Loading...
यजुर्वेद अध्याय - 2

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 21
    ऋषिः - वामदेव ऋषिः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - भूरिक् ब्राह्मी बृहती, स्वरः - मध्यमः
    172

    वे॒दोऽसि॒ येन॒ त्वं दे॑व वेद दे॒वेभ्यो॑ वे॒दोऽभ॑व॒स्तेन॒ मह्यं॑ वे॒दो भूयाः॑। देवा॑ गातुविदो गा॒तुं वि॒त्त्वा गा॒तुमि॑त। मन॑सस्पतऽइ॒मं दे॑व य॒ज्ञꣳ स्वाहा॒ वाते॑ धाः॥२१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वे॒दः। अ॒सि॒। येन॑। त्वम्। दे॒व॒। वे॒द॒। दे॒वेभ्यः॑। वे॒दः। अभ॑वः। तेन॑। मह्य॑म्। वे॒दः॒। भू॒याः॒। देवाः॑। गा॒तु॒वि॒द॒ इति॑ गातुऽविदः। गा॒तुम्। वि॒त्त्वा। गा॒तुम्। इ॒त॒। मन॑सः। प॒ते॒। इ॒मम्। दे॒व॒। य॒ज्ञम्। स्वाहा॑। वाते॑। धाः॒ ॥२१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वेदोसि येन त्वन्देव वेद देवेभ्यो वेदो भवस्तेन मह्यँवेदो भूयाः । देवा गातुविदो गातुँवित्त्वा गातुमित । मनसस्पतऽइमन्देव यज्ञँस्वाहा वाते धाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वेदः। असि। येन। त्वम्। देव। वेद। देवेभ्यः। वेदः। अभवः। तेन। मह्यम्। वेदः। भूयाः। देवाः। गातुविद इति गातुऽविदः। गातुम्। वित्त्वा। गातुम्। इत। मनसः। पते। इमम्। देव। यज्ञम्। स्वाहा। वाते। धाः॥२१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 2; मन्त्र » 21
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    स जगदीश्वरः कीदृशोऽस्तीत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे देव जगदीश्वर! येन त्वं वेदोऽसि सर्वं च वेद, येन च त्वं देवेभ्यो वेदोऽभवस्तेन त्वं मह्यमपि वेदो भूयाः। हे गातुविदो देवा भवन्तो येन वेदेन सर्वा विद्या विदन्ति, येन यूयं गातुं वित्त्वा गातुमित। हे मनसस्पते देव! त्वमिमं यज्ञं वाते धाः स्वाहा हे देवास्तमिमं मनसस्पतिं परमेश्वरमेव देवं नित्यमुपासीध्वम्॥२१॥

    पदार्थः

    (वेदः) वेत्ति चराचरं जगत् स जगदीश्वरः। विदन्ति येन स ऋग्वेदादिर्वा (असि) भवसि वा (येन) विज्ञानेन वेदेन वा (त्वम्) (देव) शुभगुणदातः (वेदः) जानासि वेत्ति वा (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यः (वेदः) वेदयिता (अभवः) भवसि (तेन) विज्ञानप्रकाशनेन (मह्यम्) विज्ञानं जिज्ञासवे (वेदः) ज्ञापकः (भूयाः) (देवाः) विद्वांसः (गातुविदः) गीयते स्तूयतेऽनया सा गातुः स्तुतिस्तस्या विदो वक्तारः। कमिमनिजनि॰ (उणा॰१.७३) अनेन गास्तुताविस्यस्मात् तुः प्रत्ययः (गातुम्) गीयते ज्ञायते येन स गातुर्वेदस्तम्। गातुरिति पदनामसु पठितम् (निघं॰४.१) अनेन ज्ञानार्थो गृह्यते (वित्त्वा) लब्ध्वा (गातुम्) गीयते शब्द्यते यस्तं यज्ञम् (इत) प्राप्नुत (मनसः) विज्ञानस्य (पते) पालक (इमम्) प्रत्यक्षमनुष्ठितमनुष्ठातव्यं वा (देव) सर्वजगत्प्रकाशक (यज्ञम्) क्रियाकाण्डजन्यं संसारम् (स्वाहा) सुष्ठु आहुतं हविः करोत्यनया सा (वाते) वायौ (धाः) धापय धापयति वा। अत्र सर्वत्र पक्षान्तरे व्यत्ययेन प्रथमः। बहुलं छन्दस्यामाङ्योगेऽपि [अष्टा॰६.४.७५] इत्य[भावः॥ अयं मन्त्रः (शत॰१.९.२.२१-२८) व्याख्यातः॥२१॥

