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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 32

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 32/ मन्त्र 9
    सूक्त - भृगुः देवता - दर्भः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - दर्भ सूक्त

    यो जाय॑मानः पृथि॒वीमदृं॑ह॒द्यो अस्त॑भ्नाद॒न्तरि॑क्षं॒ दिवं॑ च। यं बि॑भ्रतं न॒नु पा॒प्मा वि॑वेद॒ स नो॒ऽयं द॒र्भो वरु॑णो दि॒वा कः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः। जाय॑मानः। पृ॒थि॒वीम्। अदृं॑हत्। यः। अस्त॑भ्नात्। अ॒न्तरि॑क्षम्। दिव॑म्। च॒। यम्। बिभ्र॑तम्। ननु। पा॒प्मा। वि॒वे॒द॒। सः। नः॒। अ॒यम्। द॒र्भः। वरु॑णः। दि॒वा। कः॒ ॥३२.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो जायमानः पृथिवीमदृंहद्यो अस्तभ्नादन्तरिक्षं दिवं च। यं बिभ्रतं ननु पाप्मा विवेद स नोऽयं दर्भो वरुणो दिवा कः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः। जायमानः। पृथिवीम्। अदृंहत्। यः। अस्तभ्नात्। अन्तरिक्षम्। दिवम्। च। यम्। बिभ्रतम्। ननु। पाप्मा। विवेद। सः। नः। अयम्। दर्भः। वरुणः। दिवा। कः ॥३२.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 32; मन्त्र » 9

    Translation -
    Who, as soon as born, made the earth firmly set and who supported the midspace and the sky (in their places); him, who wears it, evil never reaches; may that darbha here be our shelter (dharunah) and supporter (adivakah).

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