यजुर्वेद - अध्याय 10/ मन्त्र 4
ऋषिः - वरुण ऋषिः
देवता - सूर्य्यादयो मन्त्रोक्ता देवताः
छन्दः - जगती,स्वराट पङ्क्ति,स्वराट संकृति,भूरिक आकृति,भूरिक त्रिष्टुप्
स्वरः - मध्यमः, पञ्चमः, स्वरः
171
सूर्य॑त्वचस स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॒ सूर्य॑त्वचस स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्त॒ सूर्य॑वर्चस स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॒ सूर्य॑वर्चस स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्त॒ मान्दा॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॒ मान्दा॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्त व्रज॒क्षित॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॑ व्रज॒क्षित॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्त॒ वाशा॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॒ वाशा॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्त॒ शवि॑ष्ठा स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे दत्त॒ स्वाहा शवि॑ष्ठा स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्त॒ शक्व॑री स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॑ शक्व॑री स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्त॒ जन॒भृत॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॒ जन॒भृत॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ दत्त विश्व॒भृत॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ दत्त॒ स्वाहा॑ विश्व॒भृत॑ स्थ राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ द॒त्तापः॑ स्व॒राज॑ स्थ राष्ट्र॒दा राष्ट्र॒म॒मुष्मै॑ दत्त। मधु॑मती॒र्मधु॑मतीभिः पृच्यन्तां॒ महि॑ क्ष॒त्रं क्ष॒त्रिया॑य वन्वा॒नाऽअना॑धृष्टाः सीदत स॒हौज॑सो॒ महि॑ क्ष॒त्रं क्ष॒त्रिया॑य॒ दध॑तीः॥४॥
स्वर सहित पद पाठसूर्यत्वचस॒ इति॒ सूर्य॑ऽत्वचसः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। सूर्यत्वचस॒ इति॒ सूर्यऽत्व॒चसः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। सूर्यवर्चस॒ इति॒ सूर्य॑ऽवर्चसः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। सूर्यवर्चस॒ इति॒ सूर्य॑ऽवर्चसः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। मान्दाः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒दाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। मान्दाः॑। स्थः॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। व्र॒ज॒क्षित॒ इति॑ व्र॒ज॒ऽक्षितः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त। स्वाहा॑। व्र॒ज॒क्षित॒ इति॑ व्रज॒ऽक्षितः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। वाशाः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। वाशाः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। शवि॑ष्ठाः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। शवि॑ष्ठाः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। शक्व॑रीः। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। शक्व॑रीः। स्थ॒। राष्ट्रदा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। ज॒न॒भृत॒ इति॑ जन॒ऽभृतः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। ज॒न॒भृत॒ इति॑ जन॒ऽभृतः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। वि॒श्व॒भृत॒ इति विश्व॒ऽभृतः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। द॒त्त॒। स्वाहा॑। वि॒श्व॒भृत॒ इति॑ विश्व॒ऽभृतः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। आपः॑। स्व॒राज॒ इति॑ स्व॒ऽराजः॑। स्थ॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। द॒त्त॒। मधु॑मती॒रिति॒ मधु॑ऽमतीः। मधु॑मतीभि॒रिति॒ मधु॑मतीऽभिः। पृ॒च्य॒न्ता॒म्। महि॑। क्ष॒त्रम्। क्ष॒त्रियाय॑। व॒न्वा॒नाः। अना॑धृष्टाः। सी॒द॒त॒। स॒हौज॑स॒ इति॑ स॒हऽओ॑जसः। महि॑। क्ष॒त्रम्। क्ष॒त्रिया॑य। दध॑तीः ॥४॥
स्वर रहित मन्त्र
सूर्यत्वचस स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे दत्त स्वाहा सूर्यत्वचस स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्त सूर्यवर्चस स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे दत्त स्वाहा सूर्यवर्चस स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्त मान्दा स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे दत्त स्वाहा मान्दा स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्त व्रजक्षित स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे दत्त स्वाहा व्रजक्षित स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्त वाशा स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे दत्त स्वाहा वाशा स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्त शविष्ठा स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे दत्त स्वाहा शविष्ठा स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्त शक्वरी स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे दत्त स्वाहा शक्वरी स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्त जनभृत स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे दत्त स्वाहा जनभृत स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्त विश्वभृत स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रम्मे दत्त स्वाहा विश्वभृत स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्तापः स्वराज स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रममुष्मै दत्त । मधुमतीर्मधुमतीभिः पृच्यन्ताम्महि क्षत्रङ्क्षत्रियाय वन्वानाः ऽअनाधृष्टाः सीदत सहौजसो महि क्षत्रङ्क्षत्रियाय दधतीः ॥
स्वर रहित पद पाठ
सूर्यत्वचस इति सूर्यऽत्वचसः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। मे। दत्त। स्वाहा। सूर्यत्वचस इति सूर्यऽत्वचसः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। अमुष्मै। दत्त। सूर्यवर्चस इति सूर्यऽवर्चसः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। मे। दत्त। स्वाहा। सूर्यवर्चस इति सूर्यऽवर्चसः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। अमुष्मै। दत्त। मान्दाः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रदाः। राष्ट्रम्। मे। दत्त। स्वाहा। मान्दाः। स्थः। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। अमुष्मै। दत्त। व्रजक्षित इति व्रजऽक्षितः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। मे। दत्त। स्वाहा। व्रजक्षित इति व्रजऽक्षितः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। अमुष्मै। दत्त। वाशाः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। मे। दत्त। स्वाहा। वाशाः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। अमुष्मै। दत्त। शविष्ठाः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। मे। दत्त। स्वाहा। शविष्ठाः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। मे। दत्त। स्वाहा। शक्वरीः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। मे। दत्त। स्वाहा। शक्वरीः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। अमुष्मै। दत्त। जनभृत इति जनऽभृतः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। मे। दत्त। स्वाहा। जनभृत इति जनऽभृतः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। मे। दत्त। स्वाहा। विश्वभृत इति विश्वऽभृतः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। मे। दत्त। स्वाहा। विश्वभृत इति विश्वऽभृतः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। अमुष्मै। दत्त। आपः। स्वराज इति स्वऽराजः। स्थ। राष्ट्रदा इति राष्ट्रऽदाः। राष्ट्रम्। अमुष्मै। दत्त। मधुमतीरिति मधुऽमतीः। मधुमतीभिरिति मधुमतीऽभिः। पृच्यन्ताम्। महि। क्षत्रम्। क्षत्रियाय। वन्वानाः। अनाधृष्टाः। सीदत। सहौजस इति सहऽओजसः। महि। क्षत्रम्। क्षत्रियाय। दधतीः॥४॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
मनुष्याः कीदृशा भूत्वा कस्मै किं किं प्रदद्युरित्याह॥
अन्वयः
हे राजपुरुषाः! यतो यूयं सूर्य्यत्वचसः सन्तः स्वाहा राष्ट्रदा स्थ तस्मान्मे राष्ट्रं दत्त। यतः सूर्य्यत्वचसः सन्तो यूयं राष्ट्रदा स्थ तस्मादमुष्मै राष्ट्रं दत्त। यतो यूयं सूर्य्यवर्चसः सन्तः स्वाहा राष्ट्रदा स्थ तस्मान्मे राष्ट्रं दत्त। यतो यूयं सूर्य्यवर्चसो राष्ट्रदा स्थ तस्मादमुष्मै राष्ट्रं दत्त। यतो यूयं व्रजक्षितः सन्तः स्वाहा राष्ट्रदा स्थ तस्मान्मे राष्ट्रं दत्त। यतो यूयं व्रजक्षितः सन्तो राष्ट्रदा स्थ तस्मादमुष्मै राष्ट्रं दत्त। यतो यूयं वाशाः सन्तः स्वाहा राष्ट्रदा स्थ तस्मान्मे राष्ट्रं दत्त। यतो यूयं वाशाः सन्तो राष्ट्रदा स्थ तस्मादमुष्मै राष्ट्रं दत्त। यतो यूयं शविष्ठाः सन्तः स्वाहा राष्ट्रदा स्थ तस्मान्मे राष्ट्रं दत्त। यतो यूयं शविष्ठा राष्ट्रदा स्थ तस्मादमुष्मै राष्ट्रं दत्त। यतो यूयं शक्वरीः सन्तः स्वाहा राष्ट्रदा स्थ तस्मान्मे राष्ट्रं दत्त। यतो यूयं शक्वरी राष्ट्रदा स्थ तस्मादमुष्मै राष्ट्रं दत्त। यतो यूयं जनभृतः सन्तः स्वाहा राष्ट्रदा स्थ तस्मान्मे राष्ट्रं दत्त। यतो यूयं जनभृतो राष्ट्रदा स्थ तस्मादमुष्मै राष्ट्रं दत्त। यतो यूयं विश्वभृतः सन्तः स्वाहा राष्ट्रदा स्थ तस्मान्मे राष्ट्रं दत्त। यतो यूयं विश्वभृतो राष्ट्रदा स्थ तस्मादमुष्मै राष्ट्रं दत्त। यतो यूयमापः स्वराजः सन्तो राष्ट्रदा स्थ तस्मान्मे राष्ट्रं दत्त। यतो यूयमापः स्वराजः स्थ तस्मादमुष्मै राष्ट्रं दत्त। हे सज्जनाः स्त्रियः! युष्माभिः क्षत्रियाय महि क्षत्रं वन्वानाः सहौजसः क्षत्रियाय महि क्षत्रं दधतीरनाधृष्टा मधुमतीर्मधुमतीभिः सुखानि पृच्यन्ताम्। हे सज्जनाः पुरुषाः! यूयमीदृशीः स्त्रियः सीदत प्राप्नुत॥४॥
पदार्थः
(सूर्यत्वचसः) सूर्य्यस्य त्वचः संवार इव त्वचो येषां ते (स्थ) भवथ (राष्ट्रदाः) (राष्ट्रम्) (मे) (दत्त) (स्वाहा) (सूर्यत्वचसः) (स्थ) (राष्ट्रदाः) (राष्ट्रम्) (अमुष्मै) (दत्त) (सूर्यवर्चसः) सूर्य्यस्य प्रकाश इव वर्चो विद्याध्ययनं येषां ते (स्थ) (राष्ट्रदाः) (राष्ट्रम्) (मे) (दत्त) (स्वाहा) (सूर्यवर्चसः) (स्थ) (राष्ट्रदाः) (राष्ट्रम्) (अमुष्मै) (दत्त) (मान्दाः) ये जनान् मन्दयन्त्यानन्दयन्ति त एव मान्दाः (स्थ) (राष्ट्रदाः) (राष्ट्रम्) (मे) (दत्त) (स्वाहा) (मान्दाः) (स्थ) (राष्ट्रदाः) (राष्ट्रम्) (अमुष्मै) (दत्त) (व्रजक्षितः) व्रजान् गवादिस्थित्यर्थान् देशान् क्षियन्ति निवासयन्ति ते (स्थ) (राष्ट्रदाः) (राष्ट्रम्) (मे) (दत्त) (स्वाहा) (व्रजक्षितः) (स्थ) (राष्ट्रदाः) (राष्ट्रम्) (अमुष्मै) (दत्त) (वाशाः) य उशन्ति कामयन्ते ते (स्थ) (राष्ट्रदाः) (राष्ट्रम्) (मे) (दत्त) (स्वाहा) (वाशाः) (स्थ) (राष्ट्रदाः) (राष्ट्रम्) (अमुष्मै) (दत्त) (शविष्ठाः) अतिशयेन बलवन्तः (स्थ) (राष्ट्रदाः) (राष्ट्रम्) (मे) (दत्त) (स्वाहा) (शविष्ठाः) (स्थ) (राष्ट्रदाः) (राष्ट्रम्) (अमुष्मै) (दत्त) (शक्वरीः) शक्तिमत्यः (स्थ) (राष्ट्रदाः) (राष्ट्रम्) (मे) (दत्त) (स्वाहा) (शक्वरीः) (स्थ) (राष्ट्रदाः) (राष्ट्रम्) (अमुष्मै) (दत्त) (जनभृतः) ये जनान् बिभ्रति ते (स्थ) (राष्ट्रदाः) (राष्ट्रम्) (मे) (दत्त) (स्वाहा) (जनभृतः) (स्थ) (राष्ट्रदाः) (राष्ट्रम्) (अमुष्मै) (दत्त) (विश्वभृतः) ये विश्वं बिभ्रति ते (स्थ) (राष्ट्रदाः) (राष्ट्रम्) (मे) (दत्त) (स्वाहा) (विश्वभृतः) (स्थ) (राष्ट्रदाः) (राष्ट्रम्) (अमुष्मै) (दत्त) (आपः) सकलविद्याधर्मव्यापिनः (स्वराजः) ये स्वं राजन्ते ते (स्थ) (राष्ट्रदाः) (राष्ट्रम्) (अमुष्मै) (दत्त) (मधुमतीः) मधुरादिगुणयुक्ता ओषधयः (मधुमतीभिः) मधुरादिगुणयुक्ताभिर्वसन्तादिभिर्ऋतुभिः (पृच्यन्ताम्) परिपच्यन्ताम् (महि) महत्पूज्यं (क्षत्रम्) क्षत्रियाणां राज्यम् (क्षत्रियाय) क्षत्रस्य पुत्राय (वन्वानाः) याचमानाः (अनाधृष्टाः) शत्रुभिरधर्षिताः (सीदत) (सहौजसः) ओजसा बलेन सह वर्त्तमानाः (महि) (क्षत्रम्) (क्षत्रियाय) (दधतीः) धरमाणाः॥ अयं मन्त्रः (शत॰ ५। ३। ४। १२-१८) व्याख्यातः॥४॥
भावार्थः
हे स्त्रीपुरुषाः! हे मनुष्याः सूर्यवन्न्यायप्रकाशकाः सूर्य इव विद्या दीपकाः सर्वेषामानन्दप्रदा गवादिपशुरक्षकाः शुभगुणैः कमनीया बलवन्तः स्वसदृशस्त्रियः विश्वम्भरा स्वाधीनाः सन्ति, तेऽन्येभ्यो राज्यं दातुं सेवितुं च शक्नुवन्ति, नेतर इति यूयं विजानीत॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
मनुष्यों को कैसा हो के किस-किस के लिये क्या-क्या देना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे राजपुरुषो! तुम लोग (सूर्य्यत्वचसः) सूर्य के समान अपने न्याय प्रकाश से सब तेज को ढांकने वाले होते हुए (स्वाहा) सत्य न्याय के साथ (राष्ट्रदाः) राज्य देनेहारे (स्थ) हो, इसलिये (मे) मुझे (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। हे मनुष्यो! जिस कारण (सूर्यत्वचसः) सूर्य्यप्रकाश के समान विद्या पढ़ने वाले होते हुए तुम लोग (राष्ट्रदाः) राज्य देनेहारे (स्थ) हो, इसलिये (अमुष्मै) उस विद्या में सूर्यवत् प्रकाशमान पुरुष के लिये (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। हे विद्वन् मनुष्यो! (सूर्यवर्चसः) सूर्य के समान तेजधारी होते हुए तुम लोग (स्वाहा) सत्य वाणी से (राष्ट्रदाः) राज्यदाता (स्थ) हो, इस कारण (मे) तेजस्वी मुझे (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये, जिस कारण (सूर्यवर्चसः) सूर्य्य के समान प्रकाशमान होते हुए आप लोग (राष्ट्रदाः) राज्य देनेहारे (स्थ) हो, इसलिये (अमुष्मै) उस प्रकाशमान पुरुष के लिये (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। जिस कारण (मान्दाः) मनुष्यों को आनन्द देनेहारे होते हुए आप लोग (स्वाहा) सत्य