    भावार्थः

    हे विद्वांसो मनुष्या! यूयं येन सर्ववेत्रा वेदविद्या प्रकाशिता तमेवोपास्यं विदित्वा क्रियाकाण्डमनुष्ठाय सर्वहितं सम्पादयत। नैव वेदविज्ञानेन तत्रोक्तविधानानुकूलस्यानुष्ठानेन च विना मनुष्याणां कदाचित् सुखं सम्भवति, वेदविद्यया सर्वसाक्षिणमीश्वरं देवं सर्वतो व्यापकं मत्वैव नित्यं धर्मस्यानुष्ठातारो भवतेति॥२१॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषयः

    स जगदीश्वरः कीदृशोऽस्तीत्युपदिश्यते॥

    सपदार्थान्वयः

    हे देव!=जगदीश्वर शुभगुणदात: ! येन विज्ञानेन वेदेन वा त्वं वेदो वेत्ति चराचरं जगत् स जगदीश्वरः, विदन्ति येन स ऋग्वेदादिर्वा असि भवसि सर्वं च वेद जानासि (वेत्ति वा)।

    येन विज्ञानेन वेदेन वा च त्वं वा देवेभ्यो विद्वद्भ्यो वेदो वेदयिता अभवो भवसि, तेन विज्ञानप्रकाशेन त्वं मह्यं विज्ञानं जिज्ञासवे अपि वेदो ज्ञापको भूयाः॥२१॥

     

    हे गातुविदः ! गीयते स्तूयतेऽनया सा गातुः=स्तुतिस्तस्या विदो वित्तारः ! देवाः ! विद्वांसः! भवन्तो येन वेदेन सर्वा विद्या विदन्ति, तेन यूयं गातुं गीयते=ज्ञायते येन स गातुर्वेदस्तं वित्त्वा लब्ध्वा गातुं गीयते=शब्द्यते यस्तं यज्ञम् इत प्राप्नुत।

    हे मनसः विज्ञानस्य पते ! पालक ! देव ! सर्वजगत्प्रकाशक ! त्वमिमं प्रत्यक्षमनुष्ठितमनुष्ठातव्यं यज्ञं क्रियाकाण्डजन्यं संसारं वाते वायौ धाः धापय (धापयति वा) स्वाहा सुष्ठु आहुत हविः करोत्यनया सा।

    हे देवाः ! तमिमं मनसस्पति परमेश्वरमेव देवं नित्यमुपासीध्वम् ॥ २ । २१ ॥

    पदार्थः

    (वेदः) वेत्ति चराचर जगत् स जगदीश्वरः । विदन्ति येन स ऋग्वेदादिर्वा (असि) भवसि वा (येन) विज्ञानेन वेदेन वा (त्वम्) (देव) शुभगुणदातः (वेद) जानासि वेत्ति वा (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यः (वेदः) वेदयिता (अभवः) भवसि (तेन) विज्ञानप्रकाशनेन (मह्यम्) विज्ञान जिज्ञासवे (वेदः) ज्ञापकः (भूयाः) (देवाः) विद्वांसः (गातुविदः) गीयते स्तूयतेऽनया सा गातुः स्तुतिस्तस्या विदो वक्तारः । कमिमनिजनि० ॥ उ० १ । ७३ ॥ अनेन गास्तुतावित्यस्मात् तुः प्रत्ययः (गातुम्) गीयते ज्ञायते येन स गातुर्वेदस्तम् । गातुरिति पदनामसु पठितम् ॥ निघं० ४ । १॥ अनेन ज्ञानार्थो गृह्यते (वित्त्वा) लब्ध्वा (गातुम्) गीयते शब्द्यते यस्तं यज्ञम् (इत) प्राप्नुत (मनसः) विज्ञानस्य (पते) पालक (इमम्) प्रत्यक्षमनुष्ठितमनुष्ठातव्यं वा (देव) सर्वजगत्प्रकाशक (यज्ञम्) क्रियाकाण्डजन्यं संसारम् (स्वाहा) सुष्ठु आहुतं हविः करोत्यनया सा (वाते) वायौ (धाः) धापय धापयति वा । अत्र सर्वत्र पक्षान्तरे व्यत्ययेन प्रथमः । बहुलं छन्दस्यमाङ्गेऽपीत्मडभावः । अयं मंत्रः श० १।९।२ । २३–२८ व्याख्यातः ॥ २१ ॥

