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  • यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 21
    ऋषिः - वामदेव ऋषिः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - भूरिक् ब्राह्मी बृहती, स्वरः - मध्यमः
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    वे॒दोऽसि॒ येन॒ त्वं दे॑व वेद दे॒वेभ्यो॑ वे॒दोऽभ॑व॒स्तेन॒ मह्यं॑ वे॒दो भूयाः॑। देवा॑ गातुविदो गा॒तुं वि॒त्त्वा गा॒तुमि॑त। मन॑सस्पतऽइ॒मं दे॑व य॒ज्ञꣳ स्वाहा॒ वाते॑ धाः॥२१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वे॒दः। अ॒सि॒। येन॑। त्वम्। दे॒व॒। वे॒द॒। दे॒वेभ्यः॑। वे॒दः। अभ॑वः। तेन॑। मह्य॑म्। वे॒दः॒। भू॒याः॒। देवाः॑। गा॒तु॒वि॒द॒ इति॑ गातुऽविदः। गा॒तुम्। वि॒त्त्वा। गा॒तुम्। इ॒त॒। मन॑सः। प॒ते॒। इ॒मम्। दे॒व॒। य॒ज्ञम्। स्वाहा॑। वाते॑। धाः॒ ॥२१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वेदोसि येन त्वन्देव वेद देवेभ्यो वेदो भवस्तेन मह्यँवेदो भूयाः । देवा गातुविदो गातुँवित्त्वा गातुमित । मनसस्पतऽइमन्देव यज्ञँस्वाहा वाते धाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वेदः। असि। येन। त्वम्। देव। वेद। देवेभ्यः। वेदः। अभवः। तेन। मह्यम्। वेदः। भूयाः। देवाः। गातुविद इति गातुऽविदः। गातुम्। वित्त्वा। गातुम्। इत। मनसः। पते। इमम्। देव। यज्ञम्। स्वाहा। वाते। धाः॥२१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 2; मन्त्र » 21
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    पदार्थ -

    १. प्रभु अपने पुत्र से कहते हैं— ( वेदः असि ) = तू ज्ञानी है। यही सर्वमहान् प्रेरणा है, जो प्रभु के द्वारा जीव को दी जाती है। तुझे संसार में ऐसा कोई कार्य नहीं करना जो ज्ञानी को शोभा नहीं देता। 

    २. ( येन ) = क्योंकि ( देव ) = हे ज्ञान-ज्योति से जगमगानेवाले जीव! ( त्वम् ) = तू ( देवेभ्यः ) = विद्वानों से ( वेद ) = ज्ञान को प्राप्त करता है ( तेन ) = इसलिए ( वेदः ) = ज्ञानी ( अभवः ) = हुआ है। उत्तिष्ठत जागृत प्राप्य वरान् निबोधत—उठो, जागो, श्रेष्ठों को प्राप्त करके ज्ञानी बनो—यह उपनिषदों का उपदेश है। स्वाध्याय-प्रवचन को तुझे कभी नहीं छोड़ना, सब उत्तम कार्यों को करते हुए तुझे इन्हें सदा अपनाये रखना है। स्वाध्याय ही परम तप है। 

    ३. ( मह्यम् ) = मेरी प्राप्ति के लिए तू ( वेद ) = ज्ञान का पुञ्ज ( भूयाः ) = बनना। ज्ञानी बनकर ही तू मुझे प्राप्त करेगा। 

    ४. ( देवाः ) = ज्ञान-ज्योति से दीप्त होनेवाले ज्ञानी लोग ( गातुविदः ) = मार्ग को जाननेवाले होते हैं। ज्ञानी पुरुष को अपना कर्त्तव्यमार्ग सुस्पष्ट दीखता है। 

    ५. तुम ( गातुं वित्त्वा ) = मार्ग को जानकर ( गातुं इत ) = मार्ग पर चलनेवाले बनो। मनुष्य मार्ग से विचलित तब हुआ करता है, जब वह अपने मन का पति नहीं होता। अपने मन को वश में न कर सकनेवाला व्यक्ति कह उठता है— जानामि धर्मं मे प्रवृत्तिः —मुझे धर्म का ज्ञान तो है, परन्तु मैं उधर चल नहीं पाता। जानाम्यधर्मं मे निवृत्तिः = मैं अधर्म को भी जानता हूँ, परन्तु उससे हट नहीं सकता। प्रभु कहते हैं— ( मनसस्पते ) = हे मन के पति जीव! तू अपने मन को वश में कर और ( देवः ) = दिव्य गुणोंवाला बना हुआ तू ( इमं यज्ञम् ) = इस यज्ञ का लक्ष्य करके ( स्वाहा ) = आत्मत्याग करनेवाला बन और —

    ७. ( वाते ) = इस संसार-शकट के चलानेवाले वायु नामक प्रभु में ( धाः ) = अपने को स्थापित कर [ वा गतौ, तदेवाङ्गिनस्तदादित्यस्तद्वायुः ] वे प्रभु ही वायु व वात = गति देनेवाले हैं। तू अपने द्वारा किये जानेवाले इन यज्ञों को भी प्रभु की शक्ति से सम्पन्न होता हुआ समझना। तू अपने यज्ञों को उसी में समर्पित करना।

    भावार्थ -

    भावार्थ — तू ज्ञानी बन। मार्ग को जानकर उसी पर चल। मन का पति बनकर यज्ञ के लिए त्याग कर। यज्ञों को उस प्रभु में अर्पित कर।

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