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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 7

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 7/ मन्त्र 5
    सूक्त - गार्ग्यः देवता - नक्षत्राणि छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - नक्षत्र सूक्त

    आ मे॑ म॒हच्छ॒तभि॑ष॒ग्वरी॑य॒ आ मे॑ द्व॒या प्रोष्ठ॑पदा सु॒शर्म॑। आ रे॒वती॑ चाश्व॒युजौ॒ भगं॑ म॒ आ मे॑ र॒यिं भर॑ण्य॒ आ व॑हन्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ। मे॒। म॒हत्। श॒तऽभि॑षक्। वरी॑यः। आ। मे॒। द्व॒या। प्रोष्ठ॑ऽपदा। सु॒ऽशर्म॑। आ। रे॒वती॑। च॒। अ॒श्व॒ऽयुजौ॑। भग॑म्। मे॒। आ। मे॒। र॒यिम्। भर॑ण्यः। आ। व॒ह॒न्तु॒ ॥७.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ मे महच्छतभिषग्वरीय आ मे द्वया प्रोष्ठपदा सुशर्म। आ रेवती चाश्वयुजौ भगं म आ मे रयिं भरण्य आ वहन्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। मे। महत्। शतऽभिषक्। वरीयः। आ। मे। द्वया। प्रोष्ठऽपदा। सुऽशर्म। आ। रेवती। च। अश्वऽयुजौ। भगम्। मे। आ। मे। रयिम्। भरण्यः। आ। वहन्तु ॥७.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 7; मन्त्र » 5

    टिप्पणीः - इस मन्त्र में इन नक्षत्रों का वर्णन है। २३−शतभिषज् [वैद्यों के समान सौ तारावाला, यद्वा शतभिषा और सायणभाष्य में शतविशाखा, मण्डलाकार−आकृति, सौ तारापुञ्ज, चौबीसवाँ नक्षत्र], २४, २५−दोनों प्रोष्ठपदा अर्थात् पूर्वा भाद्रपदा और उत्तरा भाद्रपदा [प्रोष्ठपदा वा भाद्रपदा=बैल वा गौ के समान पाँववाली, पूर्वा भाद्रपदा दाहिनी और बाईं ओर वर्तमान खाट की आकृति दो तारापुञ्ज, उत्तरा भाद्रपदा, खाट की आकृति, आठ तारापुञ्ज], २६−रेवती [चलती हुई मछली की आकृति, बत्तीस तारापुञ्ज, सत्ताइसवाँ नक्षत्र], २७−दो अश्वयुज् [दो घुड़चढ़े अथवा अश्विनी नक्षत्र, घुड़चढ़े पुरुष के समान आकृति वा घोड़ों के मुख समान आकृति, तीन तारापुञ्ज पहिला नक्षत्र], २८−भरणियाँ [पालनेवाली, त्रिकोण−आकृति, तीन तारापुञ्ज दूसरा नक्षत्र] ॥ वेद में २८ नक्षत्र हैं−१ कृत्तिका, २ रोहिणी, ३ मृगशिरा, ४ आर्द्रा, ५ पुनर्वसु, ६ पुष्य, ७ आश्लेषा [वा अश्लेशा], ८ मघा, ९ पूर्वा फल्गुनी, १० उत्तरा फल्गुनी, ११ हस्त, १२ चित्रा, १३ स्वाति, १४ विशाखा, १५ अनुराधा, १६ ज्येष्ठा, १७ मूल, १८ पूर्वा-अषाढा, १९ उत्तरा-अषाढा, २० अभिजित्, २१ श्रवण, २२ श्रविष्ठा [वा धनिष्ठा], २३ शतभिषज् वा शतभिषा, २४ तथा २५ दोनों प्रोष्ठपदा [वा पूर्वा भाद्रपदा और उत्तरा भाद्रपदा], २६ रेवती, २७ दो अश्वयुज् [वा अश्विनी] और २८ भरणी, [सूक्त ८ मन्त्र १, २ भी देखो] ॥प्राचीन ज्योतिष ग्रन्थ सूर्यसिद्धान्त अध्याय ८ श्लोक २-९ में अश्विनी से रेवती तक २८ नक्षत्र इस प्रकार हैं। १ अश्विनी, २ भरणी, ३ कृत्तिका, ४ रोहिणी, ५ मृगशिरा, ६ आर्द्रा, ७ पुनर्वसु, ८ पुष्य, ९ अश्लेशा, १० मघा, ११ पूर्वाफल्गुनी, १२ उत्तराफल्गुनी, १३ हस्त, १४ चित्रा, १५ स्वाति, १६ विशाखा, १७ अनुराधा, १८ ज्येष्ठा, १९ मूल [वा मूला], २० पूर्वाषाढा, २१ उत्तराषाढा, २२ अभिजित्, २३ श्रवण, २४ धनिष्ठा [वा श्रविष्ठा], २५ शतभिषा [वा शतभिषज्], २६ पूर्वभाद्रपदा, २७ उत्तरभाद्रपदा २८ रेवती ॥शब्दकल्पद्रुम कोश में पूर्वोक्त अश्विनी से रेवती तक २७ और २८वाँ अभिजित् है। महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि नामकरणप्रकरण की टिप्पणी में अश्विनी से रेवती तक २७ नक्षत्र हैं, अभिजित् नहीं है ॥५−(आ) आ वहतु (मे) मह्यम् (महत्) महत्त्वम् (शतभिषक्) शतं भिषज इव तारा यत्र। शतभिषा (मण्डलाकाराकृति शततारामयं चतुविंशनक्षत्रम् (वरीयः) उरुतरम् (आ) आ वहतु (मे) (द्वया) ङीप् स्थाने टाप्। द्विप्रकारा (प्रोष्ठपदा) प्रकृष्टो ओष्ठोऽस्येति प्रोष्ठो गौः, भद्रश्च गौस्तस्येव पादा यस्याः सा। सुप्रातसुश्वसुदिवशारि–०। पा० ५।४।१२०। इत्यच्। पूर्वभाद्रपदा नक्षत्रम्। उत्तरभाद्रपदा नक्षत्रं वा। पूर्वभाद्रपदादक्षिणोत्तरवर्ति खट्वाकृति तारकाद्वयात्मकं पञ्चविंशनक्षत्रम्। उत्तरभाद्रपदा। पर्यङ्करूपमष्टतारात्मकं षड्विंशनक्षत्रम् (सुशर्म) बहुसुखम् (रेवती) अ० ३।४।७। रेवृ गतौ-अतच्, ङीप्। मत्स्याकृति द्वात्रिंशत् तारात्मकं सप्तविंशनक्षत्रम् (च) (अश्वयुजा) अश्व+युजिरं योगे-क्विप्। अश्वं युनक्ति रूपेणानुकरोति। अश्विनी। अश्वारूढपुरुषस्य रूपयुक्तं यद्वा घोटकमुखाकृति तारात्रयात्मकं प्रथमनक्षत्रम् (भगम्) ऐश्वर्यम् (मे) मह्यम् (आ) चार्थे (मे) (रयिम्) धनम् (भरण्यः) डु भृञ् धारणपोषणयोः ल्यु, ङीप्। तारकात्रयमितत्रिकोणाकृति द्वितीयाँ नक्षत्रम् (आ वहन्तु) आनयन्तु ॥

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