यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 8
ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - विष्णुर्देवता
छन्दः - विराट् ब्राह्मी पङ्क्ति,
स्वरः - पञ्चमः
123
अस्क॑न्नम॒द्य दे॒वेभ्य॒ऽआज्य॒ꣳ संभ्रि॑यास॒मङ्घ्रि॑णा विष्णो॒ मा त्वाव॑क्रमिषं॒ वसु॑मतीमग्ने ते छा॒यामुप॑स्थेषं॒ विष्णो॒ स्थान॑मसी॒तऽइन्द्रो॑ वी॒र्य्यमकृणोदू॒र्ध्वोऽध्व॒रऽआस्था॑त्॥८॥
स्वर सहित पद पाठअस्क॑न्नम्। अ॒द्य। दे॒वेभ्यः॑। आज्य॑म्। सम्। भ्रि॒या॒स॒म्। अङ्घ्रि॑णा। वि॒ष्णो॒ऽइति॑ विष्णो। मा। त्वा॒। अव॑। क्र॒मि॒ष॒म्। वसु॑मती॒मिति॒ वसु॑ऽमतीम्। अ॒ग्ने॒। ते॒। छा॒याम्। उप॑। स्थे॒ष॒म्। विष्णोः॑। स्थान॑म्। अ॒सि॒। इ॒तः। इन्द्रः॑। वी॒र्य्य᳖म्। अ॒कृ॒णो॒त्। ऊ॒र्ध्वः। अ॒ध्व॒रः। आ। अ॒स्था॒त् ॥८॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्कन्नमद्य देवेभ्यऽआज्यँ सम्भ्रियासमङ्घ्रिणा विष्णो मा त्वावक्रमिषँवसुमतीमग्ने ते छायामुपस्थेषँ विष्णो स्थानमसीतऽइन्द्रो वीर्यमकृणोदूर्ध्वा ध्वर आस्थात् ॥
स्वर रहित पद पाठ
अस्कन्नम्। अद्य। देवेभ्यः। आज्यम्। सम्। भ्रियासम्। अङ्घ्रिणा। विष्णोऽइति विष्णो। मा। त्वा। अव। क्रमिषम्। वसुमतीमिति वसुऽमतीम्। अग्ने। ते। छायाम्। उप। स्थेषम्। विष्णोः। स्थानम्। असि। इतः। इन्द्रः। वीर्य्यम्। अकृणोत्। ऊर्ध्वः। अध्वरः। आ। अस्थात्॥८॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनः स कीदृशो भूत्वा किं करोतीत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
अहं देवेभ्यो यदस्कन्नमविक्षुब्धमाज्यमङ्घ्रिणा संभ्रियासं [विष्णो] अद्य त्वा तदहं मावक्रमिषं मोल्लङ्घयेयम्। हे अग्ने जगदीश्वर! ते तव वसुमतीं छायामहमुपस्थेषमुपपत्सीय। योऽयमग्निर्विष्णोर्यज्ञस्य स्थानम(स्य)स्ति तस्यापि वसुमतीं छायामुपस्थाय यज्ञं साधयामि। य ऊर्ध्वोऽध्वरोऽग्नौ हुतः समन्तात् तिष्ठति तमित इन्द्रो धृत्वा वीर्य्यमकृणोत् करोति॥८॥
पदार्थः
(अस्कन्नम्) अविक्षुब्धम् (अद्य) अस्मिन्नहनि (देवेभ्यः) दिव्यसुखानां प्राप्तये (आज्यम्) घृतादिकम् (सम्) क्रियायोगे (भ्रियासम्) धारयेयम् (सम्) क्रियायोगे (अङ्घ्रिणा) गमनसाधनेनाग्निना (विष्णो) व्यापकेश्वर (मा) निषेधार्थे (त्वा) तं वा (अव) अवेति विनिग्रहार्थीयः (निरु॰१.३) (क्रमिषम्) उल्लंघयेयम्। अत्र लिङर्थे लुङ् (वसुमतीम्) वसूनि बहूनि वस्तूनि भवन्ति यस्यां ताम्। अत्र भूम्न्यर्थे मतुप्। (अग्ने) परमेश्वर भौतिको वा (ते) तव तस्य वा (छायाम्) आश्रयम् (उप) क्रियार्थे (स्थेषम्) उपपत्सीय। अत्र लिङ्याशिष्यङ् [अष्टा॰३.