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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 56

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 56/ मन्त्र 5
    सूक्त - यमः देवता - दुःष्वप्ननाशनम् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - दुःस्वप्नानाशन सूक्त

    यस्य॑ क्रू॒रमभ॑जन्त दु॒ष्कृतो॒ऽस्वप्ने॑न सु॒कृतः॒ पुण्य॒मायुः॑। स्वर्मदसि पर॒मेण॑ ब॒न्धुना॑ त॒प्यमा॑नस्य॒ मन॒सोऽधि॑ जज्ञिषे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्य॑। क्रू॒रम्। अभ॑जन्त। दुः॒ऽकृतः॑। अ॒स्वप्ने॑न। सु॒ऽकृतः॑। पुण्य॑म्। आयुः॑। स्वः᳡। म॒द॒सि॒। प॒र॒मेण॑। ब॒न्धुना॑। त॒प्यमा॑नस्य। मन॑सः। अधि॑। ज॒ज्ञि॒षे॒ ॥५६.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्य क्रूरमभजन्त दुष्कृतोऽस्वप्नेन सुकृतः पुण्यमायुः। स्वर्मदसि परमेण बन्धुना तप्यमानस्य मनसोऽधि जज्ञिषे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्य। क्रूरम्। अभजन्त। दुःऽकृतः। अस्वप्नेन। सुऽकृतः। पुण्यम्। आयुः। स्वः। मदसि। परमेण। बन्धुना। तप्यमानस्य। मनसः। अधि। जज्ञिषे ॥५६.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 56; मन्त्र » 5

    टिप्पणीः - ५−(यस्य) (क्रूरम्) निर्दयं कर्म (अभजन्त) असेवन्त (दुष्कृतः) दुष्कर्माणः पापिनः (अस्वप्नेन) स्वप्नत्यागेन (सुकृतः) पुण्यकर्माणः (पुण्यम्) पवित्रम् (आयुः) जीवनम्, अभजन्त इत्यनुवर्तते (स्वः) सुखे वर्तमानेन (मदसि) मद जाड्ये। जडो मूढो भवसि (परमेण) सर्वोत्कृष्टेन (बन्धुना) बान्धवेन (तप्यमानस्य) सन्तप्यमानस्य। श्रान्तस्य पुरुषस्य (मनसः) अन्तःकरणस्य (अधि) अधिकम् (जज्ञिषे) प्रादुर्बभूविथ ॥

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