वचनों के साथ (राष्ट्रदाः) राज्य देने वाले (स्थ) हो, इसलिये (मे) आनन्द देनेहारे मुझे (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये, जिसलिये आप लोग (मान्दाः) प्राणियों को सुख देने वाले होके (राष्ट्रदाः) राज्यदाता (स्थ) हो, इसलिये (अमुष्मै) उस सुखदाता जन को (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। जिस कारण आप लोग (व्रजक्षितः) गौ आदि पशुओं के स्थानों को बसाते हुए (स्वाहा) सत्य क्रियाओं के सहित (राष्ट्रदाः) राज्यदाता (स्थ) हैं, इसलिये (मे) पशुरक्षक मुझे (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। जिस कारण आप लोग (व्रजक्षितः) स्थान आदि से पशुओं के रक्षक होते हुए (राष्ट्रदाः) राज्य देनेहारे (स्थ) हैं, इससे (अमुष्मै) उस गौ आदि पशुओं के रक्षक पुरुष के लिये राज्य को (दत्त) दीजिये। जिसलिये आप लोग (वाशाः) कामना करते हुए (स्वाहा) सत्यनीति से (राष्ट्रदाः) राज्यदाता (स्थ) हैं, इसलिये (मे) इच्छायुक्त मुझे (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। जिस कारण आप लोग (वाशाः) इच्छायुक्त होते हए (राष्ट्रदाः) राज्य देने वाले (स्थ) हैं, इसलिये (अमुष्मै) उस इच्छायुक्त पुरुष के लिये (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। जिस कारण आप लोग (शविष्ठाः) अत्यन्त बल वाले होते हुए (स्वाहा) सत्य पुरुषार्थ से (राष्ट्रदाः) राज्यदाता (स्थ) हैं, इस कारण (मे) बलवान् मुझे (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। जिस कारण आप लोग (शविष्ठाः) अति पराक्रमी (राष्ट्रदाः) राज्यदाता (स्थ) हैं, इस कारण (अमुष्मै) उस अति पराक्रमी जन के लिये (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। हे राणी लोगो! जिसलिये आप (शक्वरीः) सामर्थ्य वाली होती हुई (स्वाहा) सत्य पुरुषार्थ से (राष्ट्रदाः) राज्य देने हारी (स्थ) हैं, इसलिये (मे) सामर्थ्यवान् मुझे (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। जिस कारण आप (शक्वरीः) सामर्थ्ययुक्त (राष्ट्रदाः) राज्य देने वाली (स्थ) हैं, इस कारण (अमुष्मै) उस सामर्थ्ययुक्त पुरुष के लिये (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। जिसलिये आप लोग (जनभृतः) श्रेष्ठ मनुष्यों का पोषण करने हारी होती हुई (स्वाहा) सत्य कर्मों के साथ (राष्ट्रदाः) राज्य देने वाली (स्थ) हैं, इसलिये (मे) श्रेष्ठ गुणयुक्त मुझे (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। जिसलिये आप (जनभृतः) सज्जनों को धारण करनेहारे (राष्ट्रदाः) राज्यदाता (स्थ) हैं, इसलिये (अमुष्मै) उस सत्यप्रिय पुरुष के लिये (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। हे सभाध्यक्षादि राजपुरुषो! जिसलिये आप लोग (विश्वभृतः) सब संसार का पोषण करने वाले होते हुए (स्वाहा) सत्य वाणी के साथ (राष्ट्रदाः) राज्य देनेहारे (स्थ) हैं, इसलिये (मे) सब के पोषक मुझे (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। जिसलिये आप लोग (विश्वभृतः) विश्व को धारण करनेहारे (राष्ट्रदाः) राज्यदाता (स्थ) हैं, इसलिये (अमुष्मै) उस धारण करनेहारे मनुष्य के लिये (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। जिस कारण आप लोग (आपः) सब विद्या और धर्म विषय में व्याप्ति वाले होते हुए (स्वाहा) सत्य क्रिया से (राष्ट्रदाः) राज्य देनेहारे (स्थ) हैं, इस कारण (मे) शुभ गुणों में व्याप्त मुझे (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। जिसलिये आप लोग (आपः) सब विद्या और धर्म मार्ग को जाननेहारे (स्वराजः) आप से आप ही प्रकाशमान (राष्ट्रदाः) राज्यदाता (स्थ) हैं, इसलिये (अमुष्मै) उस धर्मज्ञ पुरुष के लिये (राष्ट्रम्) राज्य को (दत्त) दीजिये। हे सज्जन स्त्री लोगो! आप को चाहिये कि (क्षत्रियाय) राजपूतों के लिये (महि) बड़े पूजा के योग्य (क्षत्रम्) क्षत्रियों के राज्य को (वन्वानाः) चाहती हुई (सहौजसः) बल-पराक्रम के सहित वर्त्तमान (क्षत्रियाय) राजपूतों के लिये (महि) बड़े (क्षत्रम्) राज्य को (दधतीः) धारण करती हुई (अनाधृष्टाः) शत्रुओं के वश में न आने वाली (मधुमतीः) मधुर आदि रस वाली ओषधी (मधुमतीभिः) मधुरादि गुणयुक्त वसन्त आदि ऋतुओं से सुखों को (पृच्यन्ताम्) सिद्ध किया करें। हे सज्जन पुरुषो! तुम लोग इस प्रकार की स्त्रियों को (सीदत) प्राप्त होओ॥४॥
भावार्थ
हे स्त्री पुरुषो! जो सूर्य के समान न्याय और विद्या का प्रकाश कर सब को आनन्द देने, गौ आदि पशुओं की रक्षा करने, शुभ गुणों से शोभायमान, बलवान्, अपने तुल्य स्त्रियों से विवाह और संसार का पोषण करने वाले स्वाधीन हैं, वे ही औरों के लिये राज्य देने और आप सेवन करने में समर्थ होते हैं, अन्य नहीं॥४॥
विषय
प्रजा
पदार्थ
गत मन्त्र के अनुसार प्रस्तुत मन्त्र में भी कहते हैं कि हे प्रजाओ! आप
१.( सूर्यत्वचसः स्थ ) = सूर्य के समान देदीप्यमान त्वचावाली हो। स्वास्थ्य की दीप्ति आपके सारे शरीर को दीप्त कर रही है।
२. ( सूर्यवर्चसः स्थ ) = सूर्य के समान वर्चस्वाली आप हो। उपनिषद् में कहते हैं कि ‘प्राणः प्रजानामुदयत्येष सूर्यः’—यह सूर्य प्रजाओं का प्राण ही है। आप भी उसी प्रकार प्राणशक्ति-सम्पन्न हो।
३. ( मान्दाः स्थ ) = सदा प्रसन्न रहनेवाली हो।
४. ( व्रजक्षितः स्थः ) = [ व्रज गतौ ] सदा गति में निवास करनेवाली हो—सदा क्रियाशील जीवनवाली हो अथवा [ व्रजान् गवादिस्थित्यर्थान् देशान् क्षियन्ति निवासयन्ति—द० ] गौ आदि पशुओं के स्थानों को वसानेवाले हो।
५. ( वाशाः स्थ ) [ वाशृ शब्दे ] = सदा शुभ शब्दों—वेदमन्त्रों का उच्चारण करनेवाले हो।
६. ( शविष्ठाः स्थ ) = अत्यन्त बल-सम्पन्न हो [ शवस् = बल ] ७. ( शक्वरीःस्थ ) = कार्यों को करने में शक्तिशाली हो।
८. अपनी इस क्रियाशीलता के द्वारा ही ( जनभृतःस्थ ) = सब लोगों का धारण करनेवाली हो।
९. लोगों का ही क्या, आप ( विश्वभृतः स्थ ) = सारे संसार का भरण व पोषण कर रही हो। आपके कार्य विश्व के कल्याण के उद्देश्य से प्रेरित होकर हो रहे हैं। इस प्रकार बनकर आप ( राष्ट्रदाः ) = एक सच्चे राष्ट्र को देनेवाली हो, ( राष्ट्रं मे दत्त ) = तुम राष्ट्र को मुझ पुरोहित के लिए दो। ( स्वाहा ) = कर के रूप में उचित धन का त्याग करनेवाली बनो तथा ( राष्ट्रदाः ) = राष्ट्र के देनेवाली तुम ( अमुष्मै राष्ट्रं दत्त ) = उस चुने गये राज्याभिषिक्त राजा के लिए राष्ट्र को दो।
१०. आप ( स्वराजः ) = स्वयं अपना शासन करनेवाली ( आपः ) = सदा कर्मों में व्याप्त हो। ( राष्ट्रदाः ) = राष्ट्र को देनेवाली आप ( राष्ट्रं अमुष्मै दत्त ) = अमुक चुने गये सभापति के लिए राष्ट्र को दो। यहाँ इस अन्तिम वाक्य में केवल राजा के लिए राष्ट्र को सौंपने का विधान है। वस्तुतः शासन-भार राजा पर ही तो पड़ता है। पुरोहित राजा को मार्ग से विचलित न होने की प्रेरणा देता है।