१.८६] इत्यङि कृते छन्दस्युभयथा [अष्टा॰३.४.११७] इति सार्वधातुकत्वादियादेश आर्द्धधातुकत्वात् सकारलोपो न भवति (विष्णोः) यज्ञस्य (स्थानम्) स्थित्यर्थम् (असि) भवति। अत्र व्यत्ययः (इतः) स्थानात् (इन्द्रः) सूर्य्यो वायुर्वा (वीर्य्यम्) वीरस्य कर्म पराक्रमं वा (अकृणोत्) करोति। अत्र लडर्थे लङ् (ऊर्ध्वः) आकाशस्थः सन् (अध्वरः) यज्ञः (आ) समन्तात् (अस्थात्) तिष्ठति। अत्र लडर्थे लुङ्॥ अयं मन्त्रः (शत॰१.४.१.१-३) व्याख्यातः॥८॥
भावार्थः
ईश्वर उपदिशति येन पूर्वोक्तेन यज्ञेनान्नजले शुद्धे पुष्कले भवतस्तदेतस्य सिध्यर्थं मनुष्यैः पुष्कलाः संभाराः सदा चेतव्याः। नैव मम व्यापकस्याज्ञामुल्लङ्घ्य वर्तितव्यम्। किन्तु बहुसुखप्रापकं मदाश्रयं गृहीत्वाऽग्नौ यो यज्ञः क्रियते, यमिन्द्रः स्वकीयैः किरणैश्छित्त्वा वायुना सहोर्ध्वमाकृष्योर्ध्वं मेघमण्डले स्थापयति, पुनस्तस्माद् भूमिं प्रति निपातयति, येन भूमौ महद्वीर्य्यं जायते, स सदाऽनुष्ठातव्य इति॥८॥
विषयः
पुनः स कीदृशो भूत्वा किं करोतीत्युपदिश्यते॥
पदार्थः
(अस्कन्नम्) अविक्षुब्धम् (अद्य) अस्मिन्नहनि (देवेभ्यः) दिव्यसुखानाम प्राप्तये (आज्यं) घ् तादिकम (सम) क्रियायोगे (भ्रियासम) धारयेयम (सम) क्रियायोगे (अन्घ्रिना) गमंसध्नेनाग्निना (विष्णो) व्यापकेश्वर (मा) निशेधार्थे (त्व) तं वा (अव) अवेति विनिग्रह्राथियः निरु १ ३
[ [विष्णो] ....." तदहंमाऽवक्रमिषं=मोल्लङ्घयेयम्
नैव मम व्यापकस्याज्ञामुल्लध्य वर्तितव्यम् किन्तु---
[बसुतती छायामुपस्थाय यज्ञं साधयामि]
बहुसुखप्रापक मदाश्रयं गृहीत्वाऽग्नौ यो क्रियते, यज्ञः
[य उर्ध्वोऽध्वरः अग्नौ हुतः [आ+अस्थात् ] समन्तात् तिष्ठति तमित इन्द्रो धृत्वा वीर्यमकृणोत्=करोति]
यमिन्द्रः स्वकीयैः किरणैश्छित्त्वा वायुना सहोर्ध्वमाकृष्योर्ध्वं मेघमण्डले स्थापयति, पुनस्तस्माद् भूमिं प्रति निपातयति, येन भूमौ महद्वीर्य्यं जायते स सदाऽनुष्ठातव्य इति ॥ २।८॥
भावार्थ पदार्थः
सम्भ्रियासम्=पुष्कलं सम्भारं सदा चिनुयाम् । अवक्रमिषम्=आज्ञामुल्लंघ्य वर्तिषीय । वसुमतीम्=बहुसुखप्रापिकाम् । छायाम्=मदाश्रयम् । आ+अस्थात्+मेघमण्डले स्थापयति ।
विशेषः
परमेष्ठी प्रजापतिः। विष्णुः=यज्ञः। विराट् ब्राह्मी पंक्तिः। पञ्चमः॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर भी उक्त यज्ञ कैसा होकर क्या करता है सो अगले मन्त्र में प्रकाश किया है॥
पदार्थ
