृहस्पतिना ब्रह्मणा वरुणेनौजसाग्निना तेजसा सोमेन राज्ञा विष्णुना दशम्या देवतया प्रसूतः प्रसर्पामि ॥
स्वर रहित पद पाठ
सवित्रा। प्रसवित्रेति प्रऽसवित्रा। सरस्वत्या। वाचा। त्वष्ट्रा। रूपैः। पूष्णा। पशुभिरिति पशुऽभिः। इन्द्रेण। अस्मेऽइत्यस्मे। बृहस्पतिना। ब्रह्मणा। वरुणेन। ओजसा। अग्निना। तेजसा। सोमेन। राज्ञा। विष्णुना। दशम्या। देवतया। प्रसूत इति प्रऽसूतः। प्र। सर्पामि॥३०॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
कीदृग्गुणैः सह राज्ञा राज्ञ्या वा भवितव्यमित्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे राजप्रजाजनाः यथाऽहं प्रसवित्रा सवित्रा सरस्वत्या वाचा त्वष्ट्रा रूपैः पूष्णा पशुभिरिन्द्रेणास्मे ब्रह्मणा बृहस्पतिनौजसा वरुणेन तेजसाऽग्निना राज्ञा सोमेन दशम्या देवतया विष्णुना च सह प्रसूतः सन् प्रसर्पामि तथा यूयमपि प्रसर्पध्वम्॥३०॥
पदार्थः
(सवित्रा) प्रेरकेन वायुना (प्रसवित्रा) सकलचेष्टोत्पादकेनेव शुभकर्मणा (सरस्वत्या) प्रशस्तविज्ञानक्रियायुक्त्या (वाचा) वेदवाण्येव सत्यभाषणेन (त्वष्ट्रा) छेदकेन प्रतापिना सूर्य्येणेव न्यायेन (रूपैः) सुखस्वरूपैः (पूष्णा) पृथिव्या। पूषेति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं॰१.१) (पशुभिः) गवादिभिरिव प्रजायाः पालनेन (इन्द्रेण) विद्युदिवैश्वर्येण (अस्मे) अस्माभिः (बृहस्पतिना) बृहतां पालकेन चतुर्वेदविदा विदुषेव विद्यासुशिक्षाप्रचारेण (ब्रह्मणा) वेदार्थज्ञानेन ज्ञापनेनेवोपदेशकेन (वरुणेन) वरेण जलसमूहेनेव शान्त्या (ओजसा) बलेन (अग्निना) पावकेन (तेजसा) तीक्ष्णेन ज्योतिषेव शत्रुदाहकत्वेन (सोमेन) चन्द्रेण प्रकाशमानेनेवाह्लादकत्वेन (राज्ञा) प्रकाशमानेन (विष्णुना) व्यापकेन परमेश्वरेणेव शुभगुणकर्मस्वभावेन (दशम्या) दशानां पूरिकया (देवतया) देदीप्यमानया सह (प्रसूतः) प्रेरितः (प्र) प्रगतः (सर्पामि) चलामि॥ अयं मन्त्रः (शत॰ ५.४.५.२) व्याख्यातः॥३०॥
भावार्थः
यो जनः सूर्य्यादिगुणयुक्तः पितृवत्प्रजापालकः स्यात्, स राजा भवितुं योग्यः। यश्चैवं पुत्रवद् वर्त्तमानो भवेत् स प्रजा भवितुमर्हति॥३०॥
हिन्दी (3)
विषय