११. ( मधुमतीः ) = माधुर्यवाली प्रजाएँ ( मधुमतीभिः ) = माधुर्यवाली प्रजाओं के साथ ( पृच्यन्ताम् ) = संपृक्त हों, अर्थात् प्रजाओं का परस्पर प्रेम हो, पारस्परिक प्रेम न होने पर राष्ट्र का बल क्षीण हो जाता है, अतः प्रजाएँ परस्पर मधुर व्यवहारवाली होती हुई ( क्षत्रियाय ) = राष्ट्र को आघातों से बचानेवाले राजा के लिए ( महि क्षत्रम् ) = महान् बल को ( वन्वानाः ) = संभक्त करानेवाली हों। राजा के बल को ये परस्पर एकता से रहती हुई ही बढ़ा सकती हैं।
१२. पुरोहित इन प्रजाओं से कहता है कि ( सह ओजसः ) = एकता के बलवाली तुम ( क्षत्रियाय ) = राष्ट्र को आघातों से बचानेवाले राजा के लिए ( महि क्षत्रं ) = महनीय बल को ( दधतीः ) = धारण करती हुई तुम ( अनाधृष्टाः ) = किन्ही भी शत्रुओं से धर्षित न होती हुई ( सीदत ) = इस राष्ट्र में विराजमान होओे।
भावार्थ
भावार्थ — प्रजा शक्तिशाली व माधुर्य से पूर्ण हो, परस्पर मेल से राष्ट्र की शक्ति को बढ़ानेवाली हो। ऐसी स्थिति में ही यह शत्रुओं से अनाधृष्य होती है।
विषय
राष्ट्रपद प्रजाओं के प्रतिनिधि रूप जलों से राज्याभिषेक ।
भावार्थ
( ८ ) हे उत्तम प्रजागणो ! आप लोग ( सूर्यत्वचसः स्थ ) सूर्य के दीप्तिमान आवरण के समान उज्ज्वल आवरणवाले, धनैश्वर्यवान् तेजस्वी हो । ( ९ ) ( सूर्यवर्चसः स्थ) सूर्य के तेज के समान तेज धारण करनेहारे हो । ( १० ) ( मान्दा : स्थ ) सबको आनन्दित, सुप्रसन्न करनेहारे हो । ( ११ ) ( व्रजक्षित: स्थ ) आप लोग गौ आदि पशुओं के समूहों के बीच में निवास करनेहारे हो । ( १२ ) ( वाशा: स्थ ) आप लोग कान्तिमान और जनों को अपने वश करनेहारे अथवा उत्तम मधुर वचन बोलने और उत्तम सुमधुर गायन या उपदेश करनेहारे वाग्मी हो । ( १३ ) आप लोग ( शविष्टाः स्थ ) अति बलवान हो । ( १४ ) आप लोग ( शकरी: स्थ ) शक्तिशाली हो । ( १५ ) आप लोग (जनभृतः स्थ ) समस्त जनों के कृषि आदि द्वारा, भरण पोषण करने में समर्थ हो । ( १६ ) आप लोग ( विश्वसृतः स्थ) विश्व, समस्त प्रजाओं को भरण पोषण करने में समर्थ हो । ( १७ ) आप लोग ( स्वराज: ) स्वयं अपने बल से उत्तम पद, प्रतिष्ठा पर विराजमान हो, आप सब नाना उत्तम गुणों को धारण करनेहारे प्रजागण, आप लोग सभी अपने २ सामर्थ्यों से ( राष्ट्रदाः ) राष्ट्र के देने या पालने में समर्थ हो । ( मे राष्ट्रं ) मुझे आप सब लोग राष्ट्र या राज्य का कार्य ( स्वाहा ) अति उत्तम रीति से सुविचार कर (दत्त) प्रदान करो। हे उपरोक्त नानागुणवाले प्रजागणो ! आप लोग राष्ट्र के देने में समर्थ हो, आप लोग (अमुष्मै) अमुक योग्य पुरुष को ( राष्ट्रं दत्त स्वाहा ) राज्य प्रदान करते हो। आप सब प्रजाऐं ( मधुमती ) जिस प्रकार मधुर जल मधुर जलों से मिलकर और मधुर होजाते हैं उसी प्रकार आप लोग ( मधुमती: ) उत्तम वाणी और ज्ञान से युक्त होकर ( मधुमतीभि: ) उत्तम बल और ज्ञान विज्ञानों से युक्त अन्य प्रजाओं से परस्पर (पृच्यन्ताम् ) सम्पर्क करो, मिलके एक दूसरे से सत्संग करो। और ( क्षत्रियाय) देश को क्षति से त्राण करने, पालन करने में समर्थ पुरुष को आप सब ( महि क्षत्रम् ) बड़ाभारी पालक बल, वीर्य ( वन्वानाः ) प्रदान करते हुए और स्वयं भी ( क्षत्रियाय ) बलवान् शूरवीर राष्ट्र को क्षति होने से त्राण करने या बचाने वाले राजा के लिये (महि क्षत्रं दधतीः ) बड़ा भारी बल सामर्थ्यं धारण करती हुई ( सहोजसः ) उसके समान एक साथ ही पराक्रमी बलशाली होकर ( अनाधृष्टाः ) शत्रुओं से कभी भी पराजित न होनेवाली अजेय होकर ( सीदत ) इस राष्ट्र में विराजमान रहो । प्रतिनिधिवाद से इन १६ प्रकार की प्रजाओं के द्वारा राज्याभिषेक को निबाहने के लिये कर्मकाण्ड में १६ प्रकार के भिन्न २ प्रकार जलों को ग्रहण किया जाता है। उनसे राजा राणी को सभी अमात्य, पुरोहित, ब्राह्मण, वैश्य एवं प्रजा के भिन्न २ प्रतिनिधिगण बारी २ से स्नान कराते हैं। गौणवृत्ति से ये सब विशेषण उन नाना जलों में भी संगत होते हैं । ये सौलह प्रजाएं राष्ट्रकलश और राजा की १६ कलाएं वा अङ्ग समझनी चाहिये । १६ प्रकार की प्रजाएं और १७ वां राजा स्वयं यह प्रजापति का 'सप्तदश' स्वरूप भी स्पष्ट है | शत० ५। ३ । ४ । २२-२८ ॥ उक्त १७ प्रकार के राष्ट्रदा जलों के निम्नलिखित रूप से गौणार्थ जानने चाहियें - ( १ ) ( वृष्णः ऊर्मि ) जल में प्रविष्ट पशु या पुरुष के आगे की तरंग के जल, ( वृष्णः ) सेचन में समर्थ पुरुष का ( ऊर्भिः ) तरंग है । (२) उसी पुरुष या पशु के पीछे की तरंग का जल ( वृषसेनाः असि० ) सेचन समर्थ पुरुष की सेना के समान । ( ३ ) ( अर्थेतः स्थ) किसी अर्थ या प्रयोजन अर्थात् यन्त्रचालन आदि में प्रेरित जल । ( ४ ) ( ओजस्वतीः स्थ) प्रजा के विपरीत दिशा में लौट के जानेवाले जल विशेष बल से युक्त ' ओजस्वती ' हैं । ( ५) ( परिवाहिणी : स्थ ) नदी के मार्ग को छोड़कर शाखा फूटकर बहनेवाले जल 'अपयतीः आपः' कहाते हैं, वे 'परिवाहिणी 'हैं। ( ६ ) ( अपांपतिः ) समुद्र के जल | (७) (अपांगर्भाः ) नदी में पड़े भँवर अर्थात् निवेष्य जिन जलों को अपने गर्भ में लेता है । ( ८ ) ( सूर्यस्वचसः ) बहते जलों में से जो जल स्थिर हों, लदा घाम में रहते हों । ( * ) धूप के रहते २ जो जल बरसते हों वे 'श्रातपव' जल कहाते हैं वे ( सूर्यवर्चसः) 'सूर्यवर्चस' कहाते हैं । ( १० ) तालाब के जल ( मान्दाः ) नाना जीवों के प्रमोद हेतु होने से 'मान्द' कहते हैं । ( ११ ) कूए के जल ( व्रजक्षितः ) या मेघ के जल 'व्रजक्षित्' कहाते हैं। ( १२ ) ओस के बिन्दुओं से संग्रह किये जल ( वाशाः ) 'वाशा' कहाते हैं । (१३) मधु को ( शविष्ठाः ) ' शविष्टा' कहा जाता है । (१४) गौ के प्रसव के पूर्व गर्भाशय से बाहर आनेवाले जल (शक्करी ) " शक्करी' कहे जाते हैं । ( १५ ) ( जनभृतः ) दूध 'जनभृत' कहाते हैं । (१६) घृत ( विश्वभृतः ) 'विश्वभूत' कहाते हैं । १७) स्वयं धाम से तपे जल ( स्वराजः आपः ) 'स्वराज् कहे जाते हैं । ये नाम गौणवृत्ति से कहे गये हैं। यज्ञ में या अभिषेक के अवसर पर ये प्रतिनिधिवाद से राज्यपद देनेवाली उत्तम गुणवती प्रजाओं और 'आप्त पुरुषों के श्र्लेष से वर्णन किया गया है, और ये नाना जल भिन्न २गुणों के दर्शक हैं ।
टिप्पणी
४- से मधुमती० । ० सहोजसा ' इति काण्व० । अतः परं [९।२९ , ४० ] पठयेते । काण्व० ॥१ सूर्यत्वचस २ 'सूर्यवर्चस ३ व्रजक्षितं ४ शविष्ठा ५ शर्करी ६ जनमृत ७ विश्वमृत ८ मधुमतीर्मधुमतीभिः
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वरुण ऋषिः । सूर्यादयो मन्त्रोक्ता देवता: । ( १ ) जगती । निषादः । ( २ ) स्वराट् पंक्तिः । पञ्चमः । ( ३, ४ ) स्वराड् विकृतिः । मध्यमः । ( ४ ) स्वराट् संकृतिः । गान्धारः । ( ६ ) भुरिंगाकृतिः पञ्चमः । ( ७ ) भुरिक् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
मराठी (2)
भावार्थ
हे स्री-पुरुषांनो ! सूर्याप्रमणे जे न्याय व विद्यारूपी प्रकाश देऊन सर्वांना आनंदित करतात, गाई इत्यादी पशूंचे रक्षण करतात, बलवान असतात, शुभगुणयुक्त असून आपल्यासारख्याच स्रीशी विवाह करून जगाचे पोषण करण्यास समर्थ असतात तेच राज्य करण्यास समर्थ असतात, अन्य नव्हे.