    भावार्थः

    [हे गुणविदो देवा ! भवन्तो येन वेदेन सर्वाविद्मा विदन्ति, तेन यूयं गातुं वित्त्वा गातुमित, हे मनसस्पते ! देव ! त्वमिमं यज्ञं वाते धाः]

    हे विद्वांसो मनुष्या ! यूयं येन सर्ववेत्रा' वेदविद्या प्रकाशिता तमेवो पास्यं विदित्वा क्रियाकाण्डमनुष्ठाय सर्वहितं सम्पादयत । नैव वेदविज्ञानेन तत्रोक्तविधानानुकूलस्यानुष्ठानेन च विना मनुष्याणां कदाचित् सुखं सम्भवति ।

     

    [हे देवा ! तमिमं मनसस्पतिं परमेश्वरमेव देवं नित्यमुपासीध्वम्]

       वेदविद्यया सर्वसाक्षिणमीश्वरं देवं सर्वतो व्यापकं मत्वैव नित्यधर्मस्यानुष्ठातारो भवतेति ॥२।२१॥

    भावार्थ पदार्थः

    गातुम्=उपास्यम् । यज्ञम्=क्रियाकाण्डम् । मनसस्पतिम्=सर्वसाक्षिणम् ॥

    विशेषः

    वामदेवः। प्रजापतिः=ईश्वरः॥ भूरिग्ब्राह्मी बृहती। मध्यमः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    सो जगदीश्वर कैसा है। सो इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे (देव) शुभ गुणों के देनेहारे जगदीश्वर! (त्वम्) आप (वेदः) चराचर जगत् के जानने वाले (असि) हैं, सब जगत् को (वेद) जानते हैं तथा (येन) जिस विज्ञान वा वेद से (देवेभ्यः) विद्वानों के लिये (वेदः) पदार्थों के जानने वाले (अभवः) होते हैं, (तेन) उस विज्ञान के प्रकाश से आप (मह्यम्) मेरे लिये, जो कि मैं विशेष ज्ञान की इच्छा कर रहा हूं, (वेदः) विज्ञान देने वाले (भूयाः) हूजिये। हे (गातुविदः) स्तुति के जानने वाले (देवाः) विद्वानो! जिस वेद से मनुष्य सब विद्याओं को जानते हैं, उससे तुम लोग (गातुम्) विशेष ज्ञान को (वित्त्वा) प्राप्त होकर (गातुम्) प्रशंसा करने योग्य वेद को (इत) प्राप्त हो। हे (मनसस्पते) विज्ञान से पालन करने हारे (देव) सर्वजगत् प्रकाशक परमेश्वर आप (इमम्) प्रत्यक्ष अनुष्ठान करने योग्य (यज्ञम्) क्रियाकाण्ड से सिद्ध होने वाले यज्ञरूप संसार को (स्वाहा) क्रिया के अनुकूल (वाते) पवन के बीच (धाः) स्थित कीजिये। हे विद्वानो! उस विज्ञान से विशेष ज्ञान देने वाले परमेश्वर ही की नित्य उपासना करो॥२१॥

