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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 29
    ऋषिः - कुत्स ऋषिः देवता - अश्विनौ देवते छन्दः - विराट् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    अप्न॑स्वतीमश्विना॒ वाच॑म॒स्मे कृ॒तं नो॑ दस्रा वृषणा मनी॒षाम्।अ॒द्यूत्येऽव॑से॒ नि ह्व॑ये वां वृ॒धे च॑ नो भवतं॒ वाज॑सातौ॥२९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अप्न॑स्वतीम्। अ॒श्वि॒ना॒। वाच॑म्। अ॒स्मेऽइत्य॒स्मे। कृ॒तम्। नः॒। द॒स्रा॒। वृ॒ष॒णा॒। म॒नी॒षाम् ॥अ॒द्यू॒त्ये। अव॑से। नि। ह्व॒ये॒। वा॒म्। वृ॒धे। च॒। नः॒। भ॒व॒त॒म्। वाज॑साता॒विति॒ वाज॑ऽसातौ ॥२९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अप्नस्वतीमश्विना वाचमस्मे कृतन्नो दस्रा वृषणा मनीषाम् । अद्यूत्ये वसे नि ह्वये वाँवृधे च नो भवतँवाजसातौ ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अप्नस्वतीम्। अश्विना। वाचम्। अस्मेऽइत्यस्मे। कृतम्। नः। दस्रा। वृषणा। मनीषाम्॥अद्यूत्ये। अवसे। नि। ह्वये। वाम्। वृधे। च। नः। भवतम्। वाजसाताविति वाजऽसातौ॥२९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 29
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    भावार्थ - जी माणसे निष्कपटी, आप्त, दयाळू विद्वानांचे अनुयायी बनून प्रगल्भ धार्मिक विद्वान होतात. ती सर्व प्रकारे उन्नत होतात व सर्वांना सुखी करतात.

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