विषय
मनुष्यांनी स्वत: कसे असावे आणि कोणाकोणासाठी काय काय करावे, याविषयी पुढील मंत्रात सांगितले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (विद्यान नागरिक राष्ट्रातील राजा, राजपुरुष, विद्वज्जन, महिला आदी नागरिकांकडून राष्ट्रनिर्मितीविषयी अपेक्षा व्यक्त करीत आहे) हे राजपुरुषहो, तुम्ही (सूर्य्यत्वचस:) आपल्या न्यायवृत्ती आणि न्याय्य व्यवहाराने सूर्याप्रमाणे सर्वांच्या तेजाला क्षीण वा मंद करणारे आहात (तेवढी पात्रता तुमच्या अंगी आहे) तुम्ही (स्वाहा) सत्य आणि न्यायपूर्ण आचरणाने (राष्ट्रदा:) राज्याला सुराज्य देणारे (स्थ) आहात. म्हणून (मे) मला (राष्ट्रम्) एक आदर्श राज्य (दत्त) द्या. हे विद्याध्ययन करणार्या लोकहो, तुम्ही (सूर्यत्वचस:) सूर्याच्या प्रखर तेजाप्रमाणे प्रकांड पंडित आणि (राष्ट्रदा:) राज्याला उत्कर्ष देणारे (स्य)आहात, म्हणून (अमुष्मै) विद्या-ज्ञानात सूर्यवत प्रकाशमान त्या विद्यावान पुरुषाला (राष्ट्रम्) राज्य (दत्त) द्या (त्याच्या हाती राज्य सोपवा वा त्यास मदत करा) हे विद्वज्जनहो, (सूर्यवचस:) तुम्ही सूर्याप्रमाणे तेजस्वी असून (स्वाहा) सत्यवाणीद्वारा (राष्ट्रदा:) राज्य देणारे (सुशासन करणारे) (स्थ) आहात, यामुळे (मे) तेजस्वी असलेल्या मला (राष्ट्रम्) राज्य (दत्त:) द्या तसेच तुम्ही (सूर्यवचस:) सूर्याप्रमाणे प्रकाशमान (कीर्तीमान) असून (राष्ट्रदा:) कीर्तिमान राज्य देणारे (स्थ) आहात, म्हणून (अमुष्मै) त्या प्रकाशमान पुरुषाला (राजाला वा राष्ट्राध्यक्षाला) (राष्ट्रम्) राज्य (दत्त) द्या (त्यास सहकार्य व मार्गदर्शन करा) हे विद्वज्जनहो, तुम्ही (मान्दा:) सर्व मनुष्यांना आनंद देणारे आणि (स्वाहा) आपल्या सत्यवचनांनी (प्रामाणिक आश्वासनांनी) (राष्ट्रदा:) जनतेला उत्तम राष्ट्र (स्थ) देणारे आहात, म्हणून (मे) सर्वांना आनंद देणार्या अशा मला (राष्ट्रम्) एक आनंदपूर्ण राज्य (दत्त) द्या (मला एक आनंदमय व सुखपूर्ण राष्ट्र पाहून द्या) हे विद्वज्जन, तुम्ही (मान्दा:) मनुष्यांना सुख देणारे होऊन (स्वाहा) सत्यवचन बोलत (राष्ट्रदा:) सुराष्ट्र निर्माण करणारे आहात (तुमच्याकडे ती पात्रता आहे) म्हणून मला (राष्ट्रम्) एक सुंदर राष्ट्र (दत्त) द्या. तुम्ही (मान्दा:) सर्व प्राण्यांना सुखी करणारे होऊन (राष्ट्रदा:) राज्य देणारे (स्थ) आहात. म्हणून (अमुष्मै) त्या इतर सुखदाता व्यक्तीला (राष्ट्रम्) हे राष्ट्र (दत्त) द्या (तुमच्याप्रमाणे त्यालाही सुखी राष्ट्र निर्माण करण्यास सहकार्य करा) तुम्ही (वज्रक्षित:) गौ आदी पशूसाठी योग्य व सुखदायी स्थानाचे (गौशाला, आदींचे) निर्माण करणारे असून (स्वाहा) योग्य ती व्यवस्था करीत (राष्ट्रदा:) राष्ट्राची उन्नती करणारे (स्थ) आहात, म्हणून (मे) पशूंचे पालन करणार्या मला (राष्ट्रम्) अनुकूल राज्य (दत्त) द्या. आपण (वज्रक्षित:) गौशाला आदी स्थानांमधे पशूंचे पालक-रक्षक असून (राष्ट्रदा:) (पशूंनी संपन्न असे) राज्य देणारे (स्थ) आहात, म्हणून (अमुष्मै) त्या गौ आदी पशूंचे पालन करणार्या मनुष्याला (राष्ट्रम्) अनुकूल राज्य (दत्त) द्या. तुम्ही (वाशा:) कामना करणारे (निश्चित ध्येय व उद्दिष्ट ठेवणारे) असून (स्वाहा) सत्यनीतीद्वारे (राष्ट्रदा: राज्य चालविणारे (स्थ) आहात, म्हणून (मे) कामना वा निश्चित इच्छा करणार्या मला (राष्ट्रम्) माझ्या अपेक्षेप्रमाणे राज्य, सुराज्य (दत्त) द्या. तुम्ही (वाशा:) इच्छावान असून (राष्ट्रदा:) सुराज्य देणारे आहात, म्हणून (अमुष्मै) त्या अन्य इच्छावान मनुष्यास (वा अशा सर्व इच्छावान मनुष्यांना) (राष्ट्रम्) (अपेक्षित असे उत्तम) राष्ट्र (दत्त) द्या. तुम्ही (शनिष्ठा:) अत्यंत बलवान असून (स्वाहा) प्रामाणिकपणे पुरुषार्थ करीत (राष्ट्रदा:) राज्य करणारे (स्थ) आहात, म्हणून (मे) व बलशाली अशा मला (राष्ट्रम्) एक बलशाली राष्ट्र (दत्त) द्या. तुम्ही (शविष्ठा:) अतीव पराक्रमी असून (राष्ट्रदा:) राज्यदाता (स्थ) आहात, म्हणून (अमुष्मै) त्या अति पराक्रमी जनाला (राष्ट्रम्) हे राज्य (दत्त) द्या. (पराक्रमाची आवश्यकता असल्यास त्या वीरजनांचे सहकार्य घ्या) हे रानीगण वा राजस्त्रियांनो, (राजपरिवारातील महिला अथवा राज्यशासनातील महिला-अधिकारी गण) तुम्ही (शक्वरी:) सामर्थ्यशालिनी असून (स्वाहा) सत्य पुरुषार्थाद्वारे (राष्ट्रदा:) राज्य चालविणार्या (स्थ) आहात, म्हणून (मे) सामर्थ्यवान अशा मला (राष्ट्रम्) समर्थराज्य (दत्त) द्या. तुम्ही (शक्वरी:) सामर्थ्ययुक्त (राष्ट्रदा:) राज्य करणार्या (स्थ) आहात, म्हणून (अमुष्यै) त्या सामर्थ्यशाली पुरुषाला (राष्ट्रम्) समर्थ राज्य (दत्त) द्या. तुम्ही (जनभृत:) श्रेष्ठ मनुष्यांचे पोषण करणार्या (त्यांना पौष्टिक अन्न देणार्या) असून (स्वाहा) सत्यकर्म करीत (राष्ट्रदा:) राष्ट्राचे पोषण करणार्या महिला (स्थ) आहात, म्हणून (मे) श्रेष्ठ गुणयुक्त अशा मला (राष्ट्रम्) एक पुष्ट व समृद्ध राज्य (दत्त) द्या. तुम्ही (जनभृत:) सज्जनांना धारण करणार्या (आश्रम व सहकार्य देणार्या) असून (राष्ट्रदा:) राज्यास आधार देणार्या (स्थ) आहात, (मे) राष्ट्राला सहकार्य करणार्या मला (सुजाण नागरिकाला) (राष्ट्रम्) उत्तम राष्ट्र (दत्त) द्या, आणि (अमुष्मै) त्या सत्यप्रिय पुरुषाला (राष्ट्रम्) राज्य (दत्त) द्या. हे सभाध्यक्ष आदी राजपुरुषहो आपण (विश्वभृत:) जगाचे पोषण करणारे असून (स्वाहा) सत्यवाणी बोलत (राष्ट्रदा:) सुराज्य देणारे (स्थ) आहात, म्हणून (मे) सर्वांचे पोषण करणार्या मला (राष्ट्रम्) (एक पुष्ट बलशाली) राष्ट्र (दत्त) द्या. तुम्ही (विश्वभृत:) विश्वाचे धारण-पोषण करणारे असून (राष्ट्रदा:) राज्यदाता (स्थ) आहात, म्हणून (अमुष्मै) त्या सर्वपोषक मनुष्याला (राष्ट्रम्) हे राज्य (दत्त) द्या. तुम्ही (आप:) विद्या आणि धर्म या विषयात व्याप्त (प्राविण्य संपादित केलेले) असून (स्वाहा) सत्याचरणाद्वारे (राष्ट्रदा:) राज्य देणारे (स्थ) आहात, म्हणून (मे) शुभगुणांत रममाण असणार्या मला (राष्ट्रम्) हे राज्य (दत्त) द्या (हे राष्ट्र विद्या, धर्म आणि गुणांनी संपन्न असू द्या) तुम्ही (आप:) -------- आणि धर्म यांच्या सर्व मार्ग-पद्धतीदींना जाणणारे आणि (स्वराज:) स्वयंप्रकाशमान असे (राष्ट्रदा:) राज्यदाता (स्थ) आहात, म्हणून (अमुष्मै) त्या धर्मज्ञ पुरुषाला (राष्ट्रम्) हे धर्म राज्य (दत्त) द्या. हे सत् स्त्रीजनहो, तुम्हास उचित आहे की तुम्ही (क्षत्रियाय) राजपूतांसाठी (राजा व वीरजनांच्या वीर पुत्रांसाठी) (माहे) पूजनीय व प्रशंसनीय अशा (श्रत्रम्) व क्षत्रियराज्याची (वन्वामा:) कामना करा (हे राष्ट्र वीरजनांचे व वीररक्षित असावे, अशी इच्छा करा) राजपूतांसाठी (क्षत्रियांसाठी) (महि) पूजनीय (क्षत्रम्) राज्याला (दघती:) धारण करणार्या (आधार देणार्या) व्हा तसेच (अनाधृष्टा:) कधीही शत्रूंच्या वशीभूत न होणार्या व्हा. तुम्ही (मधुमती:) मधउर (कटु, तिक्त आदी) रसांनी तसेच (मधुमतीभि:) मधुरादिगुणदाता वसंत आदी ऋतूंत मिळणार्या सुखांनी (प्रच्यन्ताभ्) (क्षत्रियांना) संपन्न करा (त्यांच्यासाठी उत्तम औषधी तयार करा) हे सज्जनहो, तुम्ही अशा प्रकारच्या (वर वर्णिलेल्या) स्त्रिया वा पत्नी (सीदत्त) प्राप्त करा (तुम्हास अशा सेवा करणार्या स्त्रिया व पत्नी प्राप्त व्हाव्यात, अशी मी कामना करतो) ॥4॥