    भावार्थ

    हे विद्वान् मनुष्यो! तुम लोगों को जिस वेद जानने वाले परमेश्वर ने वेदविद्या प्रकाशित की है, उसकी उपासना करके उसी वेदविद्या को जान कर और क्रियाकाण्ड का अनुष्ठान करके सब का हित सम्पादन करना चाहिये, क्योंकि वेदों के विज्ञान के विना तथा उसमें जो-जो कहे हुए काम हैं, उनके किये विना मनुष्यों को कभी सुख नहीं हो सकता। तुम लोग वेदविद्या से जो सब का साक्षी ईश्वर देव है, उस को सब जगह व्यापक मानके नित्य धर्म में रहो॥२१॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    यह जगदीश्वर कैसा है, यह उपदेश किया है॥

    भाषार्थ

    हे (देव!) शुभगुणों के देने वाले जगदीश्वर! (येन) जिस जगत् विज्ञान अथवा वेद से (त्वम्) आप (वेदः) चराचर जगत् के जानने वाले हो तथा ज्ञान के साधन ऋग्वेदादि के देने वाले भी आप (असि) हो और आप सबको जानते हो।

     (येन च) और जिस विज्ञान वा वेद से आप (देवेभयः) विद्वानों के लिए (वेदः) जानने वाले (भवसि) हो, (तेन) उस विज्ञान के प्रकाश से आप (मह्मम्)  मुझ विज्ञान के जिज्ञासु को भी (वेदः) बतलाने वाले (भूयाः) हो।

     हे (गातुविदः!) स्तुति के जानने वाले! (देवा!) विद्वानो! आप जिस वेद से सारी विद्याएँ जानते हैं, उससे तुम लोग (गातुम्) ज्ञान के साधन वेद को (वित्त्वा) प्राप्त करके (गातुम्) प्रशंसा के योग्य यज्ञ को (इत) प्राप्त करो। हे (मनसः) विज्ञान का (पते!) पालन करने वाले (देवः!) सब जगत् को प्रकाशित करने वाले! (त्वम्) आप (इमम्) प्रत्यक्ष किया हुआ अथवा करने योग्य (यज्ञम्) कर्म-काण्ड से उत्पन्न संसार को (वाते) वायु में (धाः) धारणा करे रहे हो, (स्वाहा) हम उसके लिए शुद्ध हवि प्रदान करते हैं।

    हे विद्वानो तुम उस विज्ञज्ञन के पति= परमेश्वर देव की ही सदा उपसाना किया करो॥ २।२१॥

    भावार्थ

    हे विद्वान् मनुष्यो! तुम लोग जिस सर्वज्ञ ईश्वर ने वेदविद्या प्रकाशित की है उसी को उपासना के योग्य जानकर, कर्मकाण्ड का अनुष्ठान करके सबका कल्याण करो। क्योंकि वेद विज्ञान और उसमें प्रतिपादित विधान के अनुकूल आचरण किए बिना मनुष्यों को कभी भी सुख नहीं हो सकता।

     वेदविद्या के द्वारा सबके द्रष्टा ईश्वर-देव को सर्वव्यापक समझ कर ही नित्य धर्म के पालक बनो॥२।२१॥

    भाष्यसार

    १. ईश्वर--जगदीश्वर शुभगुणों का दाता, वेद वा विज्ञान से सब चराचर जगत् को जानने वाला, सर्वज्ञ है। और वेद वा विज्ञान के द्वारा सब विद्वानों को बोध कराने वाला है। विज्ञान का पालक, सब जगत् का प्रकाशक और संसार को वायु में धारण करने वाला है।

    • ईश्वर प्रार्थना--हे जगदीश्वर! आप चराचर जगत् को जानने वाले हो, विद्वानों को वेदों के द्वारा सब विद्याओं का बोध कराने वाले हो, कृपा करके अपने विज्ञान के प्रकाश से मुझ जिज्ञासु को भी अपने विज्ञान का बोध कराओ, विज्ञान का दान करो। आप इस यज्ञ रूप संसार का धारण करो।