राजा वा राणी को कैसे गुणों से युक्त होना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे प्रजा और राजपुरुषो! जैसे मैं (प्रसवित्रा) प्रेरणा करने वाले वायु (सवित्रा) सम्पूर्ण चेष्टा उत्पन्न करानेहारे के समान शुभ कर्म (सरस्वत्या) प्रशंसित विज्ञान और क्रिया से युक्त (वाचा) वेदवाणी के समान सत्यभाषण (त्वष्ट्रा) छेदक और प्रतापयुक्त सूर्य के समान न्याय (रूपैः) सुखरूपों (पूष्णा) पृथिवी (पशुभिः) गौ आदि पशुओं के समान प्रजा के पालन (इन्द्रेण) बिजुली (अस्मे) हम (बृहस्पतिना) बड़ों के रक्षक चार वेदों के जाननेहारे विद्वान् के समान विद्या और सुन्दर शिक्षा के प्रचार (ओजसा) बल (वरुणेन) जल के समुदाय (तेजसा) तीक्ष्ण ज्योति के समान शत्रुओं के चलाने (अग्निना) अग्नि (राज्ञा) प्रकाशमान आनन्द के होने (सोमेन) चन्द्रमा (दशम्या) दशसंख्या को पूर्ण करने वाली (देवतया) प्रकाशमान और (विष्णुना) व्यापक ईश्वर के समान शुभ गुण, कर्म और स्वभाव से (प्रसूतः) प्रेरणा किया हुआ मैं (प्रसर्पामि) अच्छे प्रकार चलता हूं, वैसे तुम लोग भी चलो॥३०॥
भावार्थ
जो मनुष्य सूर्य्यादि गुणों से युक्त पिता के समान रक्षा करनेहारा हो, वह राजा होने के योग्य है, और जो पुत्र के समान वर्त्ताव करे, वह प्रजा होने योग्य है॥३०॥
विषय
देवतया-प्रसूतः
पदार्थ
इस मन्त्र का मुख्य वाक्य यह है कि ( देवतया ) = देवता से ( प्रसूतः ) = [ प्रेरितः ] प्रेरित हुआ-हुआ ( प्रसर्पामि ) = मैं अपनी इस जीवन-यात्रा में आगे और आगे बढ़ता हूँ। ‘किन-किन देवताओं से और किस-किस दृष्टिकोण से प्रेरित हुआ-हुआ’, इस प्रश्न का उत्तर निम्न वाक्यों में द्रष्टव्य है— १. ( सवित्रा ) = सविता देव से, सूर्य से ( प्रसवित्रा ) = प्रकृष्ट प्रेरणा के दृष्टिकोण से प्रेरित हुआ-हुआ मैं आगे और आगे चलता हूँ। सूर्य मुझे तीन वाक्यों में यह उत्कृष्ट प्रेरणा दे रहा है कि [ क ] मेरी तरह आगे और आगे बढ़ते चलो, [ ख ] स्तुति- निन्दा से विचलित न होओ [ ग ] तुम्हारी सब क्रियाएँ बिना पक्षपात के हों। मैं राजा व रंक दोनों के भवनों व झोंपड़ों में समानरूप से प्रकाश प्राप्त कराता हूँ। तूने भी बिना भेदभाव के अपना व्यवहार करना।
२. ( सरस्वत्या ) = विद्या की अधिदेवता सरस्वती से ( वाचा ) = वाणी के दृष्टिकोण से, ज्ञान की वाणी के हेतु से प्रेरित हुआ-हुआ मैं चलता हूँ। सरस्वती की प्रेरणा यही है कि कण-कण ज्ञानसंग्रह करके तथा एक-एक क्षण का उपयोग करते हुए तूने जीवन-यात्रा में चलना।
३. ( त्वष्ट्रा ) = त्वष्टा से ( रूपैः ) = रूपों के दृष्टिकोण से प्रेरित हुआ-हुआ मैं चलता हूँ। त्वष्टा देवशिल्पी है, यह गर्भस्थ बालक के अङ्ग-प्रत्यङ्ग को सुरूप बनाता है। यह यही प्रेरणा देता है कि अपने स्वास्थ्य का पूर्ण ध्यान करते हुए उत्तम रूपवाले बने रहना। हम स्वस्थ रहें और उत्तम रूपवाले बने रहें।