भावार्थ
भावार्थ - हे स्त्रीपुरुषहो, तुम्ही जाणून घ्या की जे लोक सूर्याप्रमाणे न्यायदानी आणि विद्येने प्रकाशित असतात, सर्वांना आनंद देतात, गौ आदी पशूंचे रक्षण करतात, स्वत: शुभगुणांनी शोभायमान असतात, बलवान असून (गुणकर्मस्वभावाने) समान असणार्या स्त्रीशी विवाह करतात, जगाचे पोषक असून जे स्वाधीन व सर्वथा स्वतंत्र आहेत, असे लोकच इतरांना उत्तम राज्य देऊ शकतात आणि तोच लोक स्वत:देखील श्रेष्ठ राष्ट्राच्या सुखांचा उपभोग घेण्यात समर्थ असतात., इतर नव्हे. (याहून जे विपरीत आहेत, ते कदापि श्रेष्ठ राष्ट्र देऊ शकत नाहीत) ॥4॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O people, protectors like the sun, with your spirit of true justice, ye are the givers of Kingship, bestow Kingdom on me. Ye, protectors like the sun, ye, seekers after knowledge, are the givers of Kingship, bestow Kingdom on the deserving person. Ye people educationally brilliant like the sun, the givers of Kingship, bestow Kingdom on me in a befitting manner. O people ye are educationally brilliant like the sun and are the givers of Kingship, bestow Kingdom on the deserving person. Ye, bringers of joy, and givers of Kingship, bestow Kingdom on me in a befitting manner. Ye bringers of joy and givers of Kingship, bestow kingdom on him who is deserving. Ye builders of cow-sheds, and bestowers of kingship, bestow Kingdom on me in a befitting manner. Ye builders of cow-sheds and givers of Kingship, bestow Kingdom on him who is deserving. Ye high-aimed people, and givers of Kingship, bestow Kingdom on me in a befitting manner. Ye high-aimed people, and givers of kingship, bestow Kingdom on him who is deserving. Most powerful are ye, and givers of kingship, bestow kingdom on me in a befitting manner. Most powerful are ye, and givers of kingship, bestow kingdom on him who is deserving. Endowed with might are ye and givers of kingship, bestow kingdom on me in a befitting manner. Endowed with might are ye, and givers of Kingship, bestow Kingdom on him who is deserving. Man-nourishing are ye, and givers of Kingship, bestow Kingdom on me in a befitting manner. Man-nourishing are ye, and givers of kingship, bestow kingdom on him who is deserving. All-nourishing are ye, and givers of Kingship, bestow kingdom on me in a befitting manner. All-nourishing are ye, and givers of kingship, bestow kingdom on him, who is deserving. O people, full of knowledge and virtue, enjoying independence, ye are the givers of kingship, bestow kingdom on him who is most deserving. Let the sweet medicinal herbs, ripen in the spring and other seasons. O people procuring mighty power for the Kshatriya, rest in your place, inviolate and potent bestowing on the Kshatriya mighty power.
Meaning
Members of the Council, bright as the sun in your bearing, makers of the nation, give me a great republic with the values of truth and justice. Stay firm in your brilliance of bearing contributing to the nation, and give the common man a republic of truth and justice. Leaders of the land, men of learning, illustrious in character as the sun, makers of the nation, be firm in your brilliance of learning, and give me a state of learning and enlightenment in truth of word and values. Stay firm in your brilliance, contributing to the nation, and give to the citizen a nation of learning and wisdom. Men of vision and arts, creating joy in words of vision and light, be happy makers of the nation and give me a nation of happy people. Stay firm and strong in joy contributing to the nation, and create for the common man a nation of happiness and joy in truth of value and virtue. Farmers, living in your farms with the wealth of animals, makers of the nation in truth of word and simplicity of character, give me a nation rich in food and milk. Farmers and husbandmen, stay firm, contributing to the nation, and give to the common man a nation of happy and satisfied people. Be men of will and ambition, makers of the nation, and give me a nation of courage and action in truth of word and deed. Stay firm in your will, contributing to the nation, and inspire the people to be a nation with passion for development and progress. Be men of strength and prowess, makers of the nation, and give me a nation of power and prestige in truth of word and sincerity of character. Stay firm in your determination, contributing to the nation, and give to the citizens a nation of strength and dignity. Women of the land, makers of the nation, be strong and powerful, and give me a nation of disciplined and virtuous young heroes of truth and honesty of word and action. Stay firm in your strength and dignity, contributing to the nation, and build up a nation of strong and heroic people for the citizens. Be sustainers of the people, makers of the nation in words of truth and action in discipline, and give me a nation of happy and disciplined people. Stay firm in your generosity, supporting the people, contributing to the nation, and give the citizens a state of happy and disciplined people. Be sustainers of the world, makers of a world- state in truth of word and action, and give me a universal nation of common human values. Stay firm, supporting the people of the world, contributing to the world state, and give to humanity one order of governance and organization of freedom for every citizen of the world. People of knowledge, Dharma and universal values, brilliant in your own right of character and wisdom, makers of a world nation in truth of word and action, stay brilliant and firm and give to every citizen of the world a world order of governance and universal justice. Women of the world, sweet as honey and deeply loving, meet with others equally sweet and loving, keen and anxious for a grand world order and conscientiously working for a supreme sovereign world state, stay fearless and, holding and sustaining that great world order for the sovereign rulers, sit and participate with men of equal power and brilliance.