    हे स्तुति के जानने वाले विद्वानो! आप लोग सर्वविद्या-निधान वेद के द्वारा ही वेद को जानकर स्तुति योग्य यज्ञ कर्म को प्राप्त करो और सर्वज्ञ परमेश्वर की ही नित्य उपासना करो।

    विशेष

    वामदेवः।  प्रजापतिः=ईश्वरः॥ भुरिग्ब्राह्मी बृहती। मध्यमः॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    प्रभु द्वारा अपने मानस पुत्र का किया जानेवाला ‘जातकर्मसंस्कार’

    पदार्थ

    १. प्रभु अपने पुत्र से कहते हैं— ( वेदः असि ) = तू ज्ञानी है। यही सर्वमहान् प्रेरणा है, जो प्रभु के द्वारा जीव को दी जाती है। तुझे संसार में ऐसा कोई कार्य नहीं करना जो ज्ञानी को शोभा नहीं देता। 

    २. ( येन ) = क्योंकि ( देव ) = हे ज्ञान-ज्योति से जगमगानेवाले जीव! ( त्वम् ) = तू ( देवेभ्यः ) = विद्वानों से ( वेद ) = ज्ञान को प्राप्त करता है ( तेन ) = इसलिए ( वेदः ) = ज्ञानी ( अभवः ) = हुआ है। उत्तिष्ठत जागृत प्राप्य वरान् निबोधत—उठो, जागो, श्रेष्ठों को प्राप्त करके ज्ञानी बनो—यह उपनिषदों का उपदेश है। स्वाध्याय-प्रवचन को तुझे कभी नहीं छोड़ना, सब उत्तम कार्यों को करते हुए तुझे इन्हें सदा अपनाये रखना है। स्वाध्याय ही परम तप है। 

    ३. ( मह्यम् ) = मेरी प्राप्ति के लिए तू ( वेद ) = ज्ञान का पुञ्ज ( भूयाः ) = बनना। ज्ञानी बनकर ही तू मुझे प्राप्त करेगा। 

    ४. ( देवाः ) = ज्ञान-ज्योति से दीप्त होनेवाले ज्ञानी लोग ( गातुविदः ) = मार्ग को जाननेवाले होते हैं। ज्ञानी पुरुष को अपना कर्त्तव्यमार्ग सुस्पष्ट दीखता है। 

    ५. तुम ( गातुं वित्त्वा ) = मार्ग को जानकर ( गातुं इत ) = मार्ग पर चलनेवाले बनो। मनुष्य मार्ग से विचलित तब हुआ करता है, जब वह अपने मन का पति नहीं होता। अपने मन को वश में न कर सकनेवाला व्यक्ति कह उठता है— जानामि धर्मं मे प्रवृत्तिः —मुझे धर्म का ज्ञान तो है, परन्तु मैं उधर चल नहीं पाता। जानाम्यधर्मं मे निवृत्तिः = मैं अधर्म को भी जानता हूँ, परन्तु उससे हट नहीं सकता। प्रभु कहते हैं— ( मनसस्पते ) = हे मन के पति जीव! तू अपने मन को वश में कर और ( देवः ) = दिव्य गुणोंवाला बना हुआ तू ( इमं यज्ञम् ) = इस यज्ञ का लक्ष्य करके ( स्वाहा ) = आत्मत्याग करनेवाला बन और —

    ७. ( वाते ) = इस संसार-शकट के चलानेवाले वायु नामक प्रभु में ( धाः ) = अपने को स्थापित कर [ वा गतौ, तदेवाङ्गिनस्तदादित्यस्तद्वायुः ] वे प्रभु ही वायु व वात = गति देनेवाले हैं। तू अपने द्वारा किये जानेवाले इन यज्ञों को भी प्रभु की शक्ति से सम्पन्न होता हुआ समझना। तू अपने यज्ञों को उसी में समर्पित करना।

    भावार्थ

    भावार्थ — तू ज्ञानी बन। मार्ग को जानकर उसी पर चल। मन का पति बनकर यज्ञ के लिए त्याग कर। यज्ञों को उस प्रभु में अर्पित कर।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    वेदमय देव का स्वरूप ।

