ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 53/ मन्त्र 3
ऋषिः - मेध्यः काण्वः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - पाद्निचृत्पथ्याबृहती
स्वरः - मध्यमः
आ नो॒ विश्वे॑षां॒ रसं॒ मध्व॑: सिञ्च॒न्त्वद्र॑यः । ये प॑रा॒वति॑ सुन्वि॒रे जने॒ष्वा ये अ॑र्वा॒वतीन्द॑वः ॥
स्वर सहित पद पाठआ । नः॒ । विश्वे॑षाम् । रस॑म् । मध्वः॑ । सि॒ञ्च॒न्तु॒ । अद्र॑यः । ये । प॒रा॒ऽवति॑ । सु॒न्वि॒रे । जने॑षु । आ । ये । अ॒र्वा॒ऽवति॑ । इन्द॑वः ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नो विश्वेषां रसं मध्व: सिञ्चन्त्वद्रयः । ये परावति सुन्विरे जनेष्वा ये अर्वावतीन्दवः ॥
स्वर रहित पद पाठआ । नः । विश्वेषाम् । रसम् । मध्वः । सिञ्चन्तु । अद्रयः । ये । पराऽवति । सुन्विरे । जनेषु । आ । ये । अर्वाऽवति । इन्दवः ॥ ८.५३.३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 53; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
पदार्थ -
(ये) जो (इन्दवः) सोमगुण से समृद्ध विद्वज्जन (परावति) दूरस्थ--अनुत्सुक, उत्साहरहित (जनेषु) जन के प्रति (सुन्विरे) सुख देने वाली क्रियाओं का उपदेश देते हैं और जो (अर्वावति) उत्सुक--स्वाभिमुख अपनी तरफ कान देने वाले व्यक्ति को तो सुखसाधक क्रियाएं बताते हैं वे (अद्रयः) [मेघों के तुल्य तापहारी उपदेशामृत को] सींचने वाले विद्वज्जन (विश्वेषाम्) सकल पदार्थों के ज्ञान को (मध्वः) मधुर (रसम्) सारभूत द्रव (नः) हमारे अन्तःकरण में (सिञ्चन्तु) बरसाएं अर्थात् हमें वह बोध दें॥३॥
भावार्थ - कोई चाहे अथवा न चाहे मेघ बादलों से वर्षा का जल देता ही है। सौम्य विद्वान् भी उसी प्रकार अपने उपदेश रूपी अमृत की वर्षा ऐसे लोगों पर भी करते हैं जिनमें उसके लिये उत्सुकता नहीं है॥३॥
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