Translation
You are with sun-like skins, bestowers of kingdom; bestow kingdom on me. Svaha. (1) You are with sun-like skins, bestowers of kingdom; bestow kingdom on this sacrificer, so and so. (2) You are with lustre of the sun, bestowers of kingdom; bestow kingdom on me. Svaha. (3) You are with lustre of the sun, bestowers of kingdom; bestow kingdom on this sacrificer, so and so. (4) You are pleasuregiving, bestowers of kingdom; bestow kingdom on me. Svaha. (5) You аге pleasure-giving, bestowers of kingdom; bestow kingdom on this sacrificer, so and so. (6) You are dwellers in the cattle-rearing farms, bestowers of kingdom; bestow kingdom on me. Ѕvaha(7) You are dwellers in the cattle-rearing farms, bestowers of kingdom; bestow kingdom on this sacrificer so and so. (8) You are desired by all, bestowers of kingdom; bestow kingdom on me. Svaha. (9) You are desired by all, bestowers of kingdom; bestow kingdom on this sacrificer,so and so. (10) You are the most powerful, bestowers of kingdom; bestow kingdom on me. Svaha. (11) You are the most powerful, bestowers of kingdom; bestow kingdom on this sacrificer, so and so. (12) You are endowed with strength, bestowers of kingdom; bestow kingdom on me. Svaha. (13) You are endowed with strength, bestowers of kingdom; bestow kingdom on this sacrificer, so and so. (14) You are nourishers of people, bestowers of kingdom; bestow kingdom on me, Svaha. (15) You are nourishers of people, bestowers of kingdom; bestow kingdom on this sacrificer, so and so. (16) You are nourishers of all, bestowers of kingdom; bestow kingdom on me. Svaha. (17) You are nourishers of all, bestowers of kingdom; bestow kingdom on this sacrificer, so and so. (18) You are self-shining waters, bestowers of kingdom; bestow kingdom on me. Svaha. (19) You are slef-shining waters, bestowers of kingdom; bestow kingdom on this sacrificer, so and so. (20) May the sweet mingle with the sweet ones, winning great ruling power for the warrior. Rest here unmolested, full of strength, bestowing great ruling power on the warrior. (21)
Notes
Suryatvacasah, those with sun-like skins; with skins shining like sun. Mandah, pleasure-giving. Vrajaksitah, dwellers in the cattle-rearing farms; also, dwelling in clouds; व्रज इति मेघनामसु पठितम् Vasah, desired by all; वश् कांतौ | Savisthah, most powerful. शव इति बलनामा | Sakvarth, endowed with strength. Visvabhrtah, sustainers of all, or sustainers of the world. Svarajah, self-shining. Vanvaneh, winning; obtaining. Mahi, great. ‚ Ksatram, ruling power.
बंगाली (1)
विषय
মনুষ্যাঃ কীদৃশা ভূত্বা কস্মৈ কিং কিং প্রদদ্যুরিত্যাহ ॥
মনুষ্যগণকে কেমন হইয়া কাহাকে কী দিতে হইবে এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে রাজপুরুষগণ ! আপনারা (সূর্য়্যত্বচসঃ) সূর্য্যের সমান স্বীয় ন্যায় প্রকাশ দ্বারা সকল তেজকে আচ্ছাদিত করিয়া (স্বাহা) সত্য ন্যায় সহ (রাষ্ট্রদাঃ) রাজ্যপ্রদাতা (স্থ) হউন এইজন্য (যে) আমাকে (রাষ্ট্রম্) রাজ্য (দত্ত) প্রদান করুন । হে মনুষ্যগণঃ যে কারণে (সূর্য়ত্বচসঃ) সূর্য্য প্রকাশের সমান বিদ্যা পাঠকারী হইয়া আপনারা (রাষ্ট্রদাঃ) রাজ্য প্রদাতা (স্থ) হন, এইজন্য (অমুষ্মৈ) সেই বিদ্যায় সূর্য্যবৎ প্রকাশমান পুরুষের জন্য (রাষ্ট্রম্) রাজ্যকে (দত্ত) প্রদান করুন । হে বিদ্বান্ মনুষ্যগণ (সূর্য়বর্চসঃ) সূর্য্যের সমান তেজধারী হইয়া আপনারা (স্বাহা) সত্য বাণী দ্বারা (রাষ্ট্রদাঃ) রাজ্যদাতা (স্থ) হউন, এই কারণে (মে) তেজস্বী আমাকে (রাষ্ট্রম্) রাজ্য (দত্ত) প্রদান করুন যে কারণে (সূর্য়বর্চসঃ) সূর্য্য সম প্রকাশমান হইয়া আপনারা (রাষ্ট্রদাঃ) রাজ্য প্রদাতা (স্থ) হউন এইজন্য (অমুষ্মৈ) সেই প্রকাশমান পুরুষের জন্য (রাষ্ট্রম্) রাজ্য (দত্ত) প্রদান করুন । যে কারণে (মান্দাঃ) মনুষ্যগণকে আনন্দ প্রদান করিয়া আপনারা (স্বাহা) সত্য বচন সহ (রাষ্ট্রদাঃ) রাজ্য প্রদাতা (স্থ) হউন এইজন্য (মে) আনন্দ প্রদাতা আমাকে (রাষ্ট্রম্) রাজ্য (দত্ত) প্রদান করুন । যেহেতু আপনারা (মান্দাঃ) প্রাণীদিগের সুখদাতা হইয়া (রাষ্ট্রদাঃ) রাজ্যদাতা (স্থ) হউন এইজন্য (অমুষ্মৈ) সেই সুখদাতাকে (রাষ্ট্রম্) রাজ্য (দত্ত) প্রদান করুন । যে কারণে আপনারা (ব্রজক্ষিতঃ) গাভি ইত্যাদি পশুদের স্থান নিবাসযোগ্য করিয়া (স্বাহা) সত্য ক্রিয়াগুলির সহিত (রাষ্ট্রদাঃ) রাজ্যদাতা (স্থ) হন এইজন্য (মে) পশুরক্ষক আমাকে (রাষ্ট্রম্) রাজ্য (দত্ত) প্রদান করুন । যে কারণে আপনারা (ব্রজক্ষিতঃ) স্থানাদি হইতে পশুদিগের রক্ষক হইয়া (রাষ্ট্রদাঃ) রাজ্যদাতা (স্থ) হউন । ইহাতে (অমুষ্মৈ) সেই গাভি ইত্যাদি পশুদিগের রক্ষক পুরুষের জন্য রাজ্য (দত্ত) প্রদান করুন । যে জন্য আপনারা (বাশাঃ) কামনা করিয়া (স্বাহা) সত্য নীতি দ্বারা (রাষ্ট্রদাঃ) রাজ্যদাতা (স্থ) হন এইজন্য (মে) ইচ্ছাযুক্ত আমাকে (রাষ্ট্রম্) রাজ্য প্রদান করুন । যে কারণে আপনারা (বাশাঃ) ইচ্ছাযুক্ত