    भावार्थ

     हे ( देव ) सब पदार्थों के देने और उनका प्रकाशन करने हारे परमेश्वर ! ( येन )जिस ज्ञान से ( त्वं ) तू ( वेद ) समस्त संसार के पदार्थों और विज्ञानों को जानता और सब को जनाता है. इसी से तू ( वेद: असि ) स्वयं भी 'वेद' स्वरूप है । उसी कारण उसी वेदमय ज्ञानरूप से तू ( देवेभ्यः ) ज्ञानप्रकाशक विद्वानों के लिये भी स्वयं ( वेद: ) वेद या ज्ञान रूप से ( अभवः ) प्रकट होता है । (तेन ) उसी ज्ञानरूप में हे परमेश्वर ! आप ( मह्यम् )मेरे लिये ( वेद: ) ' वेदमय ज्ञानमय रूप से ( भूयाः ) प्रकट हों  (देवाः ) देव ज्ञान के प्रकाश करने हारे पुरुष पदार्थों के यथार्थ गुणों को जानने वाले एवं गातु अर्थात् गमन करनेयोग्य मार्ग को जानने वाले होते हैं ! हे विद्वान् पुरुषो ! आप लोग ( गातुम् ) गातु, सब पदार्थों के यथार्थ स्वरूप या उत्तम भाग का ज्ञान करने वाले, मार्गोपदेशक वेद का (वित्त्वा) ज्ञान करके ( गातुम् ) उपदेश करने योग्य यज्ञ या संसार की सत् व्यवस्थाओं को ( इत ) प्राप्त होवो, उसको अपने वश करो । हे ( मनसः पते ) समस्त संकल्प विकल्प करने वाले समष्टिरूप मनके परिपालक प्रभो ! हे ( देव ) प्रकाशक ! ( इमस् ) इस संसार रूप यज्ञ को ( वाले ) वायु रूप महान् प्राण के आधार पर आप ( धाः ) धारण कर रह हो । ( सु आहा) यही समस्त संसार को वायु रूप सूत्रात्मा तुझ में उत्तम आहुति अर्थात् धारणाव्यवस्था है ॥ 
    अध्यात्म में - ज्ञानकर्ता, सब विषयों के ज्ञान का उपलब्धिकर्ता आत्मा 'वेद' है। देव इन्द्रियों को भी वही ज्ञान करता है । गातु अर्थात् =ज्ञान या शरीर । गात्र=मनसस्पति, आत्मा । वात=प्राण । यज्ञ = मानस यज्ञ या शरीर । योजना स्पष्ट है ॥ शत० १ । ९ । २ । २३-२८ ॥
     

    टिप्पणी

    २१ --- उत्तरार्धस्य मनसस्पतिःऋषिः । वातो देवता । सर्वा० । वामदेव ऋषिः प्रजापतिर्देवता । इति द० ॥ 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परमेष्ठी प्राजापत्यः, देवाः प्राजापत्या, प्रजापतिर्वा ऋषिः ।
    प्रकृतो, मनसस्पतिश्च ऋषी । वेदः प्रजापतिर्देवता । भुरिग् ब्राह्मी बृहती छन्दः । मध्यमः॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (2)

    भावार्थ

    हे विद्वान माणसांनो ! तुमच्यासाठी ज्या परमेश्वराने वेदविद्या प्रकट केलेली आहे त्याची उपासना करून वेदविद्या जाणा व कार्याचे अनुष्ठान करून सर्वांचे हित करा. कारण वेदाच्या ज्ञानाशिवाय व त्यात सांगितलेले कर्म केल्याशिवाय माणसांना कधीच सुख प्राप्त होऊ शकत नाही. ईश्वर हा सर्वसाक्षी व सर्वव्यापक आहे, असे वेदात वर्णिलेले आहे. हे जाणून तुम्ही सदैव धर्माचे पालन करा.