४. ( पूषणा ) = पूषादेवता से ( पशुभिः ) = पशुओं के दृष्टिकोण से प्रेरित हुआ-हुआ मैं चलता हूँ। पोषण की देवता ‘पूषा’ है। यह एक ही बात कहती है कि घर में गौ आदि पशुओं को अवश्य रखना। गौ के बिना सबका समुचित पोषण सम्भव नहीं। गौ ही दुग्धादि से समुचित पोषण करती हुई हमें ‘वसु, रुद्र व आदित्य’ बनाती है।
५. ( इन्द्रेण ) = परमैश्वर्यशाली प्रभु से, देवराट् से, ( अस्मे ) = ‘हमारा ही बने रहना’ इस प्रकार प्रेरणा लेता हुआ मैं जीवन-यात्रा में चलता हूँ। प्रभु कहते हैं कि संसार में विषयों में उलझकर हमें भुला न देना। हम संसार में रहें, पर प्रभु को भूल न जाएँ।
६. ( बृहस्पतिना ) = सर्वोच्च दिशा के, ऊर्ध्वा के, अधिपति बृहस्पति से ( ब्रह्मणा ) = बड़ा बनने के दृष्टिकोण से प्रेरित हुआ-हुआ मैं चलता हूँ। बृहस्पति यही कहते हैं कि संसार में बड़ा बनने का प्रयत्न करना, कोई-न-कोई निर्माण का कार्य अवश्य करना—यही ब्रह्म बनने का मार्ग है। ब्रह्मा [ बतमंजवत ] निर्माता है।
७. ( वरुणेन ) = वरुणदेव से ( ओजसा ) = ओजस्वी बनने के हेतु से प्रेरित हुआ-हुआ मैं चलता हूँ। वरुण देव मुझे यही कह रहे हैं कि द्वेष का निवारण करना, व्रतों के बन्धन में अपने को बाँधना, जिससे तुम ओजस्वी बन सको। द्वेषाङ्गिन में जलता हुआ अनियन्त्रित जीवनवाला व्यक्ति ओजस्वी नहीं होता।
८. ( अग्निना ) = अग्निदेव से ( तेजसा ) = तेज के दृष्टिकोण से प्रेरित हुआ-हुआ मैं चलता हूँ। अग्नि मुझे यही कह रही है कि जैसे मैं अपने तेज से सब मलों को भस्म कर देती हूँ, उसी प्रकार तूने सब मलों का दहन करते हुए संसार में आगे बढ़ना।
९. ( सोमेन ) = सोमदेवता से ( राज्ञा ) = [ राजृ दीप्तौ ] दीप्त, यशस्वी [ glorious ] जीवन बिताने के लिए प्रेरित हुआ-हुआ मैं जीवन-यात्रा में आगे बढ़ता हूँ। सोम मानो मुझे यही कह रहा है कि मेरी रक्षा करते हुए स्वस्थ-शरीर, निर्मल-मन व तीव्र बुद्धिवाला होकर उज्ज्वल जीवनवाला बनना [ सोम = वीर्य ]। इस उज्ज्वल जीवन में सौम्यता हो, उग्रता न हो।
१०. अब ( दशम्या ) = दशमी देवता ( विष्णुना ) = विष्णु से प्रेरित हुआ-हुआ मैं सब व्यवहार करता हूँ। इस देवता की प्रेरणा यही है कि ‘विष् व्याप्तौ’ व्यापक दृष्टिकोणवाला बनना, उदार हृदयवाला बनना। संकुचित मनोवृत्तिवाला न बन जाना। तेरा सारा व्यवहार विशालता, उदारता को लिये हुए हो। ‘उदारं धर्ममित्याहुः’ = यह उदारता ही धर्म है।