मैं (देवेभ्यः) उत्तम सुखों की प्राप्ति के लिये जो (अस्कन्नम्) निश्चल सुखदायक (आज्यम्) घृत आदि उत्तम-उत्तम पदार्थ हैं, उसको (अङ्घ्रिणा) पदार्थ पहुँचाने वाले अग्नि से (अद्य) आज (संभ्रियासम्) धारण करूँ और (त्वा) उसका मैं (मावक्रमिषम्) कभी उल्लङ्घन न करूँ। तथा हे अग्ने जगदीश्वर! (ते) आपके (वसुमतीम्) पदार्थ देने वाले (छायाम्) आश्रय को (उपस्थेषम्) प्राप्त होऊँ। जो यह (अग्ने) अग्नि (विष्णोः) यज्ञ के (स्थानम्) ठहरने का स्थान (असि) है, उसके भी (वसुमतीम्) उत्तम पदार्थ देने वाले (छायाम्) आश्रय को मैं (उपस्थेषम्) प्राप्त होकर यज्ञ को सिद्ध करता हूं तथा जो (ऊर्ध्वः) आकाश और जो (अध्वरः) यज्ञ अग्नि में ठहरने वाला (आ) सब प्रकार से (अस्थात्) ठहरता है, उसको (इन्द्रः) सूर्य्य और वायु धारण करके (वीर्य्यम्) कर्म अथवा पराक्रम को (अकृणोत्) करते हैं॥८॥
भावार्थ
ईश्वर उपदेश करता है कि जिस पूर्वोक्त यज्ञ से जल और वायु शुद्ध होकर बहुत-सा अन्न उत्पन्न करने वाले होते हैं, उसको सिद्ध करने के लिये मनुष्यों को बहुत सी सामग्री जोड़नी चाहिये। जैसे मैं सर्वत्र व्यापक हूं, मेरी आज्ञा कभी उल्लङ्घन नहीं करनी चाहिये, किन्तु जो असंख्यात सुखों का देने वाला मेरा आश्रय है, उसको सदा ग्रहण करके अग्नि में जो हवन किया जाता है तथा जिस को सूर्य्य अपनी किरणों से खेंच कर वायु के योग से ऊपर मेघमण्डल में स्थापन करता है और फिर वह उस को वहाँ से मेघ द्वारा गिरा देता है और जिससे पृथिवी पर बड़ा सुख उत्पन्न होता है, उस यज्ञ का अनुष्ठान सब मनुष्यों को सदा करना योग्य है॥८॥
विषय
फिर उक्त यज्ञ कैसा होकर क्या करता है, यह उपदेश किया जाता है ॥
भाषार्थ
--(विष्णो!) हे सब में व्याप्त प्रभो! मैं (देवेभ्यः) दिव्य सुखों की प्राप्ति के लिए जो (अस्कन्मम्) स्थिर (आज्यम्) घृत आदि पदार्थ हैं, उनको (अङ्घ्रिणा) गति के साधन रूप अग्नि के द्वारा (संभ्रियासम्) अच्छे प्रकार धारण करूँ और (अद्य) आज (त्वा) उसका मैं (मा-अवक्रमिषम्) परित्याग न करूँ।
हे (अग्ने!) परमेश्वर! वा भौतिक अग्नि! (ते) आपके वा उस अग्नि के (वसुमतीम्) बहुत वस्तुओं वाले (छायाम्) आश्रय को मैं (उप+स्थेषम्) प्राप्त होऊँ।
जो यह अग्नि (विष्णोः) यज्ञ की (स्थानम्) स्थिति के लिए (असि) होता है, उस (वसुमतीम्) बहुत वस्तुओं वाले (छायाम्) आश्रय को भी प्राप्त करके यज्ञ को सिद्ध करूँ। और जो (ऊर्ध्वः) आकाश में स्थित होता हुआ (अध्वरः) अग्नि में हुत=हवन रूप यज्ञ (आ+अस्थात्) सब ओर स्थित होता है, उसको (इतः) इस स्थान से (इन्द्रः) सूर्य्य अथवा वायु धारण करके (वीर्यम्) वीर पुरुष का कर्म अथवा पराक्रम (अकृणोत्) बना देते हैं॥२।८॥