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    तो जगदीश्‍वर कसा आहे, हे पुढील मंत्रात सांगितले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (देव) हे शुभ देणार्‍या जगदीश्‍वरा (त्वम्) तू (वेद:) चराचर जगताला जाणणारा (असि) आहेस. सर्व जगाला (वेद) जाणतोस. तू दिलेल्या (येन) ज्या विज्ञानाच्या आणि वेदांच्या ज्ञानाने (वेदेभ्य:) विद्वान जन (वेद:) पदार्थांचे गुणादींचे ज्ञान प्राप्त करणारे (असंभ:) होतात, (तेन) त्या विज्ञानाच्या प्रकाशाने तू (मह्यम्) विशेष ज्ञानाची इच्छा बाळगणार्‍या (वेद:) विज्ञान देणारा (भूया:) हो. (मातृनिद:) स्तुती-प्रार्थनादीचे ज्ञानी (देवा:) हे विद्वज्नहो, ज्या वेदांनी लोक सर्व विद्यादी ज्ञान मिळवतात, त्यांनी तुम्ही (मातृम्) विशेष ज्ञान (वित्वा) प्राप्त करून (गातुम्) प्रशंसनीय वेदांना (इत) प्राप्त करा (त्यांचे पठन-पाठन, अध्ययवादी करा) (देव) हे सर्व विश्‍वाचे प्रकाशक व पालक परमेश्‍वरा, तू (इमम्) या अनुष्ठान करण्यास योग्य अशा (यज्ञम्) क्रियाकांडाद्वारे सिद्ध होणार्‍या यज्ञरूप संसाराला (स्वाहा) केलेल्या क्रियेप्रमाणे अनुकूल हो आणि यज्ञाहुतीला (वाते) वायू मधे (धा:) स्थित कर. विद्वजजनो तुम्ही विज्ञानाच्या सहाय्याने विशेष ज्ञान देणार्‍या परमेश्‍वराची नित्य उपासना करा.॥21॥

    भावार्थ

    भावार्थ - हे विद्वान लोकहो, ज्या वेद प्रदाता परमेश्‍वराने तुमच्यासाठी वेदविद्येचा प्रकाश केला आहे, तुम्ही त्याची उपासना नित्य करा. तसेच वेदविद्येचे ज्ञान संपादित करून क्रियाकांडाप्रमाणे यज्ञादी कार्याद्वारे सर्वांचे कल्याण करा, हेच तुमच्यासाठी उचित कर्म आहे. कारण की वेदात सांगितलेल्या ज्ञानाविना तसेच त्यात सांगितलेल्या करणीय कर्मांविना मनुष्यांना कधीही सुख मिळणार नाही. म्हणून वेदविद्येने. सर्वसाक्षी परमेश्‍वराला जाणून घ्या व त्यास सर्वव्यापक मानून नित्य धर्मानुकूल राहा.॥21॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Oh God, Thou knowest the animate and the inanimate creation. Thou knowest everything in the universe. Just as Thou art the expounder of knowledge for the learned, so dost Thou expound knowledge unto me. Ye learned people, who know how to sing praises unto God, knowing the Veda that shows the right path, should master knowledge. Oh God, the Master of learning, rightfully fix this yajna like world in the air.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Meaning

    Prajapati, Lord of the universe, omniscient, you are Veda, Divine Word Itself. The knowledge by virtue of which you are omniscient for the seers and sages, who know the Veda and the ways of the world, is the knowledge for me too. Enlighten me with that. The seers, having realized that knowledge of existence, sing the hymns and follow the paths of virtue. Lord of mind and knowledge, take this yajna with the winds to the heights of heaven and place it there. Our oblations for that yajna.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    You are the divine knowledge; O Lord knowledge embodied, by which you become knowledge for the enlightened ones, by that may you become knowledge for me too. (1) O enlightened ones, who know the pathways well, having known of this sacrifice, come to attend this performance. O divine, Lord of mind, I dedicate. Sustain this sacrifice in the air. Svaha. (2)

    Notes

    Vedah, divine knowledge. Gatuvid, knower of pathways. Gatun,गीयते नानाविथेः वैदिकशब्देः प्रतिपाद्यते इति गातुः यज्ञः, that which isperformed by singing vedic mantras is gatuh, i. e. the sacrifice. Itn, come. Manzsaspate, О Lord of mind; one who guides the mind, God.