भावार्थ
भावार्थ — हमारा जीवन देवों के आशीर्वाद से प्रेरणा लेकर चले। प्रेरणा यह है— सूर्य—आगे बढ़ो, स्तुति-निन्दा से विचलित न होओ, बिना पक्षपात के तुम्हारा व्यवहार हो। सरस्वती—अधिक-से-अधिक ज्ञानवाणियों का उपादान करना। त्वष्टा—स्वास्थ्य से सुरूप रहना। पूषा—घर में गौ अवश्य रखनी। गौ का स्थान कुत्ता न ले-ले। इन्द्र—प्रभु का ही बने रहना। बृहस्पति—बड़ा बनना। वरुण—ओजस्वी बनना। अग्नि—तेजस्वी होना। सोम—यशस्वी होना। विष्णु—उदार बनना।
विषय
उत्तमपुत्र प्राप्ति ।
भावार्थ
( १ ) ( प्रसवित्रा ) समस्त ऐश्वर्यों के उत्पादक, सब कर्मो प्रेरक ( सवित्रा ) सविता सूर्य या वायुके समान विद्यमान प्रेरक आज्ञापक और कार्यप्रवर्तक के दिव्यगुण से, ( २ ) ( सरस्वत्या वाचा ) उत्तम विज्ञान युक्त वाणी से, ( ३ ) ( रूपैः ) नाना प्रकार के प्राणियों की नानां जातियों के द्वारा प्रसिद्ध ( त्वष्टा ) प्रजापति, स्वष्टा के समान प्रजा और राष्ट्र के पशुओं के नाना भेदों से प्रसिद्ध त्वष्टा या प्रजा- पति के रूप से, अथवा नाना प्रकार के विविध शिल्पों से उत्पन्न पदार्थों सहित त्वष्टा, शिल्पी से ( ४ ) ( पशुभिः पूष्या) पशुओं से युक्त पूषा, या सर्वपोषाक पृथिवी से, ( ५ ) ब्रह्मणा वेद के ज्ञान से युक्त (बृहस्पतिना ) वाक्पति वेदज्ञ से, ( ६ ) ( अस्मे इन्द्रेण ) अपने आप स्वयं इन्द्र, राजा रूप से, ( ७ ) ( ओजसा वरुणेन ) पराक्रम से युक्त वरुण से, (८) ( तेजसा अग्निना ) तेज से युक्त अग्नि से, ( ९ ) ( राज्ञा सोमेन ) राजा स्वरूप सोम से, (१०) ( दशम्या ) दश संख्यापूर्ण करनेवाले (विष्णुना ) व्यापक राजशक्ति रूप या समस्त राष्ट्रमय यज्ञ वा प्रजापति रूप विष्णु इन दस ( देवतया ) देव अर्थात् राजा होने योग्य विशेष गुणों और सामर्थ्यों द्वारा ( प्रसूतः ) प्रेरित या शक्तिमान् होकर मैं ( प्रसर्पामि ) आगे उन्नत, उत्कृष्ट मार्ग पर गमन करूं । शत० ५ ॥ ४ । ५ । २ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शुनःशेप ऋषिः । मन्त्रोक्ता देवताः । स्वराड् ब्राह्मी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
मराठी (2)
भावार्थ
जे माणूस सूर्याप्रमाणे व पित्याप्रमाणे रक्षक असतो तो राजा होण्यायोग्य असतो व पुत्राप्रमाणे वर्तणूक करणारे लोक प्रजा बनण्यायोग्य असतात.