भावार्थ
ईश्वर उपदेश करता है--जिस पूर्वोक्त यज्ञ से अन्न और जल शुद्ध एवं अधिक मात्रा में उत्पन्न होते हैं उस यज्ञ की सिद्धि के लिए मनुष्यों को बहुत सी यज्ञ सामग्री सदा जोड़नी चाहिए।
मुझ व्यापक ईश्वर की इस आज्ञा का कभी उल्लंघन न करें। किन्तु-
बहुत सुखों को प्राप्त कराने वाले मेरे आश्रय को लेकर अग्नि में जो यज्ञ किया जाता है,
जिसे सूर्य अपनी किरणों से सूक्ष्म करके वायु की सहायता से ऊपर खैंच कर ऊपर ही मेघमण्डल में स्थापित करता है, फिर वहाँ से उसे भूमि पर गिराता है, जिससे भूमि में महान् शक्ति उत्पन्ल होती है, उस यज्ञ का सदा अुनष्ठान करना चाहिए॥२।८॥
भाष्यसार
यज्ञ कैसा है-- मनुष्य दिव्य सुखों की प्राप्ति के लिए अग्नि में घृतादि पदार्थों का होम करें तथा यज्ञ सामग्री का पुष्कल संचय करें। यह परमेश्वर की आज्ञा है इसका उल्लंघन कभी न करें। ईश्वर की इस आज्ञा का पालन करने से बहुत सुखों को प्राप्त कराने वाली उसकी छाया प्राप्त होती है।
विष्णु अर्थात् व्यापक यज्ञ का स्थित-स्थान अग्नि है। अग्नि का आश्रय भी बहुत वस्तुओं एवं सुखों को प्राप्त कराने वाला है। इस अग्नि से यज्ञ का अनुष्ठान करें।
यज्ञ का फल--अग्नि में होम किए हुए घृतादि पदार्थ आकाश में मेघमण्डल में स्थित हो जाते हैं जिन्हें सूर्य वायु के सहयोग से धारण करता है और उन्हें वर्षा के रूप में भूमि पर वीर्य बनाकर बरसाता है। जिससे सब दिव्य गुणों से युक्त औषधि और वनस्पति उत्पन्न होती है॥
विशेष
परमेष्ठी प्रजापतिः। विष्णुः=यज्ञः। विराट् ब्राह्मी पंक्तिः। पञ्चमः॥
विषय
प्रभु की शरण में
पदार्थ
पिछले मन्त्र में प्रार्थना थी कि हमारे व्यवस्थित घर में ‘नमः देवेभ्यः’ तथा ‘स्वधा पितृभ्यः’—ये दो कार्य सदा चलते रहें। ‘देवेभ्यः नमः’ ही सामान्य भाषा में ‘देवयज्ञ’ कहलाता है। उस देवयज्ञ का वर्णन प्रस्तुत मन्त्र में है। गृहस्थ की प्रार्थना है— १. मैं ( अद्य ) = आज ही, आज से ही ( देवेभ्यः ) = वायु आदि देवों के लिए ( आज्यम् ) = घृत को ( अंघ्रिणा ) = [ पादः पदंघ्रिश्चरणोऽस्त्रियाम् ] अपनी गति व पुरुषार्थ से ( अस्कन्नम् ) = अविच्छिन्न रूप से ( सम्भ्रियासम् ) = प्राप्त कराऊँ। ‘स्कन्दिर् गतिशोषणयोः’ धातु से बना हुआ ‘अस्कन्नम्’ क्रियाविशेषण यह सूचित करता है कि अग्नि आदि देवों के लिए मेरा घृत प्राप्त कराने का कार्य शुष्क न हो जाए—बीच में ही समाप्त न हो जाए। मैं यह समझ लूँ कि इस कार्य से मेरी मुक्ति मृत्यु के साथ ही होनी है। यह अग्निहोत्र ‘जरामर्य’ सत्र है।