হইয়া (রাষ্ট্রদাঃ) রাজ্য দাতা (স্থ) হন এইজন্য (অমুষ্মৈ) সেই ইচ্ছাযুক্ত পুরুষের জন্য (রাষ্ট্রম্) রাজ্য (দত্ত) প্রদান করুন । যে কারণে আপনারা (শবিষ্ঠাঃ) অত্যন্ত বলযুক্ত হইয়া (স্বাহা) সত্য পুরুষকার দ্বারা (রাষ্ট্রদাঃ) রাজ্যদাতা (স্থ) হন, এই কারণে (মে) বলবান আমাকে (রাষ্ট্রম্) রাজ্য (দত্ত) দিন । যে কারণে আপনারা (শবিষ্ঠাঃ) অতি পরাক্রমী (রাষ্ট্রদাঃ) রাজ্যদাতা (স্থ) হন, এই কারণে (অমুষ্মৈ) সেই অতি পরাক্রমী ব্যক্তির জন্য (রাষ্ট্রম্) রাজ্য (দত্ত) দিন । হে রাণী গণ । যে জন্য আপনারা (শক্বরী) সামর্থ্যবতী হইয়া (স্বাহা) সত্য পুরুষকার দ্বারা (রাষ্ট্রদাঃ) রাজ্য দাত্রী (স্থ) হন এইজন্য (মে) সামর্থ্যবান্ আমাকে (রাষ্ট্রম্) রাজ্য (দত্ত) প্রদান করুন । যে কারণে আপনারা (শক্বরীঃ) সামর্থ্যযুক্ত (রাষ্ট্রদাঃ) রাজ্যদাত্রী (স্থ) হন্ এই কারণে (অমুষ্মৈ) সেই সামর্থ্যযুক্ত পুরুষের জন্য (রাষ্ট্রম্) রাজ্য (দত্ত) প্রদান করুন । যেজন্য আপনারা (জনভৃতঃ) শ্রেষ্ঠ মনুষ্যের পোষণ কারিণী হইয়া (স্বাহা) সত্য কর্ম সহ (রাষ্ট্রদাঃ) রাজ্যদাত্রী (স্থ) হন্ এইজন্য (মে) শ্রেষ্ঠগুণযুক্ত আমাকে (রাষ্ট্রম্) রাজ্য (দত্ত) দান করুন । যেহেতু আপনারা (জনভৃতঃ) সজ্জনদিগের ধারণকারী (রাষ্ট্রদাঃ) রাজ্যদাতা (স্থ) হন এইজন্য (অমুষ্মৈ) সেই সত্য প্রিয় পুরুষের জন্য (রাষ্ট্রম্) রাজ্য (দত্ত) প্রদান করুন । হে সভাধ্যক্ষাদি রাজপুরুষগণ । যেজন্য আপনারা (বিশ্বভৃতঃ) সকল সংসারের পোষণকারী হইয়া (স্বাহা) সত্য বাণী সহ (রাষ্ট্রদাঃ) রাজ্যদাতা (স্থ) হন এইজন্য (মে) সকলের পোষক আমাকে (রাষ্ট্রম্) রাজ্য (দত্ত) দিন । যেজন্য আপনারা (বিশ্বভৃতঃ) বিশ্ব ধারণকারী (রাষ্ট্রদাঃ) রাজ্যদাতা (স্থ) হন এইজন্য (অমুষ্মৈ) সেই ধারণকারী মনুষ্যৈর জন্য (রাষ্ট্রম্) রাজ্য (দত্ত) প্রদান করুন । যে কারণে আপনারা (আপঃ) সকল বিদ্যা ও ধর্ম বিষয়ে ব্যাপ্ত হইয়া (স্বাহা) সত্য ক্রিয়া দ্বারা (রাষ্ট্রদাঃ) রাজ্য দাতা (সং) হন এই কারণে (মে) শুভ গুণে ব্যাপ্ত আমাকে (রাষ্ট্রম্) রাজ্য (দত্ত) দান করুন । যে জন্য আপনারা (আপঃ) সর্ব বিদ্যা ও ধর্ম মার্গের জ্ঞাতা, (স্বরাজঃ) স্বয়ং প্রকাশমান, (রাষ্ট্রদাঃ) রাজ্যদাতা (স্থ) হন এইজন্য (অমুষ্মৈ) সেই ধর্মজ্ঞ পুরুষের জন্য (রাষ্ট্রম্) রাজ্যকে (দত্ত) প্রদান করুন । হে সজ্জন স্ত্রী গণ ! আপনাদিগের উচিত যে (ক্ষত্রিয়ায়) রাজপুতদের জন্য (মহি) বড় পূজার যোগ্য (ক্ষত্রম্) ক্ষত্রিয়দিগের রাজ্য (বন্বানাঃ) কামনা করিয়া (সহৌজসঃ) বল-পরাক্রম সহিত বর্ত্তমান (ক্ষত্রিয়ায়) রাজপুতদিগের জন্য (মহি) বিশাল (ক্ষত্রম্) রাজ্য (দধতীঃ) ধারণ করিয়া (অনাধৃষ্টাঃ) শত্রুদিগের বশে আইসে না এমন (মধুমতীঃ) মধুরাদি রসযুক্ত ওষধী (মধুমতীভিঃ) মধুরাদি গুণযুক্ত বসন্তাদি ঋতুগুলির দ্বারা সুখকে (পৃচ্যন্তাম্) সিদ্ধ করিতে থাকিবেন । হে সজ্জন পুরুষগণ ! আপনারা এইপ্রকার স্ত্রীদেরকে (সীদত) প্রাপ্ত হউন ॥ ৪ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- হে স্ত্রীপুরুষগণ ! যাহারা সূর্য্যের সমান ন্যায় ও বিদ্যার প্রকাশ করিয়া সকলকে আনন্দ দিতে, গাভি ইত্যাদি পশুদিগের রক্ষা করিতে শুভ গুণ দ্বারা শোভায়মান বলবান্ স্বীয় সমান স্ত্রীদের সহিত বিবাহ এবং সংসারের পোষণকারী স্বাধীন তাহারাই অন্যদের জন্য রাজ্য দিতে এবং স্বয়ং সেবন করিতে সক্ষম হয়, অন্যে নয় ॥ ৪ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
সূর্য়॑ত্বচস স্থ রাষ্ট্র॒দা রা॒ষ্ট্রং মে॑ দত্ত॒ স্বাহা॒ সূর্য়॑ত্বচস স্থ রাষ্ট্র॒দা রা॒ষ্ট্রম॒মুষ্মৈ॑ দত্ত॒ সূর্য়॑বর্চস স্থ রাষ্ট্র॒দা রা॒ষ্ট্রং মে॑ দত্ত॒ স্বাহা॒ সূর্য়॑বর্চস স্থ রাষ্ট্র॒দা রা॒ষ্ট্রম॒মুষ্মৈ॑ দত্ত॒ মান্দা॑ স্থ রাষ্ট্র॒দা রা॒ষ্ট্রং মে॑ দত্ত॒ স্বাহা॒ মান্দা॑ স্থ রাষ্ট্র॒দা রা॒ষ্ট্রম॒মুষ্মৈ॑ দত্ত ব্রজ॒ক্ষিত॑ স্থ রাষ্ট্র॒দা রা॒ষ্ট্রং মে॑ দত্ত॒ স্বাহা॑ ব্রজ॒ক্ষিত॑ স্থ রাষ্ট্র॒দা রা॒ষ্ট্রম॒মুষ্মৈ॑ দত্ত॒ বাশা॑ স্থ রাষ্ট্র॒দা রা॒ষ্ট্রং মে॑ দত্ত॒ স্বাহা॒ বাশা॑ স্থ রাষ্ট্র॒দা রা॒ষ্ট্রম॒মুষ্মৈ॑ দত্ত॒ শবি॑ষ্ঠা স্থ রাষ্ট্র॒দা রা॒ষ্ট্রং মে দত্ত॒ স্বাহা শবি॑ষ্ঠা স্থ রাষ্ট্র॒দা রা॒ষ্ট্রম॒মুষ্মৈ॑ দত্ত॒ শক্ব॑রী স্থ রাষ্ট্র॒দা রা॒ষ্ট্রং মে॑ দত্ত॒ স্বাহা॑ শক্ব॑রী স্থ রাষ্ট্র॒দা রা॒ষ্ট্রম॒মুষ্মৈ॑ দত্ত॒ জন॒ভৃত॑ স্থ রাষ্ট্র॒দা রা॒ষ্ট্রং মে॑ দত্ত॒ স্বাহা॒ জন॒ভৃত॑ স্থ রাষ্ট্র॒দা রা॒ষ্ট্রম॒মুষ্মৈ॑ দত্ত বিশ্ব॒ভৃত॑ স্থ রাষ্ট্র॒দা রা॒ষ্ট্রং মে॑ দত্ত॒ স্বাহা॑ বিশ্ব॒ভৃত॑ স্থ রাষ্ট্র॒দা রা॒ষ্ট্রম॒মুষ্মৈ॑ দ॒ত্তাপঃ॑ স্ব॒রাজ॑ স্থ রাষ্ট্র॒দা রাষ্ট্র॒ম॒মুষ্মৈ॑ দত্ত । মধু॑মতী॒র্মধু॑মতীভিঃ পৃচ্যন্তাং॒ মহি॑ ক্ষ॒ত্রং ক্ষ॒ত্রিয়া॑য় বন্বা॒নাऽঅনা॑ধৃষ্টাঃ সীদত স॒হৌজ॑সো॒ মহি॑ ক্ষ॒ত্রং ক্ষ॒ত্রিয়া॑য়॒ দধ॑তীঃ ॥ ৪ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
সূর্য়্যত্বচস ইত্যস্য বরুণ ঋষিঃ । সূর্য়্যাদয়ো মন্ত্রোক্তা দেবতাঃ । পূর্বস্য জগতী ছন্দঃ । নিষাদঃ স্বরঃ । সূর্য়্যবর্চস ইতি দ্বিতীয়স্য স্বরাট্ পংক্তিশ্ছন্দঃ । পঞ্চমঃ স্বরঃ । ব্রজক্ষিত ইতি তৃতীয়স্য শবিষ্ঠা ইতি চতুর্থস্য চ স্বরাট্ ব্রাহ্মী বৃহতী ছন্দঃ । মধ্যমঃ স্বরঃ । জনভৃত ইতি পঞ্চমস্যার্চী পংক্তিশ্ছন্দঃ । পঞ্চমঃ স্বরঃ । বিশ্বভৃত ইতি ষষ্ঠস্য মধুমতীরিতি সপ্তমস্য ভুরিক্ ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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