विषय
राजा आणि राज्ञी, यांनी कोण कोणत्या गुणांनी युक्त असावे, हे पुढील मंत्रात सांगितले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (राजाने कथन प्रजाजनांप्रति) हे प्रजाजन हो आणि राजपुरुषहो, ज्याप्रमाणे मी (राजा) (प्रसवित्रा) सर्वांना प्रेरणा देणार्या आणि (सवित्रा) समस्त व्यवहार वा शुभ कर्म करण्याचे कारण असलेल्या वायूप्रमाणे शुभ कर्म (करतो) (सरस्वत्या) प्रशंसनीय विज्ञान व क्रिया यांनी युक्त अशा (वाचा) वेदवाणीप्रमाणे सत्यभाषण करतो, (त्वष्ट्रा) भेदकशक्तीपूर्ण आणि प्रतापयुक्त सूर्याप्रमाणे न्याय करतो, (रुपै:) सुखरूप (पूष्णा) पृथ्वी आणि पशुभि:) गौ आदी पशूंप्रमाणे माझ्या प्रजेचे पालन करतो, (इन्द्रेण) विद्युतेप्रमाणे आणि (अस्त्रे) आमच्यासाठी (बृहस्पतिमा) महाजनांचे रक्षक चारही वेदांचे ज्ञाता विद्वानांप्रमाणे विद्येचा व श्रेष्ठ शिक्षणाचा प्रसार करतो (ओजस्प) शक्तीप्रमाणे (वरूणेन) व जलराशीप्रमाणे आणि (तेजसा) तीव्र ज्योतीप्रमाणे शत्रूंना विचलित करतो, असा मी (अग्निमा) (अग्नीद्वारा) (राज्ञा) प्रकाश व आनंदवृत्तीद्वारा (सोमेन) तसेच चंद्राच्या (दशम्या) दहा संख्या पूर्ण करणार्या तिथीप्रमाणे (देवतया) प्रकाशाने (दशमीतिथीच्या चंद्राप्रमाणे) आणि (विष्णुना) व्यापक ईश्वराप्रमाणे शुभ गुण, कर्म आणि स्वभावाने (प्रस्तुत:) प्रेरणा प्राप्त करतो आणि (प्रसर्पमि) त्याप्रमाणे उत्तम प्रकारे गति (प्रगती वा उन्नती) करतो, त्याप्रमाणे तुम्ही (प्रजाजनांनी आणि राजकर्मचार्यांनी) देखील चालावे. (माझ्या म्हणजे (राजा वा राष्ट्राध्यक्षाच्या) कर्म, आचरण चरित्र याप्रमाणे प्रजा व राजपुरुषांनी वागावे) ॥30॥
भावार्थ
भावार्थ -जो माणूस सूर्यादी (वायु, जल, अग्नी) पदार्थांच्या गुणांनी युक्त आहे, पित्याप्रमाणे प्रजेचे रक्षण करणारा आहे, तोच राजा होण्यास पात्र आहे आणि जो माणूस पुत्राप्रमाणे वागणारा (आज्ञाकारी, नम्र, कार्यशील) आहे, त्यालाच प्रजाजन होण्यास पात्र समजावे ॥30॥
इंग्लिश (3)
Meaning
I go forward urged onward by the impelling God, the truthful speech full of Vedic knowledge, the justice based on real facts, the Earth that rears different cattle, our supremacy, the master of Vedic knowledge, the unperturbed tranquillity, the fiery strength to suppress the enemies, the pleasure giving brilliance of the moon, and by the tenth, i. e. , acting upon the qualities, actions, and nature of the Effulgent, Omnipresent God.
Meaning
Inspired by Lord Savita, the creator of life, for creativity, enlightened by the sacred word of the Veda by the grace of Saraswati, the Lord’s spirit of omniscience, projecting various forms of development by the grace of Twashta, the Lord’s power of art, breathing the generosity of the earth (Pusha) to nourish the animals and other living creatures, realizing the possibilities of growth through electric energy by the grace of Indra, the Lord’s power and force of nature, with the magnanimity of Brihaspati, the Lord’s immanence in the universe and His eternal wisdom revealed in the Veda, with a sense of honour and obligation by the grace of Varuna, the Lord’s majesty and glory, with the heat of fire by the grace of Agni, the Lord’s light and refulgence, with the soothing vitality and beneficence of mind like the vitality of Soma and beauty of the moon, and with broadness of mind inspired by the Lords omnipresence in the universe, the tenth attribute of the Lord as Vishnu, and finally, supported by the will and words of our people — inspired, shaped and committed thus I (the ruler) move on in the business of governance.