२. हे ( विष्णो ) = सर्वव्यापक प्रभो! मैं ( त्वा ) = तेरा ( मा अवक्रमिषम् ) = कभी उल्लंघन न करूँ। मैं सदा आपकी आज्ञा का पालन करनेवाला बनूँ। हे ( अग्ने ) = मुझे निरन्तर आगे ले-चलनेवाले प्रभो! मैं ( ते ) = तेरी ( वसुमतीम् ) = उत्तम निवास देनेवाली ( छायाम् ) = शरण में ( उपस्थेषम् ) = स्थित होऊँ। वास्तविकता यह है कि ( विष्णो ) = हे सर्वव्यापक प्रभो! ( स्थानम् असि ) = ठहरने का स्थान तो आप ही हो। सचमुच जीव को आपका ही आधार है। प्रकृति का आधार तो अत्यन्त अविश्वसनीय ही है, सांसारिक बन्धुओं का आधार भी बहुत कुछ स्वार्थमय है।
३. ( इतः ) = यहाँ से ही—इस प्रभुरूप आधार से ही ( इन्द्रः ) = इन्द्रियों का अधिष्ठाता जीव ( वीर्यम् ) = शक्ति को ( अकृणोत् ) = सम्पादित करता है। जीव जितना-जितना प्रभु के सम्पर्क में आता है, उतना-उतना ही शक्तिशाली बनता है। सम्पूर्ण शक्ति का स्रोत प्रभु ही हैं।
४. हे प्रभो! आप ऐसी कृपा करो कि हमारे जीवनों में ( अध्वरः ) = अहिंसा व अकुटिलता से युक्त यज्ञ ( ऊर्ध्वः ) = सबसे ऊपर ( आस्थात् ) = स्थित हो, अर्थात् हम यज्ञ को अपने जीवन में सर्वोच्च स्थान दें। यह हमारा प्रथम [ first and foremost ] कर्त्तव्य हो। हम शक्ति प्राप्त करें और उसका विनियोग यज्ञों में करें।
भावार्थ
भावार्थ — हमारा जीवन एक अविच्छिन्न यज्ञ हो। हम प्रभु की आज्ञा का उल्लंघन न करें। हम प्रभु की शरण में स्थित हों, शक्ति प्राप्त करें और उस शक्ति का यज्ञात्मक कर्मों में विनियोग करें।
विषय
परमेश्वर और राजा की आज्ञा का पालन।
भावार्थ
( अद्य ) आज मैं ( देवेभ्यः ) देव, विद्वान् पुरुषों और अपने प्राणों के लिये ( अस्कन्नम् ) विक्षोभरहित, वीर्यसम्पन्न ( आज्यम् ) घी आदि पुष्टिप्रद पदार्थों या तेज को (सम् भ्रियासम्) संग्रह करूं। हे (विष्णोः) विष्णो! व्यापक परमेश्वर वा यज्ञ या राजन् ! ( अंघ्रिणा) गमन करने के साधन वा चरण द्वारा (त्वा मा अवक्रमिषम्) तेरा उल्लंघन न करूं अर्थात् तेरी आज्ञा का उल्लंघन न करूं । हे ( अग्ने ) ज्ञानवान् ! (ते) तेरी ( छायाम् ) प्रदान की छाया आश्रयरूप ( वसुमतीम् ) वसु, वास करने वाले जीवों से पूर्ण और ऐश्वर्य से पूर्ण पृथिवी को ( उपस्थेषम् ) प्राप्त होऊं । हे यज्ञ ! राष्ट्र ! तू ( विष्णोः स्थानम् असि ) विष्णु व्यापक, पालक राजा का स्थान है । (इतः) इस यज्ञ के द्वारा ही (इन्द्रः ) सूर्य, वायु और मेघ के समान ( वीर्यम्) बल का कार्य ( अकृणोत् ) करता है । वह (अध्वरः) हिंसारहित,अहिंसनीय सबका पालक (ऊर्ध्वः अस्थात् ) सबके ऊपर विराजमान है ।
