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  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 31
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - वरुणो देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    त्रीन्त्स॑मु॒द्रान्त्सम॑सृपत् स्व॒र्गान॒पां पति॑र्वृष॒भऽ इष्ट॑कानाम्। पुरी॑षं॒ वसा॑नः सुकृ॒तस्य॑ लो॒के तत्र॑ गच्छ॒ यत्र॒ पूर्वे॒ परे॑ताः॥३१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्रीन्। स॒मु॒द्रान्। सम्। अ॒सृ॒प॒त्। स्व॒र्गानिति॑ स्वः॒ऽगान्। अ॒पाम्। पतिः॑। वृ॒ष॒भः। इष्ट॑कानाम्। पुरी॑षम्। वसा॑नः। सु॒कृ॒तस्येति॑ सुऽकृ॒तस्य॑। लो॒के। तत्र॑। ग॒च्छ॒। यत्र॑। पूर्वे॒। परे॑ता॒ इति परा॑ऽइताः ॥३१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्रीन्त्समुद्रान्त्समसृपत्स्वर्गानपाम्पतिर्वृषभऽइष्टकानाम् । पुरीषँवसानः सुकृतस्य लोके तत्र गच्छ यत्र पूर्वे परेताः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्रीन्। समुद्रान्। सम्। असृपत्। स्वर्गानिति स्वःऽगान्। अपाम्। पतिः। वृषभः। इष्टकानाम्। पुरीषम्। वसानः। सुकृतस्येति सुऽकृतस्य। लोके। तत्र। गच्छ। यत्र। पूर्वे। परेता इति पराऽइताः॥३१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 31
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    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. सर्व माणसांनी धर्मात्म्याच्या मार्गाने चालून शारीरिक, वाचिक व मानसिक तिन्ही प्रकारचे सुख प्राप्त करावे. ज्यामुळे कामना पूर्ण होतील असे प्रयत्न करावेत. ज्याप्रमाणे वसंत वगैरे ऋतू अनुक्रमे आपली चिन्हे दर्शवितात त्याप्रमाणे माणसांनी ऋतूंचा अनुकूल व्यवहार करून आनंद प्राप्त करावा.

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