Translation
I move forward urged by the creator, the inspirer, by the learning divine of good speech, by the supreme mechanic, the giver of forms, by the nourisher with cattle, by this resplendent Lord, by the Lord Supreme of the intellectual power, by the venerable Lord of vigour, by the adorable Lord of radiance, by the blissful Lord, the sovereign, and by the tenth divine power, the omnipresent Lord. (1)
Notes
Prasütah, urged or impelled by. | DeSamya, by the tenth divine power.
बंगाली (1)
विषय
কীদৃগ্ুণৈঃ সহ রাজ্ঞা রাজ্ঞ্যা বা ভবিতব্যমিত্যুপদিশ্যতে ॥
রাজা ও রাণী কেমন গুণযুক্ত হইবেন এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে প্রজা এবং রাজ পুরুষগণ! যেমন আমি (প্রসবিতা) প্রেরণাদায়ী বায়ু (সবিত্রা) সম্পূর্ণ চেষ্টা উৎপন্ন কারীর সমান শুভ কর্ম (সরস্বত্যা) প্রশংসিত বিজ্ঞান এবং ক্রিয়াযুক্ত (বাচা) বেদবাণীর ন্যায় সত্যভাষণ (ত্বষ্ট্রা) ছেদকও প্রতাপযুক্ত সূর্য্যের সমান ন্যায় (রূপৈঃ) সুখরূপ (পূষ্ণা) পৃথিবী (পশুভিঃ) গাভি ইত্যাদি পশু সমান প্রজার পালন, (ইন্দ্রেণ) বিদ্যুৎ (অস্মে) আমরা (বৃহস্পতিনা) গুরুজনদের রক্ষক, চারি বেদের জ্ঞাতা বিদ্বান্ সম বিদ্যা ও সুন্দর শিক্ষা প্রচার (ওজসা) বল (বরুণেন) জল সমুদায় (তেজসা) তীক্ষ্ন জ্যোতির সমান শত্রুদিগকে চালিত করি (অগ্নিনা) অগ্নি (রাজ্ঞা) প্রকাশমান আনন্দ হইবার (সোমেন) চন্দ্র (দশম্যা) দশসংখ্যা পূর্ণকারক (দেবতয়া) প্রকাশমান এবং (বিষ্ণুনা) ব্যাপক ঈশ্বরের ন্যায় শুভ গুণ-কর্ম এবং স্বভাব হইতে (প্রসূতঃ) প্রেরিত আমি (প্রসর্পামি) সম্যক্ রূপে গমন করি । সেইরূপ তোমরাও গমন কর ॥ ৩০ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- যে মনুষ্য সূর্য্যাদি গুণযুক্ত পিতৃসদৃশ রক্ষাকর্ত্তা সেই রাজা হইবার যোগ্য এবং যে প্রজাসদৃশ ব্যবহার করিবে সে প্রজা হইবার যোগ্য ॥ ৩০ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
স॒বি॒ত্রা প্র॑সবি॒ত্রা সর॑স্বত্যা বা॒চা ত্বষ্ট্রা॑ রূ॒পৈঃ পূ॒ষ্ণা প॒শুভি॒রিন্দ্রে॑ণা॒স্মে বৃহ॒স্পতি॑না॒ ব্রহ্ম॑ণা॒ বর॑ুণে॒নৌজ॑সা॒ऽগ্নিনা॒ তেজ॑সা॒ সোমে॑ন॒ রাজ্ঞা॒ বিষ্ণু॑না দশ॒ম্যা দে॒বত॑য়া॒ প্রসূ॑তঃ প্র স॑র্পামি ॥ ৩০ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
সবিত্রেত্যস্য শুনঃশেপ ঋষিঃ । সবিত্রাদিমন্ত্রোক্তা দেবতাঃ ।
ভুরিগ্ব্রাহ্মী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ । ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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