राजा के पक्ष में -- ( अद्य देवेभ्यः ) आज देवों, शासक अधिकारियों, विद्वानों और युद्धवीरों के लिये ( अस्कन्नम् ) विक्षोभ रहित, वीर्यसम्पन्न (आज्यम्) आजि, संग्राम को हितकारी सामग्री को मैं राजा (संभ्रियासम् ) धारण करूं । हे ( विष्णोः ) राष्ट्र में शासन व्यवस्था द्वारा व्यापक राजन् ! मैं प्रजाजन ( त्वा) तेरा ( अंघ्रिणा ) पैर से गमन साधनों से ( मा अवक्रामिषम् ) कभी उल्लंघन न करूं, तेरा अपमान न करूं । हे ( अग्ने ) यज्ञ वेदि में अग्नि के समान पृथिवी में प्रदीप्त तेजस्विन् राजन् ! ( ते वसुमतीम् ) तेरे अधीन शासक होकर, वसु = विद्वानों, वसुप्राणियों और वसु = ऐश्वयों से पूर्ण इस ( छायाम् ) आश्रयस्वरूप आच्छादकरूप पृथिवी या शरण को ( उपस्थेयम् ) प्राप्त करूं । हे पृथिवि ! ( इतः ) तू यज्ञ-वेदि के समान ( विष्णोः ) व्यापक राजा का आश्रयस्थान ( असि ) है । (इतः ) इस राष्ट्रशासन रूप यज्ञ के द्वारा ही ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् राजा (वीर्यम्) वीरोचित कार्य को ((अकृणोत ) करता है । वह राजा ही ( ऊर्ध्वः ) सब से ऊपर विराजमान रहकर ( अध्वरः ) किसी से भी हिंसित न होकर एवं अपने बल पराक्रम से सब शत्रुओं को कम्पायमान करता हुआ (अस्थात्) सब पर शासक रूप से विराजता है । शत० १।५।१।२।३॥
टिप्पणी
८-स्रुचौ विष्णुरग्निरिन्द्रश्च देवताः । सर्वा० । '० अस्कन्नयमद्याज्यं देवेभ्यः सम्म्रियासम्०' इति काण्व० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
परमेष्ठी प्राजापत्यः, देवाः प्राजापत्या, प्रजापतिर्वा ऋषिः )
विष्णुर्देवता। विराट्पंक्तिः । पञ्चमः स्वरः ॥
मराठी (2)
भावार्थ
ईश्वर उपदेश करतो की, ज्या पूर्वोक्त यज्ञामुळे जल व वायू शुद्ध होऊन पुष्कळ अन्न उत्पन्न होते, त्यासाठी माणसांनी पुष्कळ यज्ञसामग्री एकत्रित करावी. मी (परमेश्वर) सर्वव्यापक असून, माझ्या आज्ञेचे उल्लंघन करू नये. असंख्य सुख ज्या आश्रयामुळे प्राप्त होते तो (माझा) आश्रय सदैव घेतला पाहिजे. अग्नीत जी आहुती दिली जाते त्यांना सूर्य आपल्या किरणांद्वारे ओढून घेतो व वायूच्या साह्याने त्यांची मेघमंडळात स्थापना करतो आणि त्यांना पुन्हा मेघांद्वारेच खाली पाडतो. त्यामुळे पृथ्वीवर अनुकूल परिस्थिती निर्माण होते. अशा यज्ञाचे अनुष्ठान सर्व माणसांनी सदैव केले पाहिजे.
विषय
पुनश्च, तो पूर्वोक्त यज्ञ कोणते स्वरूप धारण करून कोणते कार्य करावी, या विषयी पुढील मंत्रात कथन केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (देवेभ्य:) उत्तम सुखांच्या प्राप्तीकरिता जे (अस्कन्नम्) स्वामी सुख देणारे आहेत अशा (आज्यम्) धृत आदी पदार्थांंना (अंध्रिणा) त्या पदार्थांना नेणार्या किंवा वर पाठविणार्या अग्नीशी (अघ) मी आज (संभियासम्) संयुक्त करतो (त्या पदार्थांना सज्ञाग्नीत टाकतो) (त्वा) त्या क्रियेचे (यज्ञात आहुती देण्याचे माझ्याकडून कधीही (मावक्रमिषम्) उल्लंघन होऊ नये. हे (अग्ने) परमेश्वरा, (वसुमतीम्) त्या पदार्थांचा मला दान देणार्या (ते) तुझ्या (छायाम्) आश्रयाचा मी नेहमी आधार घ्यावा, असे कर. तसेच हा (अग्ने) अग्नी (विष्णते:) यज्ञाचे जे (स्थानम्) स्थान (असि) आहे, त्या स्थानाचा व (वसुमतीम्) उत्तम पदार्थ देणार्या (छायाम्) यज्ञाच्या आश्रयाचा देखील मी (उपस्थेषम्) कधीही त्याग करू नये, नेहमी यज्ञाचे अनुष्ठान करावे. (ऊर्ध्व:) वर आकाशात (अघ्वर:) यज्ञात स्थापित अग्नी (आ) सर्व प्रकारे (अस्थात्) स्थिर होतो. (इंद्र) सूर्य आणि वायू त्यास धारण करून (वीर्य्यम्) कर्म करतात अथवा सामर्थ्य (अकृणोत्) प्रकट करतात. (त्या यज्ञाग्नीमुळे सूर्य आणि वायू आपल्या शक्तीने जगाचा उपकार- कर्म करतात.) ॥8॥
भावार्थ
भावार्थ - परमेश्वर उपदेश करीत आहे की यज्ञामुळे जलाची आणि वायूची शुद्धी होते. त्या शुद्ध जल आणि वायूमुळे पुष्कळ अन्न-धान्याची उत्पत्ती होते. अशा यज्ञाच्या आयोजन-अनुष्ठानासाठी मनुष्यांनी भरपूर आवश्यक यज्ञ-सामग्रीचे संकलन केले पाहिजे. जाणवो की मी परमेश्वर सर्वत्र .व्यापक आहे. करिता माझ्या आज्ञेचे उल्लंघन कोणी कधीही करूं नये. या व्यतिरिक्त अगणित सुखांचे कारण जे माझे आश्रम आहे, त्या आश्रमात सदा राहावे. आश्रयात राहून मनुष्यांनी यज्ञाचे अनुष्ठान सदैव करावे, कारण की अग्नीत जे पदार्थ हवन केले जातात, त्यांस सूर्य आपल्या किरणांनी आकृष्ट करून वायूच्या साह्याने वर मेघमंडळात स्थापित करतो. पुन्हा सूर्य तेथून मेघाद्वारे जलरूपाने पृथ्वीवर सोडतो. आणि त्या वृष्टीमुळे भूमीवर महान सुखाचा प्रसार होतो. सर्व मनुष्यांनी असा हा महोपकारी यज्ञ करणे सदैव उचित आहे. ॥8॥
इंग्लिश (3)
Meaning
May I today for the acquisition of comforts collect through Yajna butter and other articles which contribute to happiness. O God may I never violate it (Yajna). O Lord may I obtain Thy refuge, abounding in store of riches. This fire is the abode of yajna. Through it (yajna) sun and air gain strength. This yajna resides in space and fire.
Meaning
Vishnu, Lord Omnipresent, universal yajna, I bring libations of ghee, pure and secure, for the devas through the fire of the vedi. Agni, Lord of Yajna, may I never neglect or violate yajna, and I pray I may always live in your protective shade. The fire in the vedi is the seat of Vishnu. It rises from the vedi to the vast sky and from there the sun and wind carry it all round and convert it into the noblest acts of the devotees.
Translation
Today I have offered unspilt melted butter to Nature's bounties. (1) О sacrifice, may I not violate you with my feet. 2) O adorable Lord, may I reach your wealth-bestowing shade and remain at the place of sacrifice. From here the resplendent Lord manifests his valour and the glory of the sacrifice is enhanced. (3)
Notes
Askannam, unspilt Visno, O sacrifice. Anghrih, foot. Devebhyah, for the bounties Nature. Vasumatum, full of wealth or bestowing wealth. Viryam akarot, वीरस्य कर्म वीर्य, valour. The resplendent Lord manifests His valour by destroying the enemies of the sacrifice,therefore the sacrifice can go on flourishing.
बंगाली (1)
विषय
পুনঃ স কীদৃশো ভূত্বা কিং করোতীত্যুপদিশ্যতে ॥
পুনরায় উক্ত যজ্ঞ কেমন হইয়া কী করে, তাহা পরবর্ত্তী মন্ত্রে প্রকাশ করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- আমি (দেবেভ্যঃ) উত্তম সুখের প্রাপ্তি হেতু যে (অস্কন্নম্) নিশ্চল সুখদায়ক (আজ্যম্) ঘৃতাদি উত্তম-উত্তম পদার্থ আছে তাহাকে (অঘ্রিণা) পদার্থ পৌঁছাইবার অগ্নি দ্বারা (অদ্য) আজ (সংভ্রিয়াসম্) ধারণ করি এবং (ত্বা) তাহার আমি (মাবক্রমিষম্) কখনও উল্লঙ্ঘন না করি । তথা হে অগ্নে জগদীশ্বর ! (তে) আপনার (বসুমতীম্) পদার্থ দাতা (ছায়াম্) আশ্রয় (উপস্যেষম্) প্রাপ্ত হই । এই যে (অগ্নে) অগ্নি (বিষ্ণোঃ) যজ্ঞের (স্থানম্) স্থিত হওয়ার স্থান (অসি) আছে তাহারও (বসুমতীম্) উত্তম পদার্থ প্রদাতা (ছায়াম্) আশ্রয়কে আমি (উপস্থেষম্) প্রাপ্ত হইয়া যজ্ঞ সিদ্ধ করি তথা যে (ঊর্ধ্বঃ) আকাশ এবং যে (অধ্বরঃ) যজ্ঞাগ্নিতে স্থিত (আ) সর্ব প্রকারে (অস্থাৎ) স্থিতি লাভ করে তাহাকে (ইন্দ্রঃ) সূর্য্য ও বায়ু ধারণ করিয়া (বীর্য়্যম্) কর্ম বা পরাক্রম লাভ (অকৃণীৎ) করি ॥ ৮ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- ঈশ্বর উপদেশ করিতেছেন যে, যে পূর্বোক্ত যজ্ঞ দ্বারা জল ও বায়ু শুদ্ধ হইয়া বহু অন্ন উৎপন্নকারী হয় তাহা সিদ্ধ করিবার জন্য মনুষ্যদিগকে অনেক সামগ্রী যুক্ত করা উচিত । যেমন আমি সর্বত্র ব্যাপক, আমার আজ্ঞা কখনও উল্লঙ্ঘন করা উচিত নহে কিন্তু যে অসংখ্য সুখ প্রদাতা আমার আশ্রয় তাহা সর্বদা গ্রহণ করিয়া অগ্নিতে যে হবন করা হয় তথা যাহাকে সূর্য্য নিজের কিরণগুলি দ্বারা আকৃষ্ট করিয়া বায়ু যোগে উপরে মেঘমণ্ডলে স্থাপন করে এবং পুনরায় সে তাহাকে সেখান হইতে মেঘ দ্বারা নিম্নে পতিত করিয়া দেয় এবং যাহাতে পৃথিবীতে অত্যন্ত সুখ উৎপন্ন হয়, সেই যজ্ঞের অনুষ্ঠান সকল মনুষ্যদিগের সর্বদা করণীয় ॥ ৮ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অস্ক॑ন্নম॒দ্য দে॒বেভ্য॒ऽআজ্য॒ꣳ সং ভ্রি॑য়াস॒মঙ্ঘ্রি॑ণা বিষ্ণো॒ মা ত্বাব॑ ক্রমিষং॒ বসু॑মতীমগ্নে তে ছা॒য়ামুপ॑স্থেষং॒ বিষ্ণো॒ স্থান॑মসী॒তऽইন্দ্রো॑ বী॒র্য়্য᳖মকৃণোদূ॒র্ধ্বো᳖ऽধ্ব॒রऽআऽস্থা॑ৎ ॥ ৮ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অস্কন্নমদ্যেত্যস্য ঋষিঃ স এব । বিষ্ণুর্দেবতা । বিরাট্ ব্রাহ্মী পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥
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