    इस भाष्य को एडिट करें

    बंगाली (1)

    विषय

    স জগদীশ্বরঃ কীদৃশোऽস্তীত্যুপদিশ্যতে ॥
    সেই জগদীশ্বর কেমন – এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (দেব) শুভগুণ প্রদাতা জগদীশ্বর ! (ত্বম্) আপনি (বেদঃ) চরাচর জগতের জ্ঞাতা (অসি) হয়েন । সর্ব জগৎকে (বেদ) জানেন তথা (য়েন) যে বিজ্ঞান বা বেদ বলে (দেবেভ্যঃ) বিদ্বান্দিগের জন্য (বেদঃ) পদার্থ – জ্ঞাতা (অভবঃ) হন্ (তেন) সেই বিজ্ঞানের প্রকাশ দ্বারা আপনি (মহ্যম্) আমার জন্য যাহা আমি বিশেষ জ্ঞানের ইচ্ছা করিতেছি (বেদঃ) বিজ্ঞান প্রদাতা (ভূয়াঃ) হউন । হে (গাতুবিদঃ) স্তুতিবিদ্ (দেবাঃ) বিদ্বান্গণ! যে বেদ দ্বারা মনুষ্য সকল বিদ্যাগুলিকে জানে তাহা দ্বারা তোমরা (গাতুম্) বিশেষ জ্ঞান (বিত্ত্বা) প্রাপ্ত হইয়া (গাতুম্) প্রশংসা করিবার যোগ্য বেদকে (ইত) প্রাপ্ত হও । হে (মনসস্পতে) বিজ্ঞানের পালক (দেব) সর্বজগৎ প্রকাশক পরমেশ্বর আপনি (ইমম্) প্রত্যক্ষ অনুষ্ঠান করিবার যোগ্য (য়জ্ঞম্) ক্রিয়াকান্ড দ্বারা সিদ্ধ হওয়ার যজ্ঞরূপ সংসারকে (স্বাহা) ক্রিয়ার অনুকূল (বাতে) পবনের মধ্যে (ধাঃ) স্থিত করুন । হে বিদ্বান্গণ । সেই বিজ্ঞান হইতে বিশেষ জ্ঞান প্রদাতা পরমেশ্বরেরই নিত্য উপাসনা কর ॥ ২১ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- হে বিদ্বান্ মনুষ্যগণ । তোমাদের নিকট যে বেদজ্ঞাতা পরমেশ্বর বেদবিদ্যা প্রকাশিত করিয়াছেন তাহারই উপাসনা করিয়া সেই বেদ বিদ্যা জ্ঞাত হইয়া এবং ক্রিয়াকান্ডের অনুষ্ঠান করিয়া সকলের হিত সম্পাদন করা উচিত । কেননা বেদের বিজ্ঞান ব্যতীত এবং তাহাতে কথিত যে যে কর্ম তাহা না করিয়া মনুষ্য কখনও সুখী হইতে পারে না । তোমরা বেদবিদ্যা দ্বারা সকলের সাক্ষী ঈশ্বরদেবকে সর্বত্র ব্যাপক মানিয়া নিত্য ধর্মে স্থিত থাক ॥ ২১ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    বে॒দো᳖ऽসি॒ য়েন॒ ত্বং দে॑ব বেদ দে॒বেভ্যো॑ বে॒দোऽভ॑ব॒স্তেন॒ মহ্যং॑ বে॒দো ভূয়াঃ॑ । দেবা॑ গাতুবিদো গা॒তুং বি॒ত্ত্বা গা॒তুমি॑ত । মন॑সস্পতऽই॒মং দে॑ব য়॒জ্ঞꣳ স্বাহা॒ বাতে॑ ধাঃ ॥ ২১ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    বেদোऽসীত্যস্য বামদেব ঋষিঃ । প্রজাপতির্দেবতা । ভুরিগ্ব্রাহ্মী বৃহতী ছন্দঃ ।
    মধ্যমঃ